कबीर का नारी संदर्भ*

इस लेख के द्वारा सिर्फ कबीर के पक्ष या विपक्ष में नहीं कहा गया है। कबीर के माध्यम से तत्कालीन मानसिकता को छूने का प्रयत्न किया गया है।

 

कबीर पर अब तक बड़ी मात्रा में अध्ययन हो चुका है।ससे कबीर को कई संदर्भों में परखा गया है। कबीर का समाज सुधारक, भक्त, संत, विद्रोही, क्रान्तिकारी व प्रगतिशील रूप में अब तक जितनी भी व्याख्या हो सकती थी हुई है। लेकिन कबीर पर अध्ययन अभी भी अधूरा है, उसकी वज़ह है कबीर का हर काल खण्ड या युग में प्रासंगिक होना। हजारीप्रसाद द्विवेदी से लेकर धर्मवीर भारती तक सभी विद्वानों ने कबीर का सूक्ष्म अध्ययन प्रस्तुत किया है। कहीं-कहीं कबीर विवादास्पद भी रहे हैं तो किन्हीं विद्वानों का कबीर पर आधारित अध्ययन पूर्वाग्रह युक्त है। कबीर का कवित्व यही है कि वह आज भी उतने ही प्रासंगिक हैं जितने कि तत्कालीन युग में थे।

आज के संदर्भ में कबीर की कुछ विशेषताओं को अंकित किया जा सकता है। यथा- धर्मनिरपेक्षता या साम्प्रदायिकता, वर्गविहीन समाज, पारिवारिक शुचिता, सामाजिक पाखण्ड तथा इससे भी आगे एक आदर्श व नैतिक जीवन। दरअसल संसार या समाज के सामंजस्य के लिए पारस्परिक सौहार्द तथा प्रेम आवश्यक है। वर्तमान बाज़ारवाद तथा उपभोक्तावाद की संस्कृति में मानव के आदर्शों का क्या मूल्य है या उसका स्थान कहाँ है? इस स्थिति में हमें अपने अतीत के सत्साहित्य के पुनरावलोकन की आवश्यकता है। वसुधैवकुबुम्बकम् की भावना क्या पूरे अन्तर्राष्ट्रीय जगत को नहीं है? कबीर ने उन सब चीज़ों का विरोध किया है जो असहज थी। कबीर उस युग में प्रतिपक्ष में थे जब मुस्लिम तानाशाहों द्वारा इस्लाम का प्रचार किया जा रहा था तथा ब्राहमणवादियों द्वारा भोली जनता को धर्म या ईश्वर के नाम पर गुमराह किया जा रहा था। उनके मन में यह भावना पैदा की गई थी कि वह जैसा भी जीवन जी रहे हैं वह उनके पूर्वजन्मों के कर्मों का फल है तथा यही उनकी नियति है। धर्मभीरु जनता का आत्मसम्मान नष्ट हो चुका था, हमारी इन पुरानी चित्तावृत्तियों का ही परिणाम था कि विज्ञान की भाषा में इसे आनुवांशिकीय प्रभाव भी कह सकते हैं। हमारी आध्यात्मिक सभ्यता जितनी समृध्द थी हम भौतिक सभ्यता में उतने ही पिछड़ते गये। कारण था रूढ़ियाँ और अंधविश्वास। इसीलिए कबीर का क़द और भी ऊँचा उठ जाता है। कबीर ने मानवतावादी दृष्टिकोण को लेकर बाह्य आडम्बरों, मिथ्याचार, जातिवाद, संप्रदायवाद, सामाजिक और धार्मिक रूढ़ियों पर कुठाराघात किया। उनके यहाँ विद्रोह की प्रहारक भंगिमा है।

यहाँ मुख्य उद्देश्य कबीर का नारी के संदर्भ में संक्षिप्त विचार करना है। मोटे तौर पर कबीर के यहाँ स्त्रियों की दो कोटियाँ हैं- पहली अच्छी स्त्रियाँ और दूसरी बुरी स्त्रियाँ। अच्छी स्त्रियाँ वे हैं जो पुरुष प्रदत्त सामाजिक मान्यताओं का पालन करती हैं व एक सीमा तक स्वयं को संकुचित रखकर पतिव्रत धर्म का आचरण करती हैं। बुरी स्त्रियाँ वे हैं जो साधना के मार्ग में अवरोध बनती हैं व उन्हें पुरुष वर्चस्व के द्वारा पूरी सामर्थ्य के साथ तिरस्कृत किया गया है। डॉ0 वल्लभदास तिवारी के अनुसार कबीर के साहित्य में नारी के चार रूप सामने आते हैं पहला, कुमारी कन्या, दूसरा सुन्दरी या विवाहिता, तीसरा विरहिणी तथा चौथा सती रूप। कुछ हद तक ये रूप दार्शनिक अर्थ भी ग्रहण करते हैं। जहाँ स्त्री आत्मा का प्रतीक है। तात्पर्य आत्मा को प्रियतमा (स्त्री) मानकर ईश्वर के प्रेम में रत होना। लेकिन कामिनी, व्यभिचारिणी स्त्री की निंदा व उसका तिरस्कार करने में कबीर ने कोई क़सर नहीं छोड़ी है।

कबीर के स्त्री विषयक चिंतन को समझने के लिए कुछ चीज़ों पर ध्यान देना ज़रूरी है। एक तो यह कि उपासना या ध्यान में नारी का त्याग, दूसरा आत्मा परमात्मा में प्रियतमा-प्रेमी का रूपक2, घर गृहस्थी में आदर्श माता3, पत्नी4 का चित्रण तथा लोकाचार में व्यभिचारिणी या कामुक स्त्री5 की निंदा। एक बात और कही जा सकती है कि साधक (पुरुष) साधना में स्त्री को अवरोध क्यों मानता हैं वह स्त्री से श्रेष्ठ है तो किस स्तर पर? वह अपनी इन्द्रियों को वश में क्यों नहीं कर पाता। एक प्रश्न उठता है, कि अपनी समस्त इन्द्रियों को वश में करने वाला योगी, साधक आखिर कामिनी स्त्री से इतना भयभीत क्यों होता है? उसे तो अपने चित् को वश में करना चाहिए। अपने चित् को इस प्रकार साध लेना चाहिए कि बाकी सारा चेतन जगत उसे जड़ प्रतीत हो। इस दृष्टि से देखा जाए तो पुरुष वास्तव में स्त्री से कमजोर है। वह शारीरिक, बाहुवल में ही स्त्री से आगे है, आत्मिक, एन्द्रिक रूप में तो वह शिथिल है।

दरअसल कबीर ने सभी जगह स्त्री की भर्त्सना नहीं की है और न ही सभी जगह उसे श्रेष्ठ माना है। चरित्र चित्रण के आधार पर प्रसंगवश स्त्री के जो रूप उस समय समाज में थे कबीर ने उन रूपों को प्रस्तुत करने की कोशिश की है। कबीर ने भारतीय नारी की गंभीर संवेदना, अटूट विश्वास, चिरस्थायी सम्बन्ध, कठोर पतिव्रत धर्म, मृदु मुस्कान और अधीर किंतु संयत हृदय की वेदना लेकर भक्त के अनोखे व्यक्तित्व का प्रदर्शन अपनी साखियों में किया है।6 स्त्री में क्षमाशीलता, ममता, उदारता, मृदु हृदय इत्यादि गुण उनकी स्त्री सुलभ विशेषताएं हैं। इसी गुण के कारण घर परिवार, समाज में सामन्जस्य कायम है। कबीर के यहाँ नारी के जो मुख्य रूप हैं वे हैं आराधिता, पतिव्रता गृहणी तथा कामिनी। पतिव्रता स्त्री के रूप में कबीर ने परमपुरुष परमात्मा के प्रति उद्गार प्रकट किए है। वे उनकी भाव विह्नवलता और गंभीर प्रेम की अनुभूति के यथार्थ को प्रकट करते हैं। स्त्री की भांति कबीर ने पुरुष के पतित रूप की भी निंदा की है, फिर इसमें इतना अधीर होने की आवश्यकता नहीं कि कबीर स्त्री विरोधी या स्त्रियों की सत्ता पर कुठाराघात करने वाले हैं। साहित्यकार का कार्य युगीन यथार्थ को प्रस्तुत करना होता है। कबीर ने यदि कामुक स्त्री की भर्त्सना की है तो कामी पुरुष को भी नहीं बख्शा है। उनके लिए कामुक पुरुष भी उतना ही पतित है.

पर नारी राता फिरै, चोरी बिढ़ता खाइ
दिवस चारि-सरसा रहै, अंति समूला जाहि।7 
या-

अंधा नर चेतै नहीं, कटै न संसै सूल
गुनाह हरि बकससी, कामी डाल न मूल।8 

क्योंकि कामी व्यक्ति ने हीरा रूपी भक्ति को खो दिया है वह विवकेशून्य होकर जीवन की महत्ता को भूल चुका है। कबीर की कविता को पढ़ने पर कभी लगता है कि, वर्तमान संदर्भ में यदि कबीर इत्यादि भक्त कवियों को देखें तो उनका काम व वासना के त्याग का शायद हम समर्थन नहीं करेंगे। आज संस्कृतियों के अंधानुकरण, मूल्यों का विघटन हो रहा है। खुले सैक्स संबंध व विवाहपूर्व शारीरिक संबंधों से क्या हमारे बौध्दिक चिंतक सहमत हैं? अगर नहीं तो किस आधार पर कबीर को स्त्री विरोधी घोषित किया जा रहा है। दरअसल कबीर इत्यादि कवि स्त्री को नहीं उनकी दुष्प्रवृत्तियों को त्याज्य कहते हैं। उन्होंने जितनी निंदा कामुक स्त्री की है उतनी ही कामी पुरुष की भी की, तथा उसे प्रगति व आत्मोत्षर्ग के मार्ग में बाधा मानते हैं। कहने भाव यह है कि पापी की बजाए पाप की निंदा व उसे मिटाने का कृत्संकल्प कबीर की कविता का का आधार है।

कबीर ने एक जगह यह भी लिखा है कि –

जाका गुरु अंधला, चेला खरा निरंध। अंधा अंधा ढेलिया, दून्यूं कूप पड़ंग।9 
या फिर- 
सतगुरु बपुरा क्या करै, जे सिषही मांहै चूक। 
भावै त्यूं प्रबोधि लै, ज्यूं बंसि बजाई फूंक।10 

तो फिर कुछ मुद्दों यथा नारी, दलित इत्यादि को लेकर हड़कंप क्यों। दलित केवल जन्मजात नहीं होता बल्कि हर वह मनुष्य दलित है जिसका किसी भी प्रकार से शोषण किया गया हो। तत्कालीन समूचा शोषित समाज ही दलित की श्रेणी में आ जाता है।एक और टिप्पणी आवश्यक हो सकती है कि, संतों का नारी को प्रियतम परमात्मा मिलन में बाधा मानने का कारण यह भी है कि नारी ने गृहस्थ के सभी कर्त्तव्यों को संभाल लिया था। संत तो गृहस्थ से ही पलायन कर चले थे। गृहस्थ से पलायन का मतलब समाज से पलायन है। समाज से विमुख एकाकी पुरुष समाज को क्या दे सकता है। यदि सारे मनुष्य गृहस्थ को त्याग कर आश्रमों में चले जाएं तो उनके लिए जीवन यापन के उपक्रम कौन करेगा? इस प्रकार तो यह दुनिया ही निठल्ली हो जाएगी, व वक्त से पहले ही गर्त (महाप्रलय) में पहुँच जाएगी। पुरुष वर्ग की इसी कर्त्तव्य- विहीनता, गृहस्थ से पलायन की प्रवृत्ति पर स्त्री ने जब अंकुश लगाने की चेष्टा की तो वह पुरुष के लिए ईश्वर प्राप्ति के मार्ग में बाधा बनकर नरक का द्वार बन गई। स्त्री के इस विद्रोह को ख़ारिज करने के लिए तथाकथित संतों (पुरुषों) ने स्त्री को नीच करार कर दिया यही स्थिति दलितों की भी रही। जब-जब दलितों ने अपने अधिकारों के लिए सिर उठाया तो सवर्णों ने उन्हें और नीचे गिराया है। यह सत्य है कि सन्तों ने ‘नारी’ शब्द का ग्रहण वासना के प्रतीकार्थ में किया है और प्रत्येक स्थल पर उनके वास्त्विक मन्तव्य को जानने के लिए ‘नारी’ का यही अर्थ लगाना हमारे लिए अनिवार्य भी है। वासना की जैसी प्रवृत्ति नारी में है वैसी ही नर में भी है। फिर ‘नर’ शब्द को वासना के अर्थ में प्रयुक्त क्यों नहीं किया गया। सन्त परस्पर आकर्षण के इस जैविकीय सत्य की घोर उपेक्षा करते हैं। क्योंकि यदि नारी प्रेरक है तो नर प्रेरित करने वाला है अत: वासना व्यक्ति मन की उपज है। वह बाहर से थोपी नहीं जाती है। फिर नारी पर इसका दोष क्यों? शायद सन्तों द्वारा इस मनोवैज्ञानिक तथ्य को ठुकराया गया कि अहं को बचाने के लिए अपर लिंग पर तरह तरह के प्रतिमान थोपकर उसे घृणा का पात्र बनाया जाए। नारी तो जननी है पालने वाली है। न!
कबीर का स्त्री विषयक चिंतन उतना उत्साहजनक नहीं है। पहला कबीर स्वयं पुरुष हैं। स्त्री के गुण अवगुणों का आकलन पुरुष बर्चस्व या पितृसत्तात्मक मानकों के आधार पर हुआ है। जो मान्यताएं, अवधारणाएं, रीति नियम तत्कालीन समाज में थे उनका नियंता भी पुरुष वर्ग ही था। उनके द्वारा स्थापित रीति नीतियों के ढांचे के भीतर जो स्त्री स्वयं को रख पाई उसे अच्छी स्त्री की श्रेणी में रख गया और जो उस ढांचे से इतर स्वच्छंद रही उसे कुलटा, कामिनी, व्यभिचारिणी व तरह तरह के बुरे उपमान प्रदान कर कलंकित किया गया। कितना हास्यास्पद लगता है जब मध्यकालीन बौध्दिक वर्ग स्त्री के लिए नरक का कुण्ड, काली नागिन, कूप समान, माया की आग, विषफल, जगत की जूठन, खूँखार सिंहनी, उसकी छाया से सर्प भी अंधा हो जाता है तथा शहद की मक्खी के समान इत्यादि गाली गलौच व अपमानजनक शब्दावली का प्रयोग करता है। यदि नारी संदर्भ को प्रतीकार्थ भी मान लें तो इसे व्याख्यायित करने के लिए प्रयुक्त शब्दावली या भाव किस मानसिकता को दर्शाते हैं?

तत्कालीन सामन्ती व पितृसत्तात्मक समाज में स्त्री को सामाजिक भागीदारी से निरस्त कर हाशिए पर धकेल दिया गया था। स्त्री के इस अपमान, घृणा व तिरस्कार को शायद वाणी मिली हो, इसका इतिहास में कहीं भी जिक्र नहीं है। तत्कालीन सामाजिक ढांचे में कैद स्त्री का गुणगान नारी विमर्श या नारी के हक में इजाफ़ा.

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