कबीर की समाज सम्बन्धी विचारधारा

डॉ० मेराज अहमद

भारत के इतिहास का मध्यकाल सामाजिक संक्रांति का युग था। समाज  संगठन की दृष्टि से अस्त-व्यस्त था। धर्म दर्शन और संस्कृत की अनेक धाराएँ परस्पर संघर्षरत थीं। हिन्दू-समाज भेदभाव पर आधारित शास्त्रों द्वारा अनुमोदित वर्ण व्यवस्था से संचालित होता था परन्तु विद्रोह के स्वर भी उठते थे। बौद्धों, जैनों, नाथों और सिद्धों इत्यादि की विद्रोह में महती भूमिका होती थी। हिन्दू समाज के समानान्तर मुस्लिम समाज का धर्म इस्लाम जो कि सैद्धान्तिक आधार पर समानता का पोषक होते हुए विषमता की भावना से ग्रस्त हो रहा था। बाह्याचारों ने एक सीमा तक इसे अपने मूल से भटका दिया था। यद्यपि इनके बीच भी सूफी संत विद्रोही तेवर के साथ आ खड़े हुए थे परन्तु आम जनता कर्मकाण्डों द्वारा संचालित धर्म के दुष्चक्र में उलझी हुई थी। ऐसे समय में कबीर ने जटिल परिस्थितियों के मध्य अपनी स्वतंत्रा दृष्टि मानवतावादी चिन्तन पद्धति और दृढ़ संकल्पना शक्ति के द्वारा समाज में व्याप्त विषमता का न केवल विरोध ही किया अपितु अपनी वाणियों के माध्यम से समतामूलक समाज के लिए आधारभूमि भी प्रस्तुत की।सामाजिक विश्रृंखलता का केन्द्र व्यक्ति के लिए उच्च आदर्श उपस्थित करते हुए कबीर कहते हैं कि व्यक्ति को गुण ग्राही और आत्मज्ञानी होना चाहिए । यथा – तरूवर तास बिलविये, बारह मास फलंत।/सीतल छाया गहर फल, पंछी केलि करंत॥१कबीर के अनुसार वास्तव में व्यक्ति वही है जो सामाजिक साम्य, स्थापना हेतु अपना सर्वस्व उत्सर्ग कर दे। द्रष्टव्य है – तन मन सीस समरपन कीन्हां, प्रगत जोति तंह आतम लीनां।२इसके अतिरिक्त कबीर ने व्यक्ति के आदर्श के रूप में निस्पृहता अहंकारहीनता एवं निर्विषयता इत्यादि के महात्म्य का उल्लेख किया है। देखिए – निरवेरी निहः कांमता, सांई सेती नेह।/विषिया सू न्यारा रहे, संतनि का अंग एह॥३सिद्धान्ततः नारी को व्यक्ति से इतर नहीं माना जाना चाहिए, परन्तु व्यवहार में नारी का विषय पृथक्‌ रूप से ही विचारणीय होता है। उल्लेखनीय है कि कबीर की नारी निन्दा सर्वविदित है परन्तु उसी के साथ सीमित संदर्भों में समाज में उनकी आदर्श नारी संबंधी विचारधारा के भी दर्शन होते हैं। वह नारी के लिए त्याग, निष्ठा, पतिव्रत एवं सतीत्व की आवश्यकता पर बल देते हुए कहते हैं कि उसे अपने पति के लिए जो कि उसके प्रेम का आधार होता है सब कुछ अर्पित कर देना चाहिए। यथा – इस मन का दीया करों, धरती मैल्यूं जीव।/लोही सींचो तेज ज्यूं, चित दैखौं तित पीव॥४ध्यान देने योग्य तथ्य यह है कि कबीर जैसा विद्रोही कवि नारी समाज के प्रति समाज के अन्य अंगों जैसे स्वस्थ मानसिकता नहीं रखता है, परन्तु उपर्युक्त संदर्भ के माध्यम से भारतीय समाज के पारिवारिक संबंधों में पति-पत्नी के संबंधों की पवित्राता का स्वरूप अवश्य सामने आ जाता है।
विद्या ग्रहण करने वाला विद्यार्थी कहलाता है। समाज में विद्यार्थी की भूमिका अत्यन्त महत्त्वपूर्ण होती है। विद्यार्थी समाज का वह आवश्यक अंग हैं जो भविष्य के समाज की रूपरेखा का नियन्ता होता है। यद्यपि वर्तमान में विद्या और विद्यार्थी दोनों से संबंधित मान्यताएँ बदल चुकी हैं, परन्तु मध्यकाल तक शिक्षा के मूल उद्देश्यों में से एक एवं मुख्य उद्देश्य अध्यात्म और मानवानुकूल श्रेष्ठ गुणों का विकास था। गुरु एवं शिष्य संबंध सभी मानवीय संबंधों से उच्च एवं पवित्रा माने गये। कबीर तो इस संबंध की श्रेष्ठता के प्रबल समर्थक के रूप में सामने आते हैं। यथा – सतगुरु की महिमा अनन्त, अनन्त किया उपकार।/लोचन अनन्त उघाड़िया, अनन्त दिखावणहार।५विद्यार्थी को सातात्त्विक गुरु प्राप्त करने के लिए अपना सम्पूर्ण अर्पित कर देने की बात करते हुए कबीर कहते हैं कि – मेरा मुझ में कुछ नहीं, जो कुछ है सो तेरा।/ तेरा तुझको सौंपता, क्या लागे है मेरा॥६कबीर ने गुरु शिष्य दोनों के लिए श्रेष्ठता स्वनियंत्रण समदर्शिता एवं आत्म नियंत्रण को आवश्यक मानते हुए समाज के सर्व कल्याण के लिए सहायक माना है।यद्यपि साम्प्रदायिकता का जो भयावह स्वरूप समसामयिक संदर्भों में दृष्टिगत होता है वह आधुनिक युग का रूप है।
मध्यकाल में साम्प्रदायिक वैमनस्व कारण साम्प्रदायिक श्रेष्ठता की होड़ की मानसिकता पर आधारित थी। वह कभी तो दो धर्मों के मध्य की होड़ के कारण दृष्टिगत होती थी तो कभी एक ही धर्म के विविध सम्प्रदायों के मध्य दिखाई देती थी। कबीर समाज में साम्प्रदायिक एकता स्थापित करने के क्रम में उभय धर्मों की आलोचना में मुखर हो उठते हैं। यथा – जौर खुदाय मसीति बसत है, और मुलिक किस केरा।/तीरथ मूरति राम निवासा, दुहु मैं किनहू न हेरा॥७साम्प्रदायिक साम्य की भावना से संचालित कबीर साहित्य में अनेक दोहे और पद देखे जा सकते हैं। जो समाज में एकता एवं भाईचारे के लिए मार्ग प्रशस्त करने में सहायक सिद्ध होते प्रतीत होते हैं। इसी भावना के समानातर वर्ण व्यवस्था के परिणाम स्वरूप समाज में उपजी अस्पृश्यता का विरोध कबीर द्वारा प्रस्तुत साम्यवादी समाज के संदर्भों की महती विशेषता है।समाज के विकास की प्रमुख बाँधाओं में आर्थिक वैषम्य के प्रभाव को अनदेखा नहीं किया जा सकता है। कबीर आर्थिक विषमता के मूल धन संचय एवं वैभवपूर्ण जीवन पर कुठाराघात करते हुए कहते हैं – कबीर सो धन संचिये, जो आगे कूं होइ।/ सीस चढ़ाये पोठली, ले जात न देख्या कोइ॥८वास्तविक धन का संकेत करते हुए कबीर कहते हैं कि – निरधन सरधन दोनों भाई प्रभु की कला न मेरी जाई।/कहि कबीर निरधन है सांइ जाके हिदये नाम न होई॥९कबीर की मान्यता है कि धन संचय अध्यात्म और समाज दोनों के विरूद्ध है। यही कारण है कि वह आर्थिक वैषम्य के स्थान पर साम्य स्थापित करने के आकांक्षी रूप में सामने आते हैं।
कबीर अपनी वाणियों के माध्यम से सामाजिक ढांचे को विश्रृंखलता से दूर करने के लिए मानवता की भावना की आवश्यकता पर विशेष बल देते हैं। मानवोचित गुणों का उल्लेख करते समय दया, क्षमा, उदारता और दानशीलता आदि को रेखांकित किया जाता है। कदाचित्‌ मनुष्यों के यही वह सद्व्यवहार है जो समाज को सुसंगठित रखने में अह्‌म भूमिका निभा सकते हैं। सद्व्यवहार से संबंधित कबीर काव्य में अनेक पद एवं दोहे बिखरे पड़े हैं। यथा- एते औरत मरदां साजे, ये सब रूप हमारे।/कबीर पंगुरा राम अलह का, सब गुरु पीर हमारे॥१०प्रस्तुत दोहे में कबीर सभी में यहाँ तक कि असह्रय तक में अपनी आत्मा को पहचानते हुए उनका सम्मान एवं सेवा करने की घोषणा करते हैं।प्राचीन काल से ही संसार के अधिकांश समाज में व्यवस्था के लिए जिस विशिष्ट नियमों और उपनियमों का पालन किया जाता है ऐसे सार्वजनीन एवं सार्वभौमिक नियम को धर्म की संज्ञा से अभिहीत किया जाता है। व्यवस्था, न्याय, सत्य, अहिंसा और प्रेम इत्यादि उदात्त भावों पर आधारित होती है। यही समाज को संगति प्रदान करती है। परन्तु जब अव्यवस्था या यूँ कहा जाये कि धर्म के स्थान अधर्म का जब समाज में प्रभाव बढ़ जाता है तब समाज में विसंगतियों का जन्म स्वाभाविक है। कबीर कालीन समाज की विसंगतियों के उल्लेख की आवश्यकता नहीं। कबीर अधर्म जन्य विश्रृंखल समाज का विरोध ही नहीं करते वरन्‌ सहज एवं सत्य धर्म के स्वरूप को निर्दिष्ट करते हुए कहते हैं कि उसका आधार चरित्रा, संयम एवं हृदय तथा मन की स्वच्छता है। यथा – जे मन नहि तजे विकारा, तो क्यूँ तिरिये भो पारा।/ जब मन छाड़े कुटिलाई तब आइ मिले राम राई॥११कबीर धर्म के अन्तर्गत सातात्त्विक, नैतिकता इत्यादि को भी महत्त्व देते हुए समाज के लिए ऐसे सहज धर्म का निर्देशन करते हैं जो साधक को स्तुति निन्दा, आशा एवं मान अभिमान से मुक्त कर देता है। यथा- असतुति निन्दा आसा छोड़ तजे मान अभिमाना।/लोहा कंचन समि करि देखे ते मूरति भगवाना॥१२भौतिक जगत में मानव समाज के अतिरिक्त जीव जन्तुओं का भी एक विशाल संसार है। मनुष्यों का साथ इनका घनिष्ठ संबंध भी होता है। इतना ही नहीं वनस्पति जगत की परिवर्तन-परिवर्धन एवं संवेदनशील होता है। भारतीय दर्शन के अनुसार आत्मा सर्वव्यापी है। यह संसार के सभी पदार्थों में व्याप्त है। अतः मानव जीव-जन्तु एवं वनस्पतियाँ आध्यात्मिक एकता से परिपूर्ण हैं।
इस आधार पर कहा जा सकता है कि आध्यात्मिक एवं भौतिक दोनों धरातल पर इन सबको मिलाकर एक विशाल समाज की सृष्टि होती है। समाज के इस विशाल परिप्रेक्ष्य के प्रत्येक अंग के प्रति कबीर काव्य में संवेदनशीलता के दर्शन होते हैं। द्रष्टव्य है -भूली मालनि पाती तोड़े, पाती पाली जीव।/जा मूरति को पाती तोड़े, सो मूरति निरजीव।१३जीव-जन्तुओं के प्रति उनकी जागरूकता विलक्षण है यथा – जीव वधत अरू धरम कहते हो, अधरम कहाँ है भाई।/आपन तो मुनि जन हैं बैठे, कासनि कहौ कसाई॥१४प्रस्तुत तथ्यों के प्रकाश में यह स्पष्ट रूप से विदित होता है कि कबीर सुशिष्ट और संयत समाज के लिए समाज की अधिकांश इकाईयों से संबंधित स्पष्ट विचारधारा रखते हैं। समाज की आधारभूत इकाई व्यक्ति के लिए उन्होंने गुण ग्रहण की क्षमता से युक्त संयम और सदाचार के आदर्श को आवश्यक माना है। यद्यपि महिला कल्याण के विषय पर यथोचित विचार प्रस्तुत नहीं किये उसे कबीर की सीमा के रूप में उल्लेखित किया जाता है, परन्तु सामाजिक व्यवस्था में उनके लिए कुछ आवश्यक गुणों के रूप में चरित्रा पतिव्रत एवं सतीत्व का उल्लेख अवश्य किया है।कबीर साहित्य में आध्यात्मिक एवं सामाजिक दोनों संदर्भों में गुरु को विशेष महत्ता प्राप्त है। धार्मिक विभेद वर्ण व्यवस्था एवं साम्प्रदायिक वैमनस्य का विरोध करके धार्मिक एवं साम्प्रदायिक एकता को उन्होंने सामाजिक साम्य के मूल रूप में रेखांकित किया है। वर्ण भेद को कबीर समाज की विखण्डनकारी शक्ति के रूप में देखते हुए उसे समाप्त करने का आह्‌वान करते हैं।
कबीर के अनुसार आर्थिक वैषम्य समाज में अव्यवस्था उत्पन्न करता है। अतः स्वस्थ समाज के लिए वैषम्य समाप्ति आवश्यक है। मानव के साथ उसके परिवेश को जोड़कर जिस विशाल समाज का सृजन होता है उसके अन्तर्सम्बंधों के संदर्भ में कबीर का दृष्टिकोण स्पष्ट एवं संरचनात्मक है।उपर्युक्त विवेचन-विश्लेषण के आलोक में कहा जा सकता है कि कबीर ने आध्यात्मिक क्षेत्र में जिस सहज सिद्धान्त को निर्धारित कर उसकी अनुभूति प्राप्त की उसी अनुभूति के आधार पर उन्होंने समाज में साम्य स्थापित करने हेतु समाज कल्याण की भावना से संचालित स्वस्थ एवं सुसंगठित समाज संबंधी विचारों का प्रतिपादन किया। समाज संबंधी यह वैचारिक प्रतिपादन कबीर साहित्य का आदम प्रतिपादन है।

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