‘दिव्या ‘
”तुम भी मुर्ख हो , तुम समझते हो …..सेवा करने के लिए ही तुम्हारा जन्म हुआ है , वही तुम्हारा भाग्य है !…जो मरता है , वह सबल है ; जो भय करता है वह निर्बल है”.
व्याख्या : यद्दपि ‘दिव्या ‘ को नारी समस्या पर आधारित उपन्यास माना जाता है परन्तु इसका विस्तार यहीं तक सिमित नहीं है। यशपाल इसे विस्तार देकर शाश्वत प्रश्न में तब्दील कर देते हैं और फिर इसे युगीन सन्दर्भों से जोड़ देते हैं।
यहाँ पर मारीश द्वारा जनता की उदासीनता कोशीश कीजा रही है जो की प्रकारांतर से राष्ट्रीय आन्दोलन को गति देने का यशपाल द्वारा किया गया प्रयास है। मारीश पशु और मनुष्य के अंतर रेखांकित करते हुए एक को साधन बताता है और दुसरे को साध्य. साथ ही यह बतलाने की कोशिश करता है की जो मनुष्य अपने को साधन में तब्दील हो जाने देता है वह मनुष्य , म्मानुष्य नहीं पशु है।
यशपाल मारीश के जरिये जनता की उदासीनता को तोड़कर उसे कर्म का सन्देश देते हैं और नियतिवाद का खंडन का खंडन करते हुए मनुष्य की अधिकार चेतना और उसके स्वत्व के प्रश्न को उठाया है इसके साथ ही यशपाल ने ऐतिहासिक कथानक में आधुनिक मानवतावादी चिंतन को प्रवेश दिया है। यहाँ पर एक ओर यदि शोषित उत्पीड़ित वर्गों के प्रति सहानुभूति के जरिये यशपाल की मार्क्सवादी संवेदना कोअभिव्यक्ति मिली है तो दूसरी ओरस्वत्व चेतना के आग्रह के जरिये मार्क्सवाद से दूर हटने की भी कोशिश कर रहें हैं। साथ ही उसे राष्ट्रीय चेतना से संबद्ध करतेहुए युगीन चिंताओं को न केवल अभिव्यक्ति देते हैं वरन समाधान की संभावनाओं को भी तलाशने का प्रयास करते हैं।
—उद्बोधानात्मक संवाद स्वरुप
—तत्समता की प्रवृति इसके ऐतिहासिकता को बनाए रखती है .
व्याख्या: ‘राम की शक्ति पूजा ‘
लौटे युग – दल – राक्षस – पदतल पृथ्वी टलमल,
बिंध महोल्लास से बार – बार आकाश विकल।
वानर वाहिनी खिन्न, लख निज – पति – चरणचिह्न
चल रही शिविर की ओर स्थविरदल ज्यों विभिन्न।
प्रशमित हैं वातावरण, नमित – मुख सान्ध्य कमल
लक्ष्मण चिन्तापल पीछे वानर वीर – सकल
रघुनायक आगे अवनी पर नवनीत-चरण,
श्लथ धनु-गुण है, कटिबन्ध स्रस्त तूणीर-धरण,
व्याख्या: ‘राम की शक्ति पूजा ‘ में निराला ने रावण जय -भय की आशंका को दूर करते हुए शक्ति की मौलिक कल्पना द्वारा शक्ति को अर्जित किया है।
आज के राम -रावण समर में नर-वानर सेना को व्यापक क्षति पहुंची है और दोनों पक्षों की सेना वापस शिविर की ओर लौट रही है . एक ओर जहां राक्षसों की सेना में आज के रण को लेकर हर्ष व्याप्त है वहीँ दूसरी ओर राम की सेना व्यथित और निराश है और राक्षस सेना के हर्षोल्लास का कारण है शक्ति का उनकी तरफ होना। निराला प्रकृतिवादी अद्वैत चिंतन के आधार पर पंचतत्वों को शक्ति का रूप मानते हैं जिसमें आकाश और जल रावण के पक्ष में है जबकि पृथ्वी तनया सीता कारण यह स्थिर है -’भूधर ज्यों ध्यान मग्न ‘ अर्थात रावण के पक्ष में नहीं है। इसलिए राक्षसों के पदबल सेपृथ्वी भी आतंकित और प्रकम्पित हो रही है। राम के पक्ष की शक्तियां ‘केवल जलती मशाल ‘ और निष्क्रिय पवन है।
फिर निराला फोटो टेक्निक का प्रयोग करते हुए राम की नर -वानर सेना के प्रोटोकॉल का चित्र खींचते हैं।सेना अपने नायक राम के माखन जैसे चरण का अनुसरण करते हुए चल रहे हैं, पीछे लक्ष्मण हैं ,आज के समर को लेकर चिंतामग्न हैं। राम के ‘नवनीत चरण ‘ पृथ्वी तनया सीता के कारण है।वातावरण में स्तब्धता और निराशा छाई हुई है और यह स्तब्धता और निराशा राम के अंतर्मन को भी व्यक्त कर रहे हैं। इसका प्रभाव संपूर्ण सेना में विकल भाव पैदा कर रहा है। राम की धनुष की प्रत्यंचा ढीली हो गयी है और कतिवास्त्र अस्त -व्यस्त हैं।
निराला ने RKSPमें राम कोअंतर्द्वंदों से संपृक्त कर उसे अलौकिकता से उठाकर लौकिक धरातल पर स्थापित किया है। इस प्रकार राम आधुनिक भावबोध से जुड़ते दिखाई पड़ते हैं।
—तत्सम प्रधान भाषा और नाद सौंदर्य
—सामासिकभाषा एवं अनुप्रास
व्याख्या : असाध्य वीणा
“मेरे हार गये सब जाने-माने कलावन्त,
सबकी विद्या हो गई अकारथ, दर्प चूर,
कोई ज्ञानी गुणी आज तक इसे न साध सका।
अब यह असाध्य वीणा ही ख्यात हो गयी।
पर मेरा अब भी है विश्वास
कृच्छ-तप वज्रकीर्ति का व्यर्थ नहीं था।
वीणा बोलेगी अवश्य, पर तभी।
इसे जब सच्चा स्वर-सिद्ध गोद में लेगा
- सच्चा स्वरसिद्ध में कर्तापन का भाव मौजूद नहीं रहता। कलावंत अभियक्तिऔर अनुभूति के अद्वैतत्व को नहीं समझ पाते कि अभिव्यक्ति को साधने केलिए अनुभूति को साधना जरूरी है। अन्य कलावन्तो द्वारा अपने स्वर को आरोपित करने की कोशिश।
- पर मेरा अब भी है विश्वास’- यहाँ भारतीय जीवन परक आस्था का संकेत। राजा का विश्वास वज्रकृति की कठिन साधना , हठयोग साधना व्यर्थ नहीं जायेगी। वज्रकीर्ति की यह साधना कृच्छ तप क्यों -यही वीणा उसके जीवन कीउपलब्धि है जिसे वह अपनी जान की कीमत पर भी हासिल किया है।
- यहाँ राजा का संकेत जीवन सार्थकता की ओर है।
- वीणा सृजन का प्रतीक बन कर आती है। ‘वीणा बोलेगी अवश्य ‘- मनुष्य की सृजन शक्ति में आस्था कोअभिव्यक्ति मिलती है और इसमें राजा की आस्था वास्तव में अज्ञेय की आस्था है।
- यहाँ जो आस्था और विश्वास है , राम की शक्ति पूजा में यहीविश्वास जामवंत को भी है।
- जापानी लोककथा के भारतीय संस्करण की पृष्ठभूमि में सर्जनात्मक रहस्यवाद की अभिव्यक्ति और इस क्रम में यहाँ पर सर्जना की अर्हता का संकेत।
- विजय देव नारायण साही और रमेशचंद्र साह ने अज्ञेय को प्रसाद के सांस्कृतिक भावबोध के करीब माना है औरयहाँ पर अज्ञेय अस्तित्ववादी अनास्था को भारतीय जीवनपरक आस्था के जरिये प्रतिस्थापित करते हुए उनकी इस मान्यता की पूर्ति करते हैं।
- भाषायी अभिजत्यापन , परन्तु तदभव शब्दों के जरिये जीवन्तता प्रदान की है।