कबीर की प्रासंगिकता ः आधुनिक संदर्भ

आज जब हम चहुँओर व्याप्त सामाजिक जडता तथा अराजकता की ओर उन्मुख होते हैं तब व्यवस्था के विरुद्ध क्रांति का शंखनाद करने के लिए युगपुरुष की आवश्यकता महसूस करते हैं। कबीर का कालजयी व्यक्तित्व इस समय हमारे लिए ज्योतिपुंज है। आज से लगभग 600 वर्ष पूर्व 1397 ई. में काशी में जन्मे कबीर आजीवन अथक प्रयासों से समाज का मार्गदर्शन करते रहे। वे जुलाहा कर्म को अपनाकर ग्राहस्थ जीवन के साथ संत बनकर ‘समाज सुधार’ का कार्य भी करते रहे। 
कबीर लोकलाज बचाने के लिए त्यागे गये तथा नीमा और नीरु मुस्लिम जुलाहे द्वारा पालित पोषित पुत्र् थे। आजीवन संघर्ष उपरान्त उन्होंने अपना देह त्याग मगहर में किया। जिसका संदेश उस अंधविश्वास को मिटाना था कि यहाँ मृत्यु होने पर व्यक्ति अगले जन्म में गधा बनता है। जो लोग जीवनभर कबीर के विरोधी थे उनकी मृत्युपरांत शव को लेकर हिन्दू-मुस्लिम आपस में उलझे। कबीर की उलटबाँसिया आगे चलकर हिन्दू संतों, पीरों, फकीरों, ‘गुरुग्रंथसाहिब’ आदि की जुबान बनी अर्थात् कबीर का सम्पूर्ण जीवन ही उनका संदेश है। 
डॉ. अम्बेडकर के अनुसार जातिवाद भारतीय समाज का सबसे बडा कोढ है। यहाँ समय के साथ सब चीजें नष्ट हो जाती हैं, लेकिन ‘जाति’ एक ऐसी चीज शब्द है जो कभी नहीं जाती। सोपानीकृत अवस्था में स्वर्ण, अवर्ण, अस्पृश्यता, ऊँच- नीच आदि से जर्जर भारतीय समाज के विरुद्ध कबीर ने मुखर आवाज उठाई तथा मानव मुक्ति की बात की। जन्म के आधार पर भेदभाव को वे अमान्य ठहराते हैं – 
जो तू बामन बामनि जाया, आन बाट तैं काहे न आया । 
वे आम आदमी की आवाज थे। उन्होंने निम्नवर्गीय चेतना को शब्द दिये। कबीर ने जन्म/जाति या कुलगत उच्चता के बजाय कर्म तथा विचारों की उच्चता को प्रतिष्ठा दी। उन्होंने एक आदर्श समाज का सपना देखा एवं जो वर्णभेद जैसी मानव-मानव को अलग करने वाली परम्पराओं का खण्डन किया। आज जब जाति का बोलबाला है, तब कबीर द्वारा जातिवाद के विरुद्ध की गयी इस एकतरफा लडाई की याद आती है। वे आमजन की आवाज थे तथा अंधकारयुग के जन नेता थे। 
धर्मनिरपेक्ष लोकतांत्र्कि भारत के लिए हमें आदर्श समाज की रूपरेखा कबीर के संदशों में मिलती है। हिन्दू समाज द्वारा बहिष्कृत तथा मुस्लिम समाज द्वारा तिरस्कृत कबीर ने ईश्वरीय एकता की बात कही। उन्होंने धर्म के नाम पर भेदभाव तथा ईश्वर के नाम पर लडाई का ताकिर्क खण्डन किया। कबीर के राम निर्गुण एवं निराकार ईश्वर थे। उन्होंने उसे सबका प्रभु बनाया तथा मानव धर्म की प्रतिष्ठा की। उन्होंने आस्तिकों के ईश्वर, ईश्वरीय ग्रंथ, उपासना स्थल तथा अनुयायियों के नाम पर विभेद को नकारा तथा धार्मिक समन्वय की अवधारणा प्रतिपादित की।आज के धार्मिक वैमनस्य के वातावरण में कबीर के विचार प्रासंगिक हैं कि ‘हिन्दू उसे राम कहता है। मुसलमान खुदा कहता है। तू उसकी परवाह न कर तब काबा काशी हो जाएगा और राम रहीम हो जाएगा।’ यही कारण है कि जब कबीर की मृत्यु हुई तब उनके शव पर दावा प्रत्येक धर्मानुयायी ने किया तथा मगहर में उसका स्मारक धार्मिक समन्वय की मिसाल है। 
कबीर अपने समय के क्रान्तिकारी प्रवक्ता थे। उन्होंने आडम्बरों, कुरीतियों, जडता, मूढता एवं अंधविश्वासों का तर्कपूर्ण खण्डन किया। कबीर का अपने युग के प्रति यथार्थ बोध इतना था कि उन्होंने हर एक परम्परा, रूढ, कुरीति तथा पाखण्ड को यथार्थ के धरातल पर खारिज किया। अबुलफजल ने आइने अकबरी में लिखा है कि ‘‘कबीर ने समाज के सडे-गले रीति रिवाजों को नकार दिया। कबीर ने समाज सुधार के लिए कोडे खाए तो व्यंग्य तथा हँसी-ठिठौली द्वारा भी जनमानस में सुधार के प्रति सोच विकसित की।’’ उन्होंने आलोचना के साथ सृजन की रूपरेखा रखी। कबीर अराजकता, सामन्तवाद तथा उथल-पुथल के दौर में क्रान्तिकारी स्वप्नकार हैं। वे स्वभाव से संत थे, लेकिन प्रकृति से उपदेशक। उन्होंने अंधविश्वासों का उपहास कर ठीक निशाने पर चोट पहुँचाई। उन्होंने मूर्तिपूजा, तीर्थयात्र, अवतारवाद एवं कर्मकाण्डों का विरोध किया तथा ईश्वर और व्यक्ति के बीच किसी भी मध्यस्थ को अस्वीकार किया। उन्होंने हर रूढ को खारिज किया जो मानव-मानव में भेद कराती थी। आज के दौर में जब भौतिक साधनों हेतु भ्रष्टाचार, लूट- खसौट, मिलावटखोरी जैसे अपराध मानवता को झकझोर रहे हैं तब कबीर के ये विचार अति प्रासंगिक हैं – 
सांई इतना दीजिए, जामे कुटुम्ब समाय ।
मैं भी भूखा न रहूँ, साधु ना भूखा जाये ।। 
अर्थात् कबीर संग्रहवाद के बजाय अपरिग्रह को महत्त्व देते हैं। रामानन्द के शिष्य कबीर ने धार्मिक आडम्बरों के विरुद्ध आवाज उठाई और कहा कि – 
कांकर पत्थर जोरि के मस्जिद लई बनाय ।
ता ऊपर मुल्ला बांग दे क्या बहरा हुआ खुदाय ।। 
कबीर की उलटबाँसिया पग-पग पर मानव को अंधकार से प्रकाश की ओर ले जाती हैं, वे हर उस व्यवस्था का विरोध करते हैं जो मानव को अवनति की जंजीरों में जकडती है तथा उसे रसातल में ले जाती है। 
कबीर ने मानवीय मूल्यों की प्रतिष्ठा स्थापित की। उन्होंने धैर्य, सहिष्णुता, कर्मयोग, गुरु का सम्मान, प्रेम, मानवता, आत्मा की पवित्र्ता, दीन-दुखियों की सेवा, नैतिकता के पालन को मानवीय कर्त्तव्य माना। कबीर ने ‘माली सींचे सौ घडा’ के माध्यम से धैर्य के साथ कर्म को महत्त्व दिया। उन्होंने ‘भृगु मारी लात’ द्वारा क्षमा के महत्त्व तथा ‘माटी कहे कुम्हार से’ द्वारा सहिष्णुता का पाठ पढाया। कबीर सच्चे अर्थों में कर्मयोगी थे। उन्होंने समाज को सचेत किया कि निर्बल को मत सताओ नहीं तो उसकी हाय से सब कुछ नष्ट हो जायेगा – 
निर्बल को न सताइये जाकी मोटी हाय ।
मुई खाल की श्वांस सौं लौह भसम हो जाय ।। 
उन्होंने पलायन न करके समाज के बीच में रहकर गृहस्थ के रूप में कर्मयोगी बनकर समाज को शिक्षित किया। उन्होंने जुलाहा कर्म को अपनाकर सभी के समक्ष आदर्श रखा कि कोई भी व्यवसाय हीन नहीं है अर्थात् कर्म की महानता के वे साक्षात् प्रतीक थे। उन्होंने जीवन में कथनी और करनी की समानता को महत्त्वपूर्ण माना। वे दुःखी मानव की पीडा को स्वयं भोग रहे थे – 
चलती चक्की देखकर दिया कबीरा रोए ।
दुई पाटन के बीच में साबुत बचा न कोए ।। 
कबीर अनपढ थे, लेकिन वे लकीर के फकीर नहीं थे। वे यथार्थ जीवन के विद्वान् थे। वे कहते हैं – 
मसिकागद छूयो नहीं, कलम गही नहिं हाथ ।
चारिउ जुगन महातम् कबीर, मुखहि जनाई बात ।। 
उन्होंने शिक्षा प्रणाली को पोथियों से बाहर लाकर प्रेम तथा यथार्थ पर आधारित किया – 
पोथी पढ-पढ जग मुआ, पंडित भया न कोय ।
ढाई आखर प्रेम का, पढै सौ पंडित होय ।। 
उन्होंने कर्म तथा स्वावलम्बन की शिक्षा दी। कबीर वैज्ञानिक दृष्टिकोण तथा तर्कबुद्धि को सच्ची शिक्षा मानते थे। उनके यथार्थवाद पर हजारी प्रसाद द्विवेदी लिखते हैं, ‘‘कबीर ने कविता के लिए कविता नहीं लिखी, वह अपने आप हो गयी।’’ कबीर ने जनभाषा में जनता को शिक्षित किया। उनकी सधुक्कडी भाषा एक ओर मातृभाषा में विद्यार्थी को शिक्षित करने के लिए प्रेरित करती है, वहीं दूसरी ओर भाषायी पाण्डित्य, परायी भाषा में अपने लोगों से बात करना तथा भाषा के नाम पर विवाद पैदा करना आदि प्रवृत्तियों पर प्रश्नचिह्न लगाती है। 
आज 21वीं सदी के विश्व में भारत जहाँ अपनी पहचान स्थापित करना चाहता है, वहाँ स्थानीय समस्याएँ, नक्सलवाद, जातिवाद, क्षेत्र्वाद, भाषावाद, सम्प्रदायवाद के दौर में एक ‘समग्र भारतीय व्यक्तित्व’ के रूप में कबीर हमारे व्योम में जाज्वल्यमान नक्षत्र् हैं। डॉ. हजारी प्रसाद द्विवेदी ने कबीर के लिए लिखा है, ‘‘वे मुसलमान नहीं थे। हिन्दू होकर भी हिन्दू नहीं थे। वैष्णव होकर भी वे वैष्णव नहीं थे। योगी होकर भी योगी नहीं थे। वे भगवान् के नरसिंहावतार की मानव प्रतिमूर्ति थे। नरसिंह की भाँति वे असम्भव समझी जाने वाली परिस्थितियों के मिलन बिन्दु पर अवतरित हुए थे, जहाँ एक ओर ज्ञान निकल जाता है और दूसरी ओर भक्ति मार्ग।’’ अकबर के दरबारी उर्फी ने उनके बारे में कहा है, ‘‘ऐसे रहो अच्छे और बुरों के साथ, ओ ! उर्फी, कि जब तुम्हें मौत आए, मुसलमान तुम्हारे शव को पाक पानी से नहलाये और हिन्दू उसका अग्नि संस्कार करें।’’ 
यह कबीर का ही युग बोध है कि वे बीच बाजार में हाथ में जलता हुआ मुराडा लिये खडे हैं और सत्य की खोज में समाज के अग्रदूत बने हैं – 
हम घर जारा आपना, लिए मुराडा हाथि ।
अब घर जालौ तास का, जो चलै हमारे साथी ।। 
भारतीय परम्परा में वे आज जुझारू प्रेरणा के प्रतीक हैं एवं मानवता तथा भारतीयता के सच्चे पोषक हैं।

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