नवगीत का वस्तु विन्यास

विषय की पूर्वपीठिका के रूप में पहले दो बातें कहना चाहूँगा। 

एक:- लौकिक काव्य संदर्भ में गीत की दो अनिवार्य शर्तें रही हैं- छंद संतुलन और अंत्यानुप्रास (तुकान्त)। आदि कवि वाल्मीकि से लेकर अब तक गीत इसी रूप में पहचाना जाता रहा है। यह अलग बात है कि इसके पूर्व, वैदिक साहित्य में ऋग्वेद एवं सामवेद की ऋचाएं, जो गति ही मानी जाती हैं, उपरोक्त ऋचा की एक सुनिश्चित गायन पद्धति निर्धारित थी, जिसे आरोह-अवरोह-स्वरित के नाम से चिन्हित किया गया था। अस्तु, वह लय पर आधारित काव्य था। बाद में सनातन गीत की इस अनिवार्य शर्त ‘लय’ को साधने के लिए छंद और तुकान्त को साधन बनाया गया, जो संस्कृत काव्य की वार्णिक छंद परम्परा तक बखूबी निर्वाह किया जाता रहा। लेकिन हिन्दी काव्य में, खासतौर से मात्रिक छंद के रुढ़ प्रयोग और भाषाई जटिलता के कारण यह छंद रूपी साधन तो बना रहा, किन्तु साध्य लय पीछे छूटती गयी। एक लम्बे समय तक इस विचलन पर किसी का ध्यान नहीं गया। (मैं तो कहूँगा, आज भी किसी का ध्यान नहीं है) यही पारम्परिक गीत का दुर्भाग्य था जिसके कारण गीत प्राण विहीन होकर आकार मात्र रह गया और उसकी इसकी कमजोरी के कारण नई कविता ने उस पर आक्रमण कर उसे ग्रसने का प्रयास किया।
तो यह स्पष्ट होता है कि वैदिक साहित्य से लेकर अद्यतन नवगीत तक लय ही एकमात्र ज़रूरी शर्त रही है गीत की और यह भी, कि सांगीतिक गीतराग तथा मुद्रित गीतपाठ के बीच सम्बन्ध जोड़ने वाला एकमात्र कारक सेतु भी लय ही है।
दो:- नवगीत में और कुछ नहीं, केवल एक ‘नव’ उपसर्ग जुड़ गया है। लेकिन यह उपसर्ग बहुत व्यापक संदर्भों में जुड़ा हुआ है। इसके कई आशय परिलक्षित हैं। एक आशय यह कि नवगीत का तौर तरीका अब तक रचे गये गीत से बिल्कुल अलग तरह का, नया हो। दूसरा आशय यह कि गीत की प्रथम बाध्यता-छंद को लय के आधार पर नया आकार दिया गया हो। तीसरा आशय यह कि अनुप्रास पंक्ति के अंत में होने की बजाय और कहीं भी हो, अथवा न भी हो। चौथा आशय यह कि गीत का अंदाजेबयां यानी शिल्प नये तरह का, बिल्कुल मौलिक हो। पाँचवा आशय यह कि गीत में प्रयुक्त हिन्दी भाषा को आँचलिकता के साथ सविस्तार ग्रहण किया गया हो अथवा नये निजी शब्द गढ़े गये हों और छठवां आशय यह कि गीत में ऐसा कुछ कहा गया हो, जो अभी तक गीत विधा का विषय नहीं बन पाया था, आदि ”आदि”।

और अब यहीं से मूल विषय पर चर्चा क्यों है?

पहला सवाल- गीत में वस्तु की अनिवार्यता क्यों है?

संगीत की रचनाओं में कथ्य की आवश्यकता नहीं होती। वहाँ लय चाहिए, राग-रागिनी चाहिए, सधा हुआ कंठ स्वर चाहिए और संगत के लिए साज चाहिए। उदाहरण के लिए मियां तानसेन की रचनाएं अथवा किसी ठुमरी को लीजिए, इन रचनाओं का श्रोता कभी भी गीत में अर्थ तलाश नहीं करता है बल्कि स्वर के आरोह अवरोह में झूमता है। यही हाल ज़्यादातर फ़िल्मी गीतों का भी है, जैसे ”डम डम डिगा डिगा” मौसम भींगा भींगा। इसीलिए फ़िल्मी गीतों में गीतकार की अपेक्षा दसगुना ज़्यादा महत्व संगीतकार का होता है।
लेकिन काव्यगीत के साथ ऐसा नहीं है। काव्यगीत एक ‘पाठ विधा’ है। वह छपे हुए रूप में पाठक के सामने होता है। पाठक उसे बार बार पढ़ता है और उसमें अर्थ तलाश करता है, आशय तथा संदेश भी तलाश करता है। इसलिए काव्यगीत में कथ्य महत्वपूर्ण है। ज़्यादातर यही कथ्य जनसामान्य में संप्रेषित होता है और उद्धरण का विषय बनता है। काव्यगीत और संगीत रचना के बीच विभाजक रेखा भी कथ्य ही है।
अब हम वर्तमान हिन्दी नवगीत को लें। यहाँ रचनाकारों का उल्लेख किये बिना मैं केवल नवीगीतों का जिक्र करूँगा, कि पिछले वर्षों में अधिकांश नवगीत मौसम, प्रकृति और वैयक्तिक मन:स्थितियों पर रचे गये। इनमें से पहले दो कथ्य (यदि उन्हें कथ्य माना जाए) या तो महाकाव्य के कथा विस्तार में सहयोग देने वाले पूरक वर्णन हो सकते हैं, या फिर सीधे सीधे वैदिक ऋचाओं का अनुगायन। जबकि तीसरा कथ्य उर्दू की रुमानी ग़ज़ल परम्परा का द्योतक है। यहाँ मैं प्रसंगवश कहना चाहूँगा कि उर्दू की पारम्परिक ग़ज़ल का एक बड़ा हिस्सा कथ्य विहीन है। वह केवल बहर, काफ़िया और कहन के बल पर जीवित बना रहा है। हिन्दी नवगीत ने भी सम्भवत: इसी प्रवृत्ति को ग्रहण कर लिया, जिसके फलस्वरूप अनेक ऐसी नवगीत रचनाएं सामने आयीं जिनमें कवि अपने निजी (ज़्यादातर काल्पनिक) अवसाद-आल्हाद को ऐकान्तिक भाव में गाता दिखाई देता है।
अब यहाँ थोड़ा रुक कर विचार करना चाहिए कि ”आज सर्दी बहुत है”-”सूरज भी ठंड से कांप रहा है”- या फिर ”गर्मी ने भीड़ को पसीना-पसीना कर दिया” या फिर ”बसन्त ऋतु आ गयी” (यह वैसी ही है, जैसी हर वर्ष होती है) या फिर ”आषाढ़ के बादल घिर आये, धरती उठ कर आलिंगन कर रही है”-इत्यादि। इन सभी सर्वज्ञात यथास्थितियों का वर्णन करके नवगीत आख़िर क्या संदेश देना चाहता है। दूसरा विचारणीय तथ्य यह कि- ”मैं आज सुबह से उदास हूँ” या फिर -”रह रह कर भीतर से पीर उभरती है” या फिर- ”खोया खोया खुश हुआ”- इत्यादि प्रसंगों पर नवगीत की रचना करने का दूरगामी प्रभाव क्या हो सकता है। बहुत स्पष्ट है कि किसी एक व्यक्ति की ऐकान्तिक अनुभूति में समग्र जन समुदाय ज़्यादा रुचि नहीं ले सकता। हर पाठक गीत रचना में अपना जीवन और अपना कथ्य तलाश करता है और यह भी की ”हर पाठक” कोई एक व्यक्ति नहीं, एक वर्ग या जाति नहीं, यहाँ तक कि एक देश भी नहीं, बल्कि यह तो मनुष्य मात्र है, जो अपने परिवेश से, व्यवस्था से, विकृत कानून से अथवा अन्य मानवीय आपराधिक प्रवृत्तियों से पीड़ित हुआ त्राण की तलाश करता है, या फिर सुख के अतिरिक्त साधन की खोज में काव्य की ओर उन्मुख होता है। फिर भले ही उसे अंधी आस्था या ज्योतिष-भविष्य फल जैसी अवैज्ञानिक चीजों का ही सहारा क्यों ने लेना पड़े।
इस सार्वभौम, समकालीन मानव समुदाय के लिए गीत की भूमिका है। यद्यपि यह सच है कि कविता कोई आदेश, उपदेश या संदेश नहीं देती है किन्तु वह अपने परोक्ष कथन और परिवेशिक चित्रण के माध्यम से जन सामान्य को इस तरह आन्दोलित अवश्य करती है कि पाठक स्वयं अपने रोग के कारण, लक्षण और निदान समझ लेता है। लेकिन यह होता तभी है, जब गीत में परेक्ष रूप में व्यंजित शिल्प में, बिम्बों प्रतीकों के माध्यम से ”कुछ” कहा गया हो। मौसम से सम्बद्ध नवगीत रचना के ये दो उदाहरण देखें-

1. ”फिर दोपहर लगी अलसाने नीम तले

कौए लगे पंख खुजलाने नीम तले

सिर पर पसरी छाँव लगी हटने

ताल नदी के हौंठ लगे फटने

हवा लगी अफवाह उड़ानेनीम तले”

2. ”धूप में जब भी जले हैं पाँव घर की याद आयी

नीम की छोटी छरहरी छाँव में डूबा हुआ मन

द्वार पर आधा झुका बरगद-पिता माँ-बँध ऑंगन

सफर में जब भी दुखे हैं पाँवघर की याद आयी”

मैं कहना चाहूँगा कि पहले गीत में ग्रीष्म का वर्णन भर है किन्तु कथ्य संप्रेषित नहीं है। जबकि दूसरे गीत में संतप्त मनुष्य को अपनी जड़ों की ओर लौटने का परोक्ष संदेश निहित है, इसलिए वह वस्तु प्रधान गीत है। इसी तरह, व्यक्ति परक मन:स्थिति के चित्रण से सम्बन्धित ये दो नवगीत उदाहरण दृष्टव्य हैं।

1- ‘‘व्यथा वेदना का है आलमजीवन की अब शाम हो गयी

विश्वास किया जिस पर भी मैंने वही हृद्य से खेला है

लाखों की चाहत की थी परहाथ न आया धेला है

सफर अनवरतपर न मंजिलमौत स्वयं आयाम हो गयी”

2- ‘‘चन्दन क्षण डूबे अतीत में यादें शेष रहीं

वे दिन जबकि विचारों में प्रतिपल गुलाब महके

भावों में पाँखी गदराई शाखों पर चहके

वर्तमान ही जिया हुआ आगत का भान नहीं”

यहाँ पहला उद्धरण कथ्यविहीन, केवल वयैक्तिक निराशा का चित्रण है, जबकि दूसरे उद्धरण में वैयक्तिक अनुभूति की अभिव्यक्ति में सुखों के संरक्षण हेतु सतत सजग एवं भविष्योन्मुखी रहने की परोक्ष चेतावनी है, इसीलिए, यह वस्तुयुक्त नवगीत है।

दोनों तुलनात्मक गीतों का प्रभाव एक सामान्य पाठक पर भी ऐसा ही पड़ेगा, कि आशय ग्रहण कर लेगा। और यह कि, नवगीत रचना या कोई भी काव्य रचना अंतत: सामान्य पाठक के निमित्त ही होती है- होनी चाहिए। इसलिए पाठगीत में वस्तु की अनिवार्यता स्वयं सिद्ध है।
नवगीत में वस्तु विविधता और विस्तार की भी व्यापक सम्भावनाएं हैं। सम्भवत: और किसी काव्य विधा में इतने कथ्य प्रकार न समा सकें, जितने नवगीत में हो सकते हैं। एक समय था जब गीत को रागात्मक अभिव्यक्ति और केवल सकारात्मक विचार व्याप्ति तक सीमित मान लिया गया था। इसी तरह ग़ज़ल रुमानी ज़मीन पर केन्द्रित थी, दौहा नैतिक एवं सामाजिक सूक्तियों के लिए आरक्षित था, घनाक्षरी ब्रज क्षेत्र की सम्पत्ति थी और नई कविता केवल वामपंथी विचारों का पुलिंदा रही। लेकिन नवगीत अपने आरमभ काल से ही अप्रतिबन्धित कथ्य को लेकर चला है। उसने सौन्दर्य तथा प्रेमानुभूति को तो साथ रखा ही, नैतिक-सामाजिक, राजनैतिक, आर्थिक, मनोवैज्ञानिक विषयों सहित विश्व परिदृश्य को भी अपनी विषय वस्तु बनाया। यहाँ तक कि जो विषय गीत में वर्जित किये गये थे, ऐसे वीभत्स और क्रूर संदर्भों सहित विज्ञान और तकनीक को भी अपने अंदर संमेट कर नवगीत ने वस्तु को इतना व्यापक आयाम दिया अब उसे निर्वाध गमन हेतु दसों दिशाएं खुली हुई हैं। नवगीत के एक असाधारण कथ्य का अंश देखें:-

”कांधे पर धरे हुए खूनी यूरेनियम हँसता है तम

युद्धों के लावा से उठते हैं प्रश्न और गिरते हैँ हम”

और भी ढेरों ऐसे नवगीत हैँ जिनका कथ्य एकदम असाधारण और लीक से हट कर है। क्योंकि नवगीत अब वालिग हो चुका है। उसकी मूँछे निकल रही हैं, अत: उसे अपनी अभिव्यक्ति के विस्तार के लिए सारी धरती और सारा आकाश चाहिए।

और अंतत: नवगीत वस्तु के विन्यास पर एक दृष्टि।

समकालीन नई कविता की तरह, समकालीन नवगीत सपाट बयानी, गद्यात्मक शैली या रिपोर्ताज पसन्द नहीं करता। चूँकि नवगीत हमेशा ही लय से संपृक्त होता है, इसक कारण वह गद्यात्मक तो हो ही नहीं सकता। वह अन्य काव्य विधाओं की भाँति अपने कथ्य का विन्यास भी करता है। इसे आप बुनावट या बनावट भी कह सकते हैं और कृत्रिमता का विन्यास भी करता है। इसे आप बुनवाट या बनावट भी कह सकते हैँ और कृत्रिमता का दोषारोपण भी कर सकते हैं। किन्तु कौन सी विधा कृत्रिम नहीं है?- ज़रा सोचिए। वस्तु को ज्यों का तयों परोसने का दम्भ भरने वाली समकालीन कविता भी आख़िर रची ही जाती है। यह ‘रचना’ आख़िर क्या है- वस्तुविन्यास ही न। कभी प्रतीकों के द्वारा, कभी व्यंजित शब्दों के माध्यम से और कभी ठेठ आँचलिक टटकी भाषा के सहारे अत्याधुनिक संदर्भों को कविता में एक नितान्त नया रुप आकार दे दिया जाता है। यह विन्यास ज़रूरी भी है। यह न हो तो कविता, कविता जैसी नहीं लगेगी। इसी तरह, नवगीत भी विन्यास के बिना नवगीत तो क्या, गीत ही नहीं लगेगा।
विन्यास के लिए नवगीत के पास बहुत प्रसाधन हैं। सबसे सशक्त और बहुप्रयुक्त साधन है- बिम्ब योजना। इस दौर के अधिकांश नवगीत बिम्ब केन्द्रित हैं और इसी करण वे आकर्षक तथा रोचक भी हैं। बिम्ब न सही, तो प्रतीक योजना है, जो नवगीत के अंग उपांगों को आकर्षक बनाती है। इसके अतिरिक्त व्यंजना शैली है, सांस्कृतिक संदर्भों का रेखंकन है, पौराणिक-ऐतिहासिक मिथक हैं, इंगित हैं, वैज्ञानिक शब्दावली है, आँचलिक बोलियों का आकर्षणं है, कोमल भावों का उत्प्रेरण है तथा रागात्मकता है और कुछ भी न हो तो छंद, लय तथा तुकान्त का शाश्वत रूप श्रृंगार तो है ही।

इस प्रकार, हिन्दी नवगीत अपनी अनिवार्य लय की प्राणवत्ता के साथ, व्यापक वस्तु विन्यास का भरपूर उपयोग करके आज साहित्य भूमि में आदमकद आकार में खड़ा हैं, अप्रतिहत-अपराजित-अनश्वर।

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महेश अनघ

भारतेन्दुयुग : अंतर्जातीय सम्पर्क एवं सांस्कृतिक अस्मिता

‘‘अहै इहाँ पर तीन मत, हिन्दू यवन क्रिस्तान
भारत की शुभ देह में, तीनिहुँ अस्थि समान।’’
………………………………………………(प्रतापनारायण मिश्र)
भारत के शरीर में हिन्दू, मुस्लिम और ईसाइ अस्थि के समान है। यह उपमा बताती है कि अपने तमाम धार्मिक मतवादों व कट्टरताओं के बावजूद वृहद् राष्ट्रीय परिप्रेक्ष्य में इनके चिंतन की दिशा क्या थी।
वीरभारत तलवार ने हिन्दी नवजागरण के लेखकों में मुस्लिम विरोधी तत्वों को उभारते हुए उन्हें हिन्दू नवजागरण का लेखक सिद्ध किया। जन चेतना के लेखक ‘धार्मिक नेता’ कहलाये। उन्होंने बताया कि मुसलमानों के सांस्कृतिक और प्रशासनिक वर्चस्व से लड़ने के लिए जिन तीन मुद्दों को इन लेखकों ने उठाया वे हैं- हिन्दी भाषा आंदोलन, नागरी लिपि आंदोलन और गोरक्षा आंदोलन। और निष्कर्षतः बताया कि भाषा, लिपि और गाय का राजनीतिक इस्तेमाल कर किस तरह इन हिन्दू भद्रवर्गीय लेखकों ने साम्प्रदायिकता को सींचा, जिसका परिणाम वर्तमान साम्प्रदायिक उन्माद है।1
इन लेखकों के यहाँ मुसलमानों का ही नहीं ईसाइयों का भी विरोध है जिसे तलवार नज़रअंदाज करते हैं। और यह विरोध करने वाला मानस हमेशा ‘हिन्दू’ नहीं होता था। क्योंकि यही मानस हिन्दू मतावलम्बियों व धर्म परम्पराओं की विकृतियों का भी विरोध करता था। इन दोनों विरोध भावों को जो दिमाग़ संचालित करता था वह था शिक्षित भद्रवर्गीय दिमाग़। जो विरोधों की कसौटी के लिए धर्म नहीं देश हित को अपनाता है। भद्रवर्गीय लोग धर्म के प्रति जिस तरह का सुविधाजनक रवैया अपनाते हैं वही रवैया इन लोगों ने भी अपनाया। धर्म समाज में व्याप्त सच्चाई है। देशहित में धर्म की भूमिका तय करना ऐतिहासिक ज़रूरत और मजबूरी थी। इसीलिए उनकी ‘देशोन्नति की धारणा’ में देखा जाना चाहिए कि कैसे धर्म देश के लिए ज़रूरी है भी और नहीं भी, साथ ही देशहित की कसौटी पर कैसे धर्म से मुक्ति की छटपटाहट है। धारणाओं की समग्र दृष्टि और चिंतन का सम्पूर्ण परिप्रेक्ष्य अस्मिता बोध पर केन्द्रित है, इसे याद रखना चाहिए।
किसी भी तरह की अस्मिता बग़ैर ‘अदर्स’ (अन्य) के उत्पन्न ही नहीं हो सकती। उसकी पहचान ही ‘अदर्स’ के बरक्स होती है। ऐसे में इस अदर्स के प्रति उसका रवैया आग्रहों से मुक्त नहीं हो सकता। यह आग्रह हमेशा श्रेष्ठता बोध का होता है। यह प्रक्रिया दो चरणों में घटित होती है। एक, अदर्स का विरोध कर; दूसरी, ‘सेल्फ’ की स्थापना कर। जब अस्मिता की यह लड़ाई धर्म के आधार पर लड़ी जाती है तब वह साम्प्रदायिक रूप ले लेती है। 19वीं शताब्दी का हिन्दी नवजागरण अपने ‘स्वत्व’ को गढ़ रहा था। ‘स्वत्व निज भारत गहै’, इसमें परम्परा, इतिहास और भविष्य की चेतना तीनों की भूमिका थी। इस ‘स्वत्व’ के लिए अदर्स तो थे अंग्रेज, लेकिन इसे गढ़ने की प्रक्रिया में परम्परा और इतिहास के दबाव ने एक और ‘अदर’(अन्य) पैदा किया और वह है ‘मुसलमान’। यह ज़मीन ज्यादा उर्वर थी। हालाँकि ऐसे में भविष्य की चेतना भी एकरैखिक नहीं हो सकती थी। फिर भी भविष्य की जो चेतना धार्मिक दृष्टिकोण से तय हो रही थी उसके अनुसार-‘‘हम हिन्दू हैं और यह देश हमारा स्थान है। यह भारत है और हम यहाँ के मुख्य निवासी हैं। दूसरे लोग केवल गौण रीति से भारतीय कहलावें पर मुख्य भारतीय हमीं हैं।’’2 और भविष्य की जो चेतना आर्थिक और राजनीतिक संबंधों व उसके महत्वों के आधार पर बन रही थी, उसके अनुसार-‘धन्य भाग उस स्थान के जहाँ अनेक धर्म के लोग एक मत के हों।’ साथ ही -‘‘हिन्दू मुसलमान दोनों भारतमाता के हाथ हैं। न इनका उनके बिना निबाह है न उनका इनकेे बिना। अतः सामाजिक नियमों में एक दूसरे के सहायक हों। इसमें दोनों का कल्याण है। कोई दहिने हाथ से बायाँ हाथ अथवा बाएँ हाथ से दहिना हाथ काट के सुखी नहीं रह सकता।’’3 इस समझ ने हिन्दू और मुसलमानों को ‘एक’ करना शुरू किया। इसी से भारत का स्वत्व पहचाना गया और राष्ट्रवाद की शुरूआत हुई। भारतेन्दुयुगीन अस्मिता-बोध सांस्कृतिक परिस्थितियों से अटूट रूप से जुड़ा हुआ है। विविधता और विकास की यह प्रक्रिया इनसे मुक्त नहीं था।
सांस्कृतिक और अस्मिताओं के जुड़ाव को अंतर्जातीय सम्पर्कों के व्यतिरेक में देखना चाहिए। भारतेन्दुयुगीन साहित्य में अंतर्जातीय सम्पर्क के दो रूप दिखायी पड़ते हैं। एक, भारत की भौगोलिक सीमा से परे; दूसरा, भौगोलिक सीमा के भीतर। भौगोलिक सीमा से परे जो सम्पर्क हैं वह मुख्यतः यूरोपीय देशों, अमरीका, जापान, चीन आदि देशों के सम्पर्क से आनेवाली नयी चेतना व ज्ञान-विज्ञान के संदर्भों में आता है। गदाधर सिंह ने ‘चीन में तेरह मास’ शीर्षक पुस्तक लिखी। राधाचरण गोस्वामी ने ज़ार रूस पर लेख लिखा। दोनों में ही साम्राज्यवादी कुकृत्यों की आलोचना की गई है। तथाकथित सभ्य देशों की असभ्यता को दिखाकर राष्ट्रीय अस्मिता को मजबूती प्रदान की गई।
बाहरी सम्पर्क से प्राप्त जानकारियों को स्वीकारात्मक और प्रतिक्रियात्मक जैसे दो तरह के रवैये में देखा जा सकता है। स्वीकारात्मकता सामान्य रूप से ज्ञान और सोच के धरातल पर है। बालकृष्ण भट्ट ने लिखा-‘‘यूरोप के देशों की जो इतनी उन्नति है तथा अमेरिका जापान आदि जो इस समय मनुष्य जाति के सिरताज हो रहे हैं इसका यही कारण है कि उन-उन देशों में लोग अपने भरोसे पर रहना या कोई काम करना अच्छी तरह जानते हैं। हिन्दुस्तान का जो सत्यानाश है इसका यही कारण है कि यहाँ के लोग अपने भरोसे पर रहना भूल ही गए।’’4 यहाँ भट्टजी केवल अंग्रेजों के भरोसे बैठे रहनेवाले राष्ट्रवादियों की आलोचना ही नहीं करते, बल्कि अंतर्जातीय सम्पर्क से ‘आत्मनिर्भरता’ का सबक लेते हैं और जाॅन स्टुअर्ट मिल को उद्धृत करते हुए कहते हैं-‘‘समाज को जीर्ण और छिन्न-भिन्न करनेवाले खान-पान के अनेक ढकोसले अब नहीं चल सकते। नयी उमंग की नूतन सभ्यता में प्रवेश पायी हुई हमारी या आपकी संतान सब एकामयी कर डालेंगी। मुसलमान, पारसी, अंग्रेज, हिन्दू खुलाखुली एक साथ बैठे खाद्य-अखाद्य सब कुछ खायेंगे।’’5 अंतर्जातीय सम्पर्क से समाज एक नए सांस्कृतिक गठन की ओर अग्रसर है, भट्टजी इसे पहचान गए थे। मुल्क की तरक्की के लिए ऐसे कई और सकारात्मक परिवर्तनों की ज़रूरत वे महसूस करते हैं। भट्टजी ने लिखा-‘‘फ्रांस और इंगलैंड सरीखे देशोें में एक साधारण कुली और किसान भी पैट्रियट होने का पूरा अभिमान रखता है। मुल्की इंतजाम और राजनीति के भांत-भांत के काट ब्योंत और तेचपेच समझना तो उसके लिए कुछ बड़ी बात नहीं है। …हमारे यहाँ अच्छे-अच्छे कुलीन और प्रतिष्ठित राजा बाबू भी सिवाय खाने और सोने और देह को आराम में रखने के कुछ और जानते ही नहीं।’’6 आगे उन्होंने कहा-‘‘एक वह कौम है कि साधारण सी सुई और दियासलाई के कारखाने वाले करोड़पति हैं; साल में लाखों कमाते हैं। ऐसे हजारों किस्म के कारखाने इंगलैंड, जर्मनी, फ्रांस और बेल्जियम वालों के हैं …वहीं हम हैं जिन्हें लड़की-लड़कों के ब्याह से इतनी फुर्सत नहीं मिलती कि दूसरा काम करें।’’7 यहाँ परिवर्तन और विकास की उम्मीद बेशक देशी पूँजीपति वर्ग से लगायी गयी है, लेकिन प्रक्रिया की समझ अंतर्जातीय सम्पर्क का ही परिणाम है। जो समसामयिकता की समझ और देशहित के नियामक तत्वों की पहचान संभव करता है, साथ ही आर्थिक और राजनीतिक चेतना के निर्माण में भी मुख्य भूमिका अदा करता है। स्वदेशी के आग्रहों के बावजूद वे कहते हैं कि ‘‘जैसा जर्मनी वाले हमारे यहाँ के दर्शन और वेदों का प्रचार अपने देश में बहुतायत से कर रहे हैं वैसा ही हम उनके यहाँ के विज्ञान को अपने देश में फैलाने का यत्न करें।’’8 अंतर्राष्ट्रीय सम्पर्क से अर्जित इस ज्ञान का स्वीकार क़ौमी ज़रूरतों के मुताबिक है। यही वह आधार भी है जिसके आधार पर प्रतिक्रिया भी उभरती है।
उन नयी रोशनीवालों को जो हर ‘पुरानी बातों और पुराने ख़याल से घिन्न’ करता हो, केवल जोश और तेज मिजाज़ी ही जिसकी तबियत हो और यहाँ तक कि ‘वाइन’ को ‘सब सभ्यता का सार’ कहता हो भट्टजी अस्वीकार्य समझते हैं। अंतर्जातीय सम्पर्क का यह असर आलोच्य है। भारतेन्दु ने भी अपने ‘तदीय समाज’ के माध्यम से और अपने रचनात्मक साहित्य में भी मदिरापान का सख़्त विरोध किया है।
अंग्रेजों के सम्पर्क से स्त्रियों के बारे में एकबारगी जो नये विचार आये उसके प्रति अधिक प्रतिक्रिया हुई और नयी रोशनी वालों की आलोचना की गई। भारतेन्दु ने अपनी ‘नीलदेवी’ की भूमिका में साफ कहा कि ‘‘यह शंका किसी को न हो कि मैं स्वप्न में भी यह इच्छा करता हूँ कि इन गौरांगी युवती समूह की भांति हमारी कुललक्ष्मी गणा भी लज्जा को तिलांजलि देकर अपने पति के साथ घूमैं।’’9 प्रेमघन की ‘गुप्त गोष्ठी गाथा’ में भी एक मित्र (जिसकी अंग्रेज पत्नी होती है) की बीवी को कोई अपने घर में नहीं आने देना चाहता क्योंकि वह घरेलू स्त्रियों को आज़ादी का पाठ पढ़ाने लगती हैं। भट्टजी ने नयी रोशनीवाली इस सभ्यता पर व्यंग्य करते हुए लिखा-‘‘फ्रीडम, अर्थात् स्त्री और पुरुष दोनों परस्पर स्वतंत्र और निरपेक्ष बल्कि साहब और मेम दोनों की स्वतंत्रता तराजू पर तौलने से मेम साहब की आजादी का पलरा झुका हो। एक उम्दा नमूना सभ्यता का यह भी है कि मेम साहब एक दिन भी रंडापे का दुःख न उठाने पावे। मियाँ इधर कब्र में पहुँचे बीवी साहिबा के लिए दूसरा तैयार।’’10
इस अंतर्जातीय सम्पर्क ने नया अंग्रेजी दाॅ मध्यवर्ग तैयार किया। जो अंग्रेजों के रंग-ढंग से लबरेज है। प्रतापनारायण मिश्र ने इसकी भरपूर आलोचना की है। राधाचरण गोस्वामी ने ‘मिस्टर बूट’ नामक निबंध में उसकी खूब ख़बर ली है। प्रेमघन के ‘गुप्त गोष्ठी गाथा’ में उनके एक मित्र का उल्लेख आता है। नाम है- ज्योतिधारी मिस्टर निशाकरधर बैरिस्टर-एटाल, जो विलायत जाकर, सुहावनी सभ्यता लख, होटल में खा, भाँति-भाँति के आनंद उपयोगकर बैरिस्टर बन एक मेम से सगाई कर लौटे, और अपने देसी दोस्तों को कहते हैं-‘‘तुम लोग अभी जैंटिलमैन से ट्रीट करना बिल्कुल नहीं जानता। पान खाना तो जंगलीपन है, हमलोग तो चुरट पीता है।’’11
इसके अतिरिक्त ‘ईश्वर के अस्तित्व तक में संदेह’ भी नयी रोशनीवालों के प्रति प्रतिक्रिया का कारण बना। इस युग के लगभग सारे रचनाकार मूर्तिपूजा के समर्थक थे। ऐसे में पश्चिमी विचारों की नास्तिकता, तत्जन्य स्वतंत्र व उच्छृंखल व्यवहार उनके लिए अस्वीकार्य था। अधिकांश प्रतिक्रिया, व्यवहार और आचरण के स्तर पर है जो सीधे संस्कृति और परम्परा की मूल मान्यताओं के विरूद्ध जाता देखकर होती थी। कई बार उसका कोई देश हितात्मक रूप नहीं दिखाई देता था। इस प्रतिक्रियात्मकता को मध्यकालीन मानस की आधुनिकता से टकराहट के रूप में भी देखा जा सकता है, खासकर व्यक्ति स्वातंत्र्य के धरातल पर। लेकिन परम्परा और आधुनिकता का संबंध बहुत ही स्पष्ट व्याख्यायित संबंध नहीं है। आधुनिकता में परम्परा का अंधविरोध नहीं बल्कि सशर्त स्वीकार है। यह शर्त मानवता के मूल उद्देश्य से जुड़े महाख्यानों के अनुसार लगाये जाते थे। नवजागरण कालीन लेखक भी परम्परा चाहे वह धार्मिकता के अर्थ में ही क्यों न हो, अधिकतर सशर्त ही स्वीकार करते हैं। यदि उसकी यथास्थिति का समर्थन भी करते हैं तो उसका आधुनिक अथवा गैरआधुनिक मानवतावादी विश्लेषण उनके पास होता है। लेकिन यह प्रक्रिया बड़ी जटिल होती है जिसमें मध्यकालीन रूढ़िवादी मानसिकता और आधुनिक तर्क-विवेक का द्वन्द्व न केवल तीखा, बल्कि चोर-सिपाही के खेल की तरह एक दूसरे पर हावी होता रहता है।
अंतर्जातीय सम्पर्क ने दो काम किये। एक ओर ज्ञान के नये द्वार खोले तो दूसरी ओर सभ्यता और संस्कृति का सार्वभौमिक चरित्र और उसकी विविधता समझ में आयी। साथ ही, यदि भारतेन्दु के शब्दों में कहें तो-‘यह भी पता चला कि दोनों एक ही जैसे हैं फिर भी वे राजा और हम प्रजा क्यों हैं ?’ साथ ही कुछ ऐसे लोग भी उभरे जिनमें ‘साहब’ बनने की होड़ लग गयी। जो आखि़रकार कहीं के न रहे। न अंग्रेज ही हो पाये, न भारतीय रहे। यह कहीं का न रहना उस अस्मिता से च्युत हो जाना है जो परम्परा, संस्कृति और जातीयता के सम्मिलित बोध का परिणाम है।
भौगोलिक सीमा के भीतर अंतर्जातीय सम्पर्क मुख्यतः हिन्दू, मुसलमान और ईसाइ इन तीनों धार्मिक समुदायों के बीच के अंतःसम्बन्धों में अभिव्यक्त होता है। जहाँ विरोध और सामंजस्य की खींचतान दिखलायी पड़ती है। अन्य भाषा-भाषी जातियों के बीच (जैसे बंगाली, मराठी, पंजाबी आदि) सम्पर्क अधिकतर विचार के धरातल पर है व्यवहार के धरातल पर बहुत कम। जबकि धार्मिक समुदायों के बीच दोनों रूप देखे जा सकते हैं पर व्यवहार की कसौटी अधिक लागू होती है।
जब धर्म की कसौटी लागू करते हैं तो ‘हिन्दी हिन्दू हिन्दुस्तान’ के रूप में राष्ट्र और भाषा को धार्मिक अस्मिता का आधार देते हैं, जो काफी हद तक साम्प्रदायिक लगता है। लेकिन विकास इसका नहीं होता। विकास उस व्यावहारिक दृष्टि का होता है जो मनुष्य को धर्म के आधार पर न पहचान कर साधारण और विशेष के रूप में पहचानता है। जिसके अनुसार-‘‘साधारण समुदाय के लोग जिनका बल, विद्या, धन, मान आदि सर्वसाधारण से अधिक नहीं होता पर संख्या तीन चैथाई से भी कुछ अधिक ही होती है। इससे वही देश के अस्थि माँस कहलाते हैं, बरंच उन्हीं का नाम देश है और उन्हीं की दशा देश की दशा कहलाती है।’’12 स्पष्ट है, नवजागरण में जो ‘मुट्ठीभर द्विजों का हिन्दूत्व’ था वह टूट रहा था और सर्वसाधारण का हस्तक्षेप बढ़ रहा था। चेतना व वैचारिकी इस दिशा में विकसित हो रही थी।
इन लेखकों ने मुस्लिम वर्चस्व का खूब विरोध किया। मुख्यतः विचारों के आधार पर। इसके पीछे उनका धर्ममूलक इतिहास-बोध ज़िम्मेदार है, जो साम्राज्यवादी नीतियों का परिणाम था। लेकिन व्यावहारिक जीवन और राष्ट्रीय हित अथवा राष्ट्र का भविष्य इस विरोध भाव से तय नहीं होता है। इन सभी लेखकों के दर्जनों ऐसे निबंध हैं जिनमें हिन्दू अथवा मुसलमान शब्द तक का प्रयोग नहीं है। समस्याओं और विचारों को हमेशा हिन्दू-मुस्लिम के खाँचे में देखना नवजागरण के लेखकों की विशेषता नहीं है।
ऊँच और नीच की कसौटी भी जाति अथवा धार्मिक पहचान नहीं है। निबंध ‘नीचपन क्या है’ में भट्टजी ने ‘रुपये’ को इसकी कसौटी माना और कहा-‘‘जिसने रुपये को लात मार बात और प्रतिष्ठा का आदर किया ऊँचों से भी ऊँचा है और जिसने रुपये के पीछे सब कुछ गंवाय एक उसी को सिद्ध किया उसके बराबर नीच से नीचा भी कोई नहीं।’’13 भट्टजी के ‘दुर्भिक्ष दलित भारत’ में भारत के दुर्भिक्ष को भी अंग्रेज सरकार की लूट बताया गया है, मुसलमान यहाँ भी नहीं है। अपने ‘पसंद’ शीर्षक निबंध में भट्टजी ने पसंद को उसकी विशेषताओं के आधार पर दो खण्डों में बाँटा-‘अंग्रेजी पसंद और हिन्दुस्तानी पसंद।’ यहाँ हिन्दू पसंद अथवा मुस्लिम पसंद का ज़िक्र तक नहीं है। हिन्दुस्तान की संकल्पना में हिन्दू-मुस्लिम का भेद नहीं है। दरअसल उपनिवेश विरोधी राष्ट्रवाद की दृष्टि ने पूरी वैचारिकता को क्रांतिकारी रूझान दिया। हिन्दू और मुसलमानों के संबंध नये तरीके से परिभाषित होने लगे। प्रतापनारायण मिश्र ने लिखा-‘‘जितना दारिद्रय मुसलमानों के सात सौ वर्ष के शासन के द्वारा फैला था, उससे अधिक इस नीतिमय राज्य में विस्तृत है। ….इस राज्य में सौ ही वर्ष के बीच यह दशा हो गयी है कि देश भर में चैथाई से अधिक जन केवल एक बेर खा पाते हैं, सो भी पेट भर नहीं।’’14 इतिहास के शत्रु उनके लिए परेशानी नहीं हैं, वे इतिहास की भूल सुधारने के बजाय वर्तमान शत्रु और चुनौतियों को पहचानते हैं, जिससे संघर्ष के लिए हिन्दू और मुसलमानों की एकता ज़रूरी है। बेशक हिन्दू अस्मिता का बोध है और वह मुसलमानों व ईसाइयों के सापेक्ष ही परिभाषित हो रही है, लेकिन मुस्लिम विरोध का रंग उतना साम्प्रदायिक नहीं है जितना वीरभारत तलवार दिखाते हैं। शंकराचार्य और गुरूनानक की तुलना करते हुए बालकृष्ण भट्ट ने नानक की प्रशंसा की और कहा-‘‘गुरु नान्हिक ने जाति-पांति को फूट की बुनियाद समझ वर्ण-विवेक को यहाँ तक घटाया कि हिन्दू-मुसलमान दोनों को एक कर दिया।’’15 इसी का परिणाम है कि पंजाब आगे को बढ़ रहा है। बंगाल में चैतन्य महाप्रभु की भी यही भूमिका वे देखते हैं। अर्थात्, अस्मिता-बोध का हिन्दू स्वरूप परम्परागत मानसिकता की उपज है परन्तु धार्मिक एकता वर्तमान की ठोस ज़रूरत। यह ज़रूरत धार्मिक कट्टरता से दूर नहीं हो सकती थी। इसकी पहचान ही आधुनिक चेतना है।
प्रतापनारायण मिश्र ने तो अपने निबंध ‘हम राजभक्त हैं’ में हिन्दू और मुसलमान दोनों की तरफ से राजभक्ति को ‘सनातन धर्म’ सिद्ध किया है। 1875 के बलवे में भी ‘प्रतिष्ठित हिन्दू-मुसलमानों का दोष न था।’ रही बात राजभक्ति को वह संदेह से परे है-‘‘शरीफ हिन्दू, मुसलमानों से ऐसा संदेह करना दूरदर्शिता की हत्या लेना है।’’16 अपनी दरबारी मानसिकता में भी दोनों को साथ रखा। मिश्रजी साम्प्रदायिकता के कारणों को पहचानते थे और उसके विरोधी थे। उन्होंने लिखा-‘‘यदि ऐसा होता कि आर्यसमाजियों में आर्य, सनातनधर्मियों में पंडित महाराज, मुसलमानों में मुल्ला जी, ईसाइयों में पादरी साहब इत्यादि ही उपदेश करते तब कोई हानि न थी, बरंच यह लाभ होता कि प्रत्येक मत के लोग अपने-अपने धर्म में दृढ़ हो जाते। सो न करके एक मत का मनुष्य दूसरे सम्प्रदायियों में जाके शांति भंग करता है। यही बड़ी खराबी है क्योंकि विश्वास हमारे और ईश्वर के बीच निज संबंध है।’’17 विश्वास निजी मामला है, दूसरे के विश्वास में दख़ल से सारी खराबी है। साम्प्रदायिकता इसी से पैदा होती है। इसीलिए मिश्रजी कहते हैं-‘‘किसी मत का खंडन-मंडन वा किसी के धर्मग्रन्थ तथा आचार्यादि मान्य पुरुषों और मंदिरादि श्रद्धेय पदार्थों का अनादर करना महा नीचता है …आपस में वैमनस्य बढ़ने के अतिरिक्त और कोई फल नहीं प्राप्त होता।’’18 यह नितांत आधुनिक रवैया है। इसके पीछे तर्क की आधुनिक प्रणाली सक्रिय है जो कहती है-‘‘यदि वेद, बाइबिल, कुरानादि की एक प्रति अग्नि तथा जल में डाल दी जाय तो जलने अथवा गलने में कोई बच न जायेगी। फिर एक मतवाला किस शेखी पर अपने को अच्छा और दूसरे को बुरा समझता है।’’19 इन विचारों के वाहक लेखक को साम्प्रदायिक कहनेवालों की समझ पर प्रश्नचिह्न लगाना चाहिए।
यही स्थिति ईसाइयत के विरोध व सामंजस्य की भी है। अक्सर औपनिवेशिकता के विरोध के रूप में यह उभरती है। ब्रिटिश सत्ता ईसाइ मशीनरियों को आर्थिक मदद देती थी। ये मिशनरियाँ गरीबों की सहायता कर उनका धर्म परिवर्तन करती थी साथ ही भारतीय रूढ़िवाद के विरोध के नामपर पूरी परम्परा और संस्कृति की आलोचना किया करती थी। इनके जीवन व्यवहार और शैली की उन्मुक्तता भी उन कारणों में हुई जिसके लिए ईसाइयों की आलोचना की गई। लेकिन यह भी अंध या साम्प्रदायिक विरोध नहीं है। प्रतापनारायण मिश्र ने लिखा-‘‘चित्त से मसीह को प्रतिष्ठा न करना हमारी समझ में अन्याय है और पादरियों की चिकनी चुपड़ी बातों में आके उनका गुलाम बन जाना भी आत्म हिंसा है।’’20 भारतेन्दुयुगीन लेखकों का धर्म के सारतत्व व उनके प्रतिपादकों से कोई विरोध नहीं रहा है। भारतेन्दु ने भी ‘पंचपवित्रात्मा’ लिखा है। इनका विरोध उन लोगों से है जो मतों के आधार पर राजनीति और धंधा करते हैं। ये उन क्रिश्चियन्स का विरोध करते हैं जो ईसा के ‘उत्तम उपदेशों’ पर न चलकर ‘ऊपरी चाल ढाल’ में धार्मिकता समझते हैं। इनके प्रति सामान्यीकृत हिकारत नहीं है। यदि ऐसा होता तो शुभ देह में तीसरे अस्थि ‘क्रिस्तान’ नहीं होते।
वीरभारत तलवार ने लिखा-‘‘बिहार में हिन्दू-मुस्लिम भद्रवर्ग के बीच सांस्कृतिक संबंधों में वैसी कटुता नहीं दिखाई देती जो पश्चिमोत्तर प्रांत में थी।’’21 यह बात ठीक है कि हिन्दू-मुस्लिम संबंध देश के हर हिस्सों में अलग-अलग तरह के थे। बिहार में अलग, बंगाल में अलग और पश्चिमोत्तर प्रांत में अलग। लेकिन पश्चिमोत्तर प्रांत में जिस ‘कटुता’ की बात कही है वह वैसी ही नहीं थी। दरअसल तलवार के इस कथन के पीछे गोरक्षा आंदोलन और हिन्दी भाषा व लिपि संबंधी आंदोलन में मौजूद हिन्दू स्वर है। इस हिन्दू स्वर की व्याख्या उन्होंने व्यापक संदर्भों से काट कर की है।
गोरक्षा आंदोलन को मुसलमानों के विरूद्ध गोलबंद होने की राजनीति कहा गया। धर्म के आधार पर राजनीतिक एकता लाने की कोशिश तो दिखती है, जो पश्चिमोत्तर प्रांत की सामाजिक-सांस्कृतिक वैशिष्ट्य को देखते हुए ज़रूरी भी कही जा सकती है, पर यह गोलबंदी खुद को मज़बूत और प्रभावी बनाने की थी। इसे हिन्दुओं के प्रभावशाली होने से हिन्दुस्तानियों के प्रभावशाली होने तक का सफ़र तय करना था। हिन्दुस्तानियों के प्रभावशाली होने का अर्थ अंग्रेजों के विरूद्ध राजनीतिक स्वाधीनता अर्जित करना था, न कि मुसलमानों को बाहर खदेड़ना। क्योंकि अपने तमाम मुसलमान विरोधी विचारों के बावजूद इन हिन्दी लेखकों में मुसलमानों को बाहर खदेड़ने की संकल्पना नहीं दिखती है। भारतेन्दु तो अपने अंतिम दिनों में इन्हें एक होने की बात कह ही गए थे, उनके बाद उनके मंडल के रचनाकार भी इसी नज़रिये को लेकर आगे बढ़े।
गोरक्षा के आन्दोलन के पीछे जो तर्क दिये जा रहे थे उसका एक पक्ष गाय संबंधी परम्परागत महात्म्य और मुसलमानों द्वारा गोहत्या की जघन्यता थी, तो दूसरा पक्ष गाय की उपयोगिता का था जो हिन्दू और मुसलमान दोनों पर लागू होता था। ‘‘गाएँ बचेंगी तो मुसलमानों को कड़वा दूध न देंगी।’’22 यह उपयोगिता उभयपक्षिय है। यहाँ तक कि इसे कृषि संस्कृति से जोड़ते हुए प्रेमघन ने लिखा-‘‘इस देश की कृषि का कार्य गोवंश ही के सहारे चलता है और हिन्दू मुसलमान उसी के आधार पर अपना जीवन निर्वाह करते हैं। अतः उसके वध से जो हानि होती है, उसे सब समझ सकते हैं।’’23 यह भी उभयपक्षिय उपयोगी है। देखनेवाली बात यह है कि यह तथाकथित आंदोलन मुसलमानों से किस तरह का संघर्ष करता है। इस संदर्भ में भगवती प्रसाद शर्मा ने बिल्कुल ठीक लिखा है कि वे मुसलमानों से गोरक्षा के नाम पर किसी प्रकार का झगड़ा करना नहीं चाहते थे। वे हिन्दूवादी ढाँचे से हटकर, मुसलमानों के दृष्टिकोण को भी ध्यान में रखकर चलते थे।24 प्रतापनारायण मिश्र ने लिखा-‘‘मुसलमान भाइयों के साथ भी मतवाद न बढ़ाकर उन्हें यह समझना चाहिए कि हमारा आपका सैकड़ों वर्षों से मेल-मिलाप है और अब इस देश को छोड़के कहीं आप निर्वाह नहीं कर सकते अतः यहाँ की जलवायु के अनुकूल और वृहत् समुदायवालों की रीति-नीति का सहगमन ही शारीरिक और सामाजिक सुख अथच सुविधा का मूल समझिये।’’25 गोरक्षा का काम हिन्दुओं का था लेकिन मुसलमानों का सहयोग भी उपेक्षित था, ऐसे में यह मुसलमानों के विरूद्ध गोलबंदी की राजनीति कैसे है ? बल्कि ऐसी राजनीति करनेवालों की आलोचना करते हुए कहा गया है कि ऐसे लोग ‘‘प्रत्येक धर्म पर आक्षेप कर कर हिन्दुओं की श्रद्धा हटा देते हैं और अन्य धर्मियों को अधिक गोवध के लिए भड़का के सर्वसाधारण की शाँति में विघ्न डालते हैं।’’26 इन्हें स्पष्ट अंदाजा था कि दो तरह के लोग इस संदर्भ में सक्रिय होंगे-‘‘बाजे-2 हठी मुसलमान कुरान और हदीस के वचन सुने अनसुने करके अपनी ज़िद का निबाह करेंगे, इस मामले में हमारा साथ न देंगे। … बरंच बाजे-2 भाग्यशाली शहरों में धर्मिष्ट मुसलमान भी शरीक हैं।’’27
इस अभियान में हिन्दुओं का तो धार्मिक आधार था, लेकिन गोवध के समर्थन में मुसलमानों के पास तो कोई धार्मिक आधार भी नहीं था। मिश्रजी ने लिखा-‘‘मुहम्मदीय धर्म में यह बात कहीं नहीं लिखी कि गाय के प्राण लिए बिना धर्म रही नहीं सकता।’’28 मिश्रजी की ही ‘गो-गुहार’ कविता में गाय कहती है-‘‘अहिमद इसाई न दई, आज्ञा कतहूँ मुँहि मास की । तौ हू हा हा ! फटै न छाती, इन निर्दय हत्यारन की ।’’29
इनके गोरक्षा आंदोलन के पीछे पशु-हिंसा के विरूद्ध इन लेखकों का मानवतावादी दृष्टिकोण भी है। जो केवल गाय के लिए ही नहीं पशु मात्र के लिए है। भारतेन्दु ने ‘बकरी विलाप’ लिखा। प्रतापनारायण मिश्र ने ‘गो-गुहार’ के अतिरिक्त ‘ब्राह्मण’ के 15 अगस्त 1886 के अंक में ‘पशु प्रार्थना’ नाम से लम्बी कविता लिखी। 15 मई 1883 के ‘ब्राह्मण’ में ‘दयापात्र जीव’ शीर्षक लेख लिखा, जिसमें कुत्तों पर होनेवाली निर्दयता पर खेद प्रकट किया है। इस संदर्भ में भारतेन्दुयुगीन लेखक मध्यकालीन संत कवियों की परम्परा से जुड़ते हैं। अकारण नहीं है कि इन संत कवियों को न केवल इन लेखकों ने बार-बार उद्धृत किया है, बल्कि सीधे-सीधे उन पर लिखा भी है।
गोरक्षा के पीछे यदि मध्यकालीन भाववादी धार्मिक तर्क थे या मध्यकालीनता रूपी संकीर्ण हिन्दूवादी तर्क थे, तो साथ में परदुःखकातरता के साथ उपयोगितावादी भौतिक, अतः आधुनिक तर्क भी थे। यहाँ यह भी ध्यान रखना चाहिए कि उस दौर में गोरक्षा आंदोलनों का एक प्रभाव यह भी पड़ा कि वायसराय को भेजे एक पत्र में महारानी विक्टोरिया ने लिखा – ‘‘वैसे तो मुसलमानों द्वारा की जा रही गोहत्या आंदोलन का कारण है, पर वास्तव में, यह हमारे खि़लाफ है, जो कि अपने सैनिकों इत्यादि के लिए मुसलमानों से कहीं अधिक गो-वध करते हैं।’’30 ऐसे में तलवार वाला सपाट दृष्टिकोण उस युग की समझ को धुंधला कर सकता है।

निर्गुण साहित्य : त्रि-आयामी आलोचना

किसी काल के साहित्य में कोई ऐसा परिवर्तन नहीं होता जो अतीत और भविष्य से पूर्णतः विच्छिन्न हो। रचनात्मक प्रवृत्तियों, चिन्ताधाराओं, सौन्दर्यबोधीय मूल्यों और साहित्य मूल्यों की विकासशील परम्परा में परिवर्तन और निरन्तरता का, द्वन्द्वात्मक गतिशील सम्बन्धा होता है। हर नया आन्दोलन अतीत से मुक्ति की बात करता हुआ भी नया होने के बावजूद इतना नया नहीं होता कि अतीत से उसका कोई सम्बन्ध ही न हो। साहित्येतिहास को ऐतिहासिक आलोचना से स्वतन्त्र एक बौद्धिक अनुशासन के रूप में विकसित करने के लिए यह आवश्यक है कि रचना, रचनात्मक प्रवृत्तियों और कलात्मक बोध के उदय तथा द्वन्द्वात्मक विकास को एक गतिशील प्रक्रिया के रूप में विवेचित किया जाए और इस विकास प्रक्रिया को प्रभावित करने वाले ऐतिहासिक यथार्थ से विकास प्रक्रिया के सम्बन्ध की व्याख्या भी की जाए। रचना की उत्पत्ति और उसकी वर्तमान सार्थकता दोनों पर विचार करना उसका सही मूल्यांकन करना है। वर्तमान की चेतना के परिप्रेक्ष्य में ही अतीत की सार्थकता की व्याख्या करके वर्तमान के लिए उसे उपयोगी और प्रासंगिक बनाया जा सकता है। इस विचार को ध्यान में रखा जाए तो विभिन्न आलोचकों ने अपने युग के सवालों के अनुरूप भक्तिकालीन साहित्य का पाठ प्रस्तुत किया है। भक्तिकाल के साहित्य का फलक इतना व्यापक है कि उसमें तत्कालीन तथा वर्तमान सामाजिक प्रश्नों का विस्तृत विवेचन किए जाने की अपार संभावनाएँ मौजूद हैं। हिन्दी साहित्य के इतिहासकारों व आलोचकों ने अपने-अपने तर्कों के आधार पर इस युग के साहित्य को पारिभाषित किया है किन्तु एक ही काल में विभिन्न प्रवृत्तियाँ इतनी सघनता से विद्यमान हैं कि कोई भी अध्ययन निर्विवाद स्वीकार्य नहीं हो सका है। अपने आलोच्य विषय पर आने से पूर्व यदि भक्तिकाल के उद्भव और विकास के बारे में विद्वानों के अध्ययन पर दृष्टि डालें तो हमें अपने विषय पर समझदारी विकसित करने में सहायता मिलेगी।
हालाँकि हिन्दी साहित्य के इतिहास लेखन की शुरूआत विदेशी विद्वानों के हाथों हुई परन्तु हिन्दी साहित्य के इतिहास को व्यवस्थित और वैज्ञानिक रूप देने वाले पहले विद्वान हैं आचार्य रामचन्द्र शुक्ल। भक्ति साहित्य उनका प्रिय विषय रहा है। उन्होंने भक्ति आन्दोलन के उद्भव के सम्बन्ध में लिखा है कि ‘‘देश में मुसलमानों का राज्य प्रतिष्ठित हो जाने पर हिन्दू जनता के हृदय में गौरव-गर्व और उत्साह के लिए वह अवकाश नहीं रह गया। उनके सामने ही उनके देव मंदिर गिराए जाते थे, देव-मूर्तियाँ तोड़ी जाती थीं और पूज्य पुरुषों का अपमान होता था और वे कुछ भी नहीं कर सकते थे। ऐसी दशा में अपनी वीरता के गीत न तो वे गा ही सकते थे और न बिना लज्जित हुए सुन ही सकते थे। आगे चलकर जब मुस्लिम साम्राज्य दूर तक स्थापित हो गया तब परस्पर लड़ने वाले स्वतन्त्र राज्य भी नहीं रह गए। इतने भारी राजनीतिक उलटपेफर के पीछे हिन्दू जनसमुदाय पर बहुत दिनों तक उदासी-सी छाई रही। अपने पौरुष से हताश जाति के लिए भगवान की शक्ति और करुणा की ओर ध्यान ले जाने के अतिरिक्त दूसरा मार्ग ही क्या था?’’
आचार्य शुक्ल के बाद आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी ने भक्ति आन्दोलन को परम्परा का विकास माना और उसके उद्भव की खोज दक्षिण भारत के भक्ति आन्दोलन में की। आचार्य शुक्ल की स्थापना का खंडन करते हुए वे लिखते हैं ‘‘यह बात अत्यंत उपहासास्पद है कि जब मुसलमान लोग उत्तर भारत के मन्दिर तोड़ रहे थे, तो उससे अपेक्षाकृत निरापद दक्षिण में भक्त लोगों ने भगवान की शरणागति की प्रार्थना की। मुसलमानों के अत्याचार के कारण यदि भक्ति की भावधारा को उमड़ना था तो पहले उसे सिन्ध में और फिर उत्तर भारत में प्रकट होना चाहिए था, पर वह हुई दक्षिण में।’’ आचार्य शुक्ल पर व्यंग्य करते हुए ‘हिन्दी साहित्य की भूमिका’ में उन्होंने लिखा, ‘‘दुर्भाग्यवश हिन्दी साहित्य के अध्ययन और लोक-चक्षु-गोचर करने का भार जिन विद्वानों ने अपने उपर लिया है, वे भी हिन्दी साहित्य का सम्बन्ध हिन्दू जाति के साथ ही अधिक बतलाते हैं और इस प्रकार अनजान आदमी को दो ढंग से सोचने का मौका देते हैं – एक यह कि हिन्दी साहित्य एक हतदर्प पराजित जाति की सम्पत्ति है इसलिए उसका महत्व उस जाति के राजनीतिक उत्थान-पतन के साथ अंगिक-भाव से सम्बद्ध है और दूसरा यह कि ऐसा ना भी हो तो वह एक निरन्तर पतनशील जाति की चिन्ताओं का मूर्त प्रतीक है, जो अपने आप में कोई विशेष महत्व नहीं रखता। मैं इन दोनों बातों का प्रतिवाद करता हूँ … ऐसा करके मैं इस्लाम के महत्व को भूल नहीं रहा हूँ, लेकिन जोर देकर कहना चाहता हूँ कि इस्लाम नहीं आया होता तो भी इस साहित्य का बारह आना वैसा ही होता जैसा आज है।’’ द्विवेदी जी ने इसे ‘भारतीय चिन्ता का स्वाभाविक विकास’ माना है।
शुक्ल जी की भक्तिकाल के उदय से सम्बन्धित उपरोक्त स्थापना उनकी अन्तिम राय के रूप में नहीं है। इसलिए इस्लाम के आगमन को भक्ति साहित्य में ‘प्रभाव’ के रूप में लिया जाना चाहिए, प्रतिक्रिया के रूप में नहीं, जैसी कि स्वयं द्विवेदी जी ने सिफारिश की है। शुक्ल जी ने लिखा है ‘‘भक्ति का जो सोता दक्षिण की ओर से धीरे-धीरे उत्तर भारत की ओर पहले से ही आ रहा था, उसे राजनीतिक परिवर्तन के कारण शून्य पड़ते जनता के हृदय क्षेत्र में फैलने के लिए पूरा स्थान मिला। रामानुजाचार्य ने शास्त्रीय पद्धति से जिस सगुण भक्ति का निरूपण किया था, उसकी ओर जनता आकर्षित होती चली आ रही थी।’’ आगे वे लिखते हैं ‘‘भक्ति के आन्दोलन की जो लहर दक्षिण से आई उसी ने उत्तर भारत की परिस्थिति के अनुरूप हिन्दू-मुसलमान दोनों के लिए एक सामान्य भक्तिमार्ग की भी भावना कुछ लोगों में जगाई। हृदयपक्षशून्य सामान्य अंतस्साधना का मार्ग निकालने का प्रयत्न नाथपंथी कर चुके थे। … पर रागात्मक तत्व से रहित साधना से ही मनुष्य की आत्मा तृप्त नहीं हो सकती। महाराष्ट्र देश के प्रसिद्ध भक्त नामदेव (सं. 1328-1408) ने हिन्दू-मुसलमान दोनों के लिए एक सामान्य भक्तिमार्ग का भी आभास दिया। उसके पीछे कबीरदास ने विशेष तत्परता के साथ एक व्यवस्थित रूप में यह मार्ग ‘निर्गुणपंथ’ के नाम से चलाया उत्तर के भक्ति आन्दोलन को वे उत्तर की परिस्थितियों के आलोक में देखते हैं परन्तु उनका विवेचन राजनीतिक-धार्मिक परिस्थितियों की चर्चा करके रह जाता है।
द्विवेदी जी की मान्यता है कि सिद्धों-नाथों की परंपरा ने कबीर आदि निर्गुण सन्तों की वैचारिक जमीन तैयार करने में मदद पहुँचाई तथा अपभ्रंश काव्य परम्परा, जिसने भक्तिकाल के विशाल लोक साहित्य की भूमिका तैयार की, शुक्ल जी ने इसकी चर्चा भिन्न रूप में की है। उनके अनुसार बौद्ध धर्म विकृत होकर वज्रयान सम्प्रदाय के रूप में देश के पूर्वी भागों में उस समय पैफला था। उनके बीच वामाचार अपनी सीमा लाँघ रहा था। स्त्रियों को लेकर मद्यपान के साथ अनेक वीभत्स विधान वज्रयानियों की साधना के प्रधान अंग थे। सिद्धि प्राप्ति के लिए किसी स्त्री का संभोग या सेवन आवश्यक था। इसके बाद शुक्ल जी नाथपंथ की चर्चा करते हैं, उनका मानना है कि गोरखनाथ के नाथपंथ का मूल भी वज्रयान शाखा थी। लेकिन वज्रयानियों के अश्लील और वीभत्स विधानों से योगियों की इस हिन्दू शाखा ने अपने को अलग रखा और गोरखनाथ ने अपना मार्ग अलग कर लिया। इस नाथ सम्प्रदाय में भी वज्रयानियों की तरह नीची और अशिक्षित श्रेणियों के लोग आए, जो अपनी अटपटी बानी ओर रहस्यदर्शिता के बल पर जनता पर धाक जमाते थे और शास्त्राज्ञ पंडितों को फटकारते थे। सिद्धों-नाथों की यही परम्परा आगे चलकर कुछ हद तक कबीर आदि सन्तों में विकसित हुई।
द्विवेदी जी के ‘भारतीय चिन्ता के स्वाभाविक विकास’ पर नजर डालना उचित होगा। वे अपनी पुस्तक ‘हिन्दी साहित्य की भूमिका’ में इसका विस्तृत विवेचन करते है और लिखते हैं कि ‘‘सातवीं शताब्दी में युक्त प्रान्त, बिहार, बंगाल, आसाम और नेपाल में बौद्ध धर्म काफी प्रबल था … मुसलमानी आक्रमण के आरम्भिक युगों में भारतवर्ष से इस धर्म की एकदम समाप्ति नहीं हो गई थी, इन प्रदेशों के धर्ममत, विचारधारा और साहित्य पर इस धर्म ने जो प्रभाव छोड़ा है, वह अमिट है। लोग बौद्ध सन्यासियों का आदर-सत्कार करते थे और उनके ही ढंग पर अपने आपके विषय में, अपनी दुनिया के विषय में और लोक-परलोक के विषय में सोचने लगे थे। आठवीं-नवीं शताब्दी में बौद्ध महायान सम्प्रदाय लोकाकर्षण के रास्ते बड़ी तेजी से बढ़ने लगा। वह तन्त्र, मन्त्र, जादू, टोना, ध्यान-धारण आदि से लोगों को आकृष्ट करता रहा। … जिन दिनों हिन्दी साहित्य का जन्म हो रहा था, उन दिनों भी बंगाल और मगध तथा उड़ीसा में बड़े-बड़े बौद्ध विहार विद्यमान थे, जो अपने मारण, मोहन, वशीकरण और उच्चाटन की विद्याओं से और नाना प्रकार के रहस्यपूर्ण तांत्रिक अनुष्ठानों से जन समुदाय पर अपना प्रभाव फैला रहे थे। आगे चलकर फिर महायान में भी कई टुकड़े हो गए। सबसे अन्तिम टुकड़े हैं वज्रयान और सहजयान, जो अपनी गाड़ी को सचमुच इतना मजबूत और सहज बना सके कि उनमें पांडित्य और कृच्छसाध्यता का अर्थात् कष्टपूर्ण व्रजनियम आदि का कोई अंग रहा ही नहीं। भारतीय बौद्ध सम्प्रदाय, सन् इस्वी के आरम्भ से ही लोकमत की प्रधानता स्वीकार करता गया, यहाँ तक कि अन्त में जाकर लोकमत में घुल-मिलकर लुप्त हो गया। हजार वर्ष से वे ज्ञानियों और पंडितों के उँचे आसन से नीचे उतरकर अपनी असली प्रतिष्ठा-भूमि लोकमत की ओर आने लगे। उसी की स्वाभाविक परिणति इस रूप में हुई। उसी स्वाभाविक परिणति का मूर्त प्रतीक हिन्दी साहित्य है। नवीं और दसवीं शताब्दियों में नेपाल की तराइयों में शैव और बौद्ध साधनाओं के सम्मिश्रण से नाथपंथी योगियों का एक नया सम्प्रदाय उठ खड़ा हुआ। यह सम्प्रदाय काल क्रम से हिन्दी भाषी जनसमुदाय को बहुत दूर तक प्रभावित कर सका था। कबीरदास, सूरदास और जायसी की रचनाओं से जान पड़ता है कि यह सम्प्रदाय उन दिनों बड़ा प्रभावशाली रहा होगा।
सम्मिश्रण की इस प्रक्रिया को भी थोड़ा समझने की आवश्यकता है। इस सन्दर्भ में द्विवेदी जी लिखते है ‘‘बौद्ध धर्म के लोप होने के बाद बहुत-सी जातियाँ ब्राह्मण धर्म के भीतर आ गईं इन जातियों के आने के कारण बहुत से व्रत, पूजा, पार्वण आदि इस धर्म में आ घुसे, जिनकी प्राचीन ग्रन्थों में कोई व्यवस्था नहीं थी। पुराणों से इस बात का समाधान किया गया था। … इस प्रकार ग्यारहवीं-बारहवीं शताब्दी के पंडितों को लोक जीवन की ओर झुकने को बाध्य होना पड़ा था। इन सब बातों से सहज ही अनुमान किया जा सकता है कि उस युग का पांडित्य भी लोकजीवन की ओर झुकने लगा था। बौद्ध पंडित भी लोकमत की ओर नत हो चुके थे और स्मार्त पंडित भी उसी ओर झुके। परन्तु दोनों का झुकाव दो दिशाओं में हुआ। एक निकृष्ट कोटि के जादू, टोना, टोटका आदि की ओर झुके और दूसरे लोक जीवन के अकिंचित्कर निरर्थक आचार-व्यवहार की ओर। इस प्रकार स्मार्त और बौद्ध दोनों ही हिन्दी साहित्य के जन्मकाल के समय लोकमत का प्रधान्य स्वीकार कर चुके थे। इसी कारण द्विवेदी जी मानते हैं कि हिन्दी साहित्य के जन्मकाल के बहुत पहले अपभ्रंश या लोकभाषा में कविता होने लगी थी। दो प्रकार की भिन्न-भिन्न जातियों की दो चीजें अपभ्रंश से विकसित हुई हैं – (1) पश्चिमी अपभ्रंश से राजस्तुति, ऐहिकतामूलक श्रृंगारी काव्य, नीतिविषयक फुटकल रचनाएँ और लोकप्रचलित कथानक तथा (2) पूर्वी अपभ्रंश से निर्गुणियाँ सन्तों की शास्त्र निरपेक्ष उग्र विचारधारा, झाड-फटकार, अक्खड़पना, सहजशून्य की साधना, योग पद्धति और भक्तिमूलक रचनाएँ। यह और भी लक्ष्य करने की बात है कि यद्यपि वैष्णव मतवाद उत्तर भारत में दक्षिण की ओर से आया, पर इसमें भावावेशमूलक साधना पूर्वी प्रदेशों से आई। इस प्रकार हिन्दी साहित्य में दो भिन्न-भिन्न जाति की रचनाएँ दो भिन्न-भिन्न मूलों से आईं।
हिन्दी साहित्य पर इस्लाम के प्रभाव की चर्चा करते हुए द्विवेदी जी लिखते हैं। “योगियों का एक बहुत बड़ा सम्प्रदाय अवध, काशी, मगध और बंगाल में फैला हुआ था। ये लोग गृहस्थ थे और इनका पेशा जुलाहे और धुनिए का था। इनमें जो साधु हुआ करते, वे भिक्षावृत्ति पर निर्वाह करते थे। ब्राह्मण धर्म में इनका कोई स्थान न था। मुसलमानों के आने के बाद वे लोग धीरे-धीरे मुसलमान हो गए … कबीर, दादू और जायसी ऐसे ही नाममात्रा के मुसलमान थे जिनके परिवार में योगियों की साधना पद्धति जीवित रूप से वर्तमान थी।“ यदि कबीर आदि निर्गुणमतवादी सन्तों की वाणी की बाहरी रूपरेखा पर विचार किया जाए तो मालूम होगा कि यह सम्पूर्णतः भारतीय है और बौद्ध धर्म के अन्तिम सिद्धों और नाथपंथी योगियों के पदादि से उसका सीधा सम्बन्ध है … सहजयान और नाथपंथ के अधिकांश साधक तथाकथित नीची जातियों में उत्पन्न हुए थे, अतः उन्होंने इस अकारण नीच बनाने वाली प्रथा को दार्शनिक की तटस्थता के साथ नहीं देखा। कबीर की निर्गुणमतवादी साधकों की परम्परा में जो दादू, सुन्दरदास आदि भक्त हो गए हैं उन्होंने स्पष्ट ही नाथपंथी योगियों, विशेषकर आदिनाथ, मत्स्येन्द्रनाथ, गोरखनाथ तथा चैरासी सिद्धों, विशेषकर काणेरी, चैरंगी, हाडिफा आदि को अपने मत का आचार्य माना है। सहजयानी सिद्धों और नाथपंथी योगियों का अक्खड़पन कबीर में पूरी मात्रा में है और उसके साथ ही उनका स्वाभाविक फक्कड़पन मिल गया है।
मामूली भिन्नता के बावजूद शुक्ल जी और द्विवेदी जी के निष्कर्ष एक जैसे लगते है। लेकिन यह भिन्नता ऐसी है, जो दोनों आचार्यों को दो दिशाओं में ले जाती है और दोनों के लिए भक्ति साहित्य का धरातल दो रूपों में दिखाई पड़ता है। इसी भिन्नता के कारण शुक्ल जी को ‘‘शास्त्राज्ञ पंडितों को फटकारने’ वाले सिद्धों और नाथों की रचनाएँ ‘साम्प्रदायिक शिक्षा’ मात्रा लगती है और उनका ‘जीवन की स्वाभाविक अनुभूतियों और दशाओं से’ उन्हें कोई सम्बन्ध नहीं लगता। इसके विपरीत आचार्य द्विवेदी भक्ति आन्दोलन के इस मोड़ पर खड़े होकर इसे ‘भारतीय चिन्ता का स्वाभाविक विकास’ मानते हुए हिन्दी साहित्य के जन्मकाल की ‘दो भिन्न-भिन्न मूलों से’ उत्पन्न ‘दो भिन्न-भिन्न रचनाओं’ की परम्परा के विकास के रूप में पहचानने का आग्रह करते हैं। इन विद्वानों के अलावा डॉ. रामविलास शर्मा एक ऐसे आलोचक है जिन्होंने हिन्दी साहित्य का कोई इतिहास तो नहीं लिखा परन्तु भारतेन्दु, महावीर प्रसाद द्विवेदी, रामचन्द्र शुक्ल, प्रेमचन्द, निराला आदि लेखकों पर केन्द्रित जो महत्वपूर्ण पुस्तकें लिखीं तथा ‘परम्परा का मूल्यांकन’ जैसे जो दर्जनों लेख लिखे है उससे हिन्दी साहित्य के इतिहास का नया ढाँचा बनता है। आचार्य शुक्ल और आचार्य द्विवेदी के भक्ति आन्दोलन सम्बन्धी विवादों को अपनी दो पुस्तकों (1) आचार्य रामचन्द्र शुक्ल और हिन्दी आलोचना (1955) तथा (2) हिन्दी जाति का साहित्य (1986) में डॉ. शर्मा ने उठाया है। वे भक्ति साहित्य को सगुण और निर्गुण जैसे खानों में न बाँटकर, उसे एक नाम ‘सन्त साहित्य’ के नाम से पुकारते हैं। ‘परंपरा का मूल्याँकन’ में वे यह सवाल उठाते हैं कि संत साहित्य का सामाजिक आधार क्या है? इसका जवाब वे इस प्रकार देते हैं ‘‘इसका सामाजिक आधार जुलाहों, कारीगरों, किसानों और व्यापारियों का भौतिक जीवन है। सन्त साहित्य भारतीय संस्कृति की आकस्मिक धारा नहीं है। यह देश की विशेष सामाजिक परिस्थितियों में उत्पन्न हुई थी।’’ इसे विस्तार से समझाते हुए वे आगे लिखते हैं ‘‘भारतीय जीवन की जिस परिस्थिति से सन्त साहित्य का घनिष्ठ सम्बन्ध है, वह है, सामन्ती शक्ति का ह्रास, सामन्ती ढाँचे का कमजोर पड़ना। कुछ लोगों का विचार है कि अँग्रेजी राज कायम होने से पहले भारत में सामन्तवाद पूरी शक्ति से जमा हुआ था। यह धारणा इतिहास के तथ्यों के विपरीत है। 15वीं, 16वीं और 17वीं सदी में यहाँ व्यापार की बड़ी-बड़ी मंडियाँ कायम होती हैं, पचीसों नगर व्यापार और सांस्कृतिक आदान-प्रदान के केन्द्र बनकर उठ खड़े होते हैं। लोहे और कपास का सामान काफी बड़े पैमाने पर तैयार किया जाता हैं। सैकड़ों वर्षों के बाद सामाजिक जीवन की धुरी गाँव से घूम कर नगर की ओर आ जाती है। सामाजिक जीवन की बागडोर सामन्तों के हाथ में ही नहीं रहती, व्यापारी भी उसमें हाथ बँटाने लगते हैं। राज्यसत्ता सामन्तों के हाथ में रहती है लेकिन बहुत से सामन्त भी अपनी शक्ति के लिए व्यापारियों का सहारा लेते हैं। गोला-बारूद का प्रयोग, एक से सिक्कों का काफी बड़े प्रदेशों में चलन, जागीरदारों का एक जागीर से दूसरी जगह भेजे जाना, सड़कों और नहरों का बनना, समाचार भेजने के लिए हलकारों की व्यवस्था, किसानों से सीधे राज्य कर लेने की व्यवस्था आदि ऐसी बातें थीं जिनसे गाँवों का अलगाव कम हुआ और सामन्ती शक्ति कमजोर हुई। भारतीय समाज में यह परिवर्तन उसकी अपनी ही शक्तियों से हो रहा था।
डॉ. रामविलास शर्मा के अध्ययन का धरातल सामाजिक-आर्थिक पक्षों पर खड़ा है जबकि शुक्ल जी और द्विवेदी जी सामाजिक-धार्मिक-राजनीतिक आधार पर ही आलोच्यकाल का अध्ययन करते दिखाई पड़ते हैं। आर्थिक पक्ष इनके यहाँ गौण है। भक्तिकाल के उद्भव में कौन सी भौतिक परिस्थितियाँ कारण बनी यह तथ्य हिन्दी साहित्य के अध्येता के लिए तब तक पहेली बना रहेगा जब तक वह मध्यकालीन आर्थिक इतिहास के भीतर न प्रवेश करे। यह ध्यान रखने की बात है कि डॉ. रामविलास शर्मा 1955 में भक्ति आन्दोलन के सामाजिक आधारों पर लिख रहे थे, उस समय तक मध्यकालीन भारत के सामाजिक-आर्थिक इतिहास की रूपरेखा उतनी स्पष्ट नहीं थी। मध्यकालीन इतिहास की आर्थिक रूपरेखा की स्पष्टता का यह अभाव आचार्य शुक्ल और द्विवेदी जी के सामने भी था। फिर भी रामविलास शर्मा भक्ति आन्दोलन की सामाजिक-आर्थिक पृष्ठभूमि की छानबीन उस समय कर रहे थे, जब इतिहासकारों में इस सन्दर्भ में चुप्पी थी।
उपरोक्त तीनों विद्वानों के अध्ययन से भक्ति आन्दोलन की व्याख्या के तीन आयाम खुलते हैं।