‘कुरुक्षेत्र’: मानव धर्म और कर्म की गाथा

कुरुक्षेत्र रामधारी सिंह दिनकर द्वारा रचित विचारात्मक काव्य है यद्दपि  इसकी प्रबंधात्मकता  पर सवाल उठाये जा सकते हैं लेकिन यह मानवतावाद के विस्तृत पटल पर लिखा गया आधुनिक काव्य  अवश्य है।

राष्ट्रीय भावनाओं के ओजस्वी गायक रामधारी सिंह ‘दिनकर’ ने अपनी रचनाओं के माध्यम से सामाजिक चेतना एवं जनजागरण का शंख फूंका है। उनमें निर्भीकता थी, स्पष्टवादिता थी। इसीलिए तो वे अपनी समस्त रचनाओं में युगीन स्थितियों के विरुध्द तीव्र आक्रोश व्यक्त करते हैं। पूंजीवादी शोषण व्यवस्था की धाियाँ उड़ा देते हैं। विदेशी नृशंस शासकों को सिंहासन खाली करने के लिए कहते हैं। उन्हें विश्वास था खुद पर, अपने देश बांधवों पर। वे जानते थे कि, एक-न-एक दिन आजादी मिलकर रहेगी, और वह भी सामान्य जनता के कारण। इसीलिए विश्वसपूर्वक वे फटकारते हैं,

‘आरती लिए तू किसे ढूँढता है मूरख’
‘सिंहासन खाली करो’ आज के युग संदर्भ में उतनी ही
महत्वपूर्ण है, जितनी उस समय थी।
आत्मविश्वास, कर्मठता, सामयिक प्रश्ों के प्रति जागरुकता, चुनौतीभरा आशावादी स्वर, उदात्त सांस्कृतिक दृष्टिकोण, प्रखर राष्ट्राभिमान आदि ऐसे तत्व हैं, जो दिनकर को परंपरावादी कवियों से अलग कर देते हैं। सच्चे अर्थों में वे ‘युगचारण’ तथा ‘जनकवि’ थे।

मनुष्य का धर्म है, कर्म करते रहना। इसी की व्याख्या दिनकर ‘कुरुक्षेत्र’ में करते हैं। शत्रुपक्ष में सगे-संबंधियों को देखकर अर्जुन मोह में पड़ जाता है। अपनेर् कत्तव्य से विमुख हो जाता है। तब शत्रु शत्रु होता है, फिर वह गुरु हो, भाई हो अथवा और कोई। उसके विरुध्द हथियार उठाना हमारा आद्य कर्तव्य है। इस प्रकार का उपदेश भगवान कृष्ण ने अर्जुन को दिया। कर्म पहले। कर्म पर भावनाओं को हावी होने नहीं देना है। यही बात भीष्म समझा देते हैं युधिष्ठिर को। कुरुक्षेत्र का युधिष्ठिर गीता का अर्जुन है। दोनों में अंतर यह है कि अर्जुन की यह स्थिति युध्द के पहले हो गई थी, जबकि युधिष्ठिर की युध्द के पश्चात। दिनकर ने ‘कुरुक्षेत्र’ के अंतर्गत कई प्रश् उठाए हैं, भीष्म और युधिष्ठिर का आलंबन लेकर। उनके भीष्म और युधिष्ठिर महाभारत के भीष्म और युधिष्ठिर नहीं है। कारण महाभारत के प्रसंग को दोहराना उनका उद्देश्य नहीं है। बल्कि भारतीय जनमानस में प्राण फूंक कर उसे ब्रिटिशों के विरोध में खड़ा करना था। इस संदर्भ में सुनीति का कथन दृष्टव्य है, ‘भारतीय जनमानस अर्जुन की तरह व्यामोह में फंसा हुआ था। वह किर्ंकत्तव्यविमूढ होकर एक भीषण रक्तपात की काल्पनिक स्थिति से बचने के उद्देश्य से भारत माता के विभाजन को भी अंगीकृत करना चाहता था। ऐसे समय दिनकर की वाणी से ‘कुरुक्षेत्र’ की जो गीता प्रस्फुटित हुई है, भले ही उसका प्रभाव तत्कालीन समाज पर इतनी तीव्रता से न पड़ा हो, किंतु स्वतंत्रता प्राप्ति के उपरांत आज दिनकर की कुरुक्षेत्रीय भावना शासन व जनता दोनों को समान रुप से पथ-प्रदर्शन करती हुई दृष्टिगोचर हो रही है।’

कुरुभूमि पर हुए भीषण संग्राम के पश्चात कौरवों का श्राध्द करने या चिता के सामने रोने के लिए एक वृध्दा और अंधे के सिवा कोई शेष नहीं रह गया था। कुरुक्षेत्र की मृतभूमि से एक लड़खडाता स्वर युधिष्ठिर को सुनाई देने लगता है। हर्ष के स्वर में भी एक व्यंग्य छिपा हुआ वे अनुभव करते हैं। विजयोपहार के रुप में उन्हें मिला है व्यंग्य, पश्चाताप और अंतर्दाह। वे ‘विजय’ इस छोटे से शब्द को कुरुक्षेत्र में बिछी हुई लाशों से तौलते हैं। विफलताग्रस्त एवं व्यथित हृदय से युधिष्ठिर भीष्म के पास पहुंचकर कहते हैं कि वे किसी को मुंह दिखाने लायक नहीं रह गए हैं। आत्मघात का विचार तक उनके मन में आ गया है। भीष्म उन्हें समझाते है कि दूसरों के सामने हाथ फैलाना पौरुषत्व का लक्षण नहीं है। मानव धर्म का रहस्य बताते हुए वे कहते हैं-
व्यक्ति का है धर्म तप, करुणा, क्षमा,
व्यक्ति की शोभा विनय भी, त्याग भी,
किंतु उठता प्रश् जब समुदाय का, 
भूलना पड़ता हमें तप-त्याग को।’

प्रथम अपनी रक्षा बाद में शेष बातें। जब अपना अस्तित्व ही खतरे में होता है, उस समय सही-गलत, पाप-पुण्य, धर्म-अधर्म की चर्चा करना कवि दिनकर के विचार में मूर्खता है। चारों तरफ से जब हिंस्र श्वापद घेर लेते हैं तब शरीर बल से ही काम लेना पड़ता है। त्याग, तप, क्षमा, करुणा किसी काम के नहीं रहते। इसलिए संकट की घड़ी में अपनी रक्षा के लिए शारीरिक बल का प्रयोग करना धर्म के अनुकूल ही है। त्याग, तप, भिक्षा यह विरागी-योगियों का धर्म है। देह का संग्राम आत्मबल से नहीं जीता जाता है। न्यायोचित अधिकारों के लिए लड़ना मानव धर्म के अनुकूल ही है।
सही अर्थों में मानव धर्म है-दहकते अंगारों पर चलना, सीने पर तीरों को झेलना, हँसते हुए विष प्राशन करना, प्राणों का उत्सर्ग करना और न्याय की रक्षा करना, जैसे-
‘सबसे बड़ा धर्म है नर का 
सदा प्रावलित रहना,
दाहक शक्ति समेट स्पर्श भी
नहीं किसी का सहना।

युध्द और शांति, हिंसा और अहिंसा, कर्म और भाग्य, पाप और पुण्य की कवि अपने युग के अनुकूल व्याख्या करता है। वह युध्द का, हिंसा का समर्थक नहीं है। लेकिन जब कोई हाथ हमारी तरफ उठता है, हमारा अस्तित्व खतरे में होता है, स्वत्व पर आघात होता है, तब वह स्वस्थ बैठने का उपदेश भी नहीं देता है। कर्म, कर्म ही होता है। उसके आधार पर मनुष्य को पापी या पुण्यात्मा ठहराया जाना कवि को पसंद नहीं है। कवि दिनकर पाप-पुण्य को व्यावहारिकता की कसौटी पर सकते हैं। पाप-पुण्य को व्याख्यायित करते हुए वे लिखते हैं-
‘छिनता हो स्वत्व कोई, और तू
त्याग-तप से काम ले, यह पाप है।
पुण्य है विच्छिन्न कर देना उसे, 
बढ़ रहा तेरी तरफ जो हाथ हो।’  आरोपित शांति कवि बिल्कुल नहीं चाहता है। ‘कुरुक्षेत्र’ की रचना ब्रिटिश साम्राज्यवादी शक्तियों के शासन काल में हुई है। ब्रिटिशों की दमनकारी व्यवस्था में ऊपर-ऊपर सब कुछ शांत-शांत था। अंदर मात्र एक ज्वाला धधक रही थी। जिस साम्राज्य की नींव ही शोषण, लूट खसोट, अन्याय-अत्याचार एवं हिंसा पर आधारित थी, वहाँ शांति कैसे हो सकती है? ऐसी साम्राज्यवादी-दमनकारी शक्तियों से अहिंसात्मक तरीके से, मनोबल से लड़ना दिनकर को खटकता है।

यह धरती संन्यासी कर्मविमुखी लोगों के कारण जीवित नहीं है। बल्कि निरंतर कर्म करते हुए, खून-पसीना एक करते हुए मर मिटने वाले लोगों के कारण जीवित है। प्रकृति भी उद्यमी मनुष्य के ही सामने झुकती है। इसीलिए दिनकर विराग, संन्यास, अकर्मण्यता, भोग, निवृत्ति का विरोध करते दिखते हैं। समस्त धरती को उलट-पुलट देने का अडिग आत्मविश्वास उनकी रचनाओं में स्थान-स्थान पर व्यक्त हुआ है। सामाजिक कुरीतियों, रुग्ण मान्यताओं पर उन्होंने तीव्र प्रहार किए है। डॉ. रमा रानी सिंह के मतानुसार, समाज की कुव्यवस्था से उन्हें घृणा तो है तथा उसके प्रतिर् ईष्या भी है, लेकिन इस व्यवस्था से वह भयभीत नहीं क्योंकि उनका व्यक्ति कर्मनिष्ठ है। कर्म के आधार पर ही वह इस व्यवस्था को दूर करने के प्रतिपक्षी हैं। समस्त ‘कुरुक्षेत्र’ उनके इसी आत्मविश्वास और कर्मनिष्ठता का प्रतिपादन करता है। (डॉ. रमा रानी सिंह, दिनकर साहित्य में व्यक्तित्व की अभिव्यक्ति, पृ.79) कर्मवाद एवं प्रवृत्ति की प्रधानता ‘कुरुक्षेत्र’ में दृष्टिगोचर होती है। भीष्म निवृत्ति तथा वैराग्य का खंडन करते हैं। समष्टि के सुख के लिए कार्यरत रहना ही सही अर्थों में मोक्षदान है। अपनी सामर्थ्य और बुध्दि के आधार पर दूसरों का जीवन प्रकाशमय बनाना मनुष्य धर्म है। केवल अपने बारे में सोचना, जीना पशु का लक्षण है। मनुष्य को चाहिए कि वह दूसरों के काम आए। धरती पर फैले अंधकार को मिटा दे। यही मनुष्य का धर्म है।
दीपक का निर्वाण बड़ा कुछ 
श्रेय नहीं जीवन का,
है सध्दर्म दीप्त रख उसको
हरना तिमिर भुवन का।’

इस प्रकार भारतीय संस्कृति के उदात्त रुप की तरफ भी कवि हमारा ध्यान आकृष्ट करता है। हमारी संस्कृति में वही मनुष्य है जो मनुष्य के लिए जिए। कवि कर्मठ मनुष्य गढ़ना चाहते हैं। भाग्य के बजाय वे कर्म में विश्वास करते हैं। उनके मतानुसार भाग्यवाद मनुष्य को निष्काम बना देता है, पलायनवादी बना देता है। भाग्यवाद पाप को छिपाने का आवरण और मनुष्य के शोषण का साधन है, जैसे-
भाग्यवाद आवरण पाप का
और शस्त्र शोषण का,
जिससे रखता दबा एक जन
भाग दूसरे जन का।’

उनके विचार में भाग्यवाद यानी विशिष्ट लोगों ने अपना पेट भरने के लिए तैयार किया हथियार है। कवि दिनकर भौतिक सुखों में लीन मनुष्य की तीखी आलोचना करते हैं। उन्हें विश्वास है कि केवल कर्म के आधार पर ही इस धरती को हम स्वर्ग बना सकते हैं। कवि समता पर आधारित शोषण विरहित समाज का सपना देखता है। यह तभी संभव होगा जब सभी तरह की विषमता नष्ट होगी। इसके लिए भाग्यवाद को छोड़कर काम करने की आवश्यकता है। आज मनुष्य जो कुछ भी है वह केवल कर्म के कारण, भुजबल के कारण। उसके पास प्रज्ञा और सामर्थ्य है। उनका सही दिशा में उपयोग करते हुए दीनों की सहायता करके उनके जीवन से अंधकार को नष्ट कर देना है। यही मनुष्य धर्म है।

One thought on “‘कुरुक्षेत्र’: मानव धर्म और कर्म की गाथा

  1. kanishka kumar says:

    thanks a ton sir..fr this blog

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