जितना तुम्हारा सच है उतना ही कहो-अज्ञेय
उड गई चिड़िया कापी, फिर थिर-हो गई पत्ती। सच्चिदानंद हीरानंद वात्स्यायन अज्ञेय हिंदी के कालजयी रचनाकार है। उन्हें प्रयोगवाद का प्रवर्तक कहा जाता है। वस्तुत: उनका पूरा रचना संसार परंपरा और प्रयोग का विलक्षण सह मेल है। राहों के अन्वेषी अज्ञेय उन यायावर रचनाकारों में अग्रगण्य हैं जिन्होंने शब्द की संस्कृति को नयी आभा प्रदान की। अज्ञेय के व्यक्तित्व और लेखन को लेकर जाने कितने विवाद उठे। कई बार मौन भी अभिव्यजना है में विश्वास रखने वाले अज्ञेय ने अपने मित कथनों से भी इन चर्चाओं को बल दिया। अपने सरोकारों पर टिप्पणी करते हुए एक बातचीत में वे कहते है, मेरे लिए महत्व की बात यह है कि अपने और अपने आसपास के बीच जो संबंध है उसे जानने पहचानने का प्रयत्न करूं। उसके सभी स्तरों को समग्रता और जटिलता में, और पहचान के सहारे उस स्वाधीनता को बढाऊं और पुष्ट करूं जो मेरे मानव की सबसे मूल्यवान उपलब्धि है।
7 मार्च 1911 को कुशीनगर, उ.प्र. के एक पुरातत्व-उत्खनन शिविर में जन्मे अज्ञेय को ज्ञान की कई धाराएँ विरासत में मिली थीं। उनके पिता पं. हीरानंद शास्त्री बहुविद्याविशारद थे। लाहौर से बीएससी करने वाले अज्ञेय को संस्कृत, फारसी, अंग्रेजी, बांग्ला सहित कई भाषाओं का ज्ञान था। अपनी मां व्यती देवी के साथ 1921 में उन्होंने पंजाब की यात्रा की थी, उनके मन में स्वाधीनता और संघर्ष के बीज इसी समय पडे। परवर्ती अज्ञेय को देखकर बहुतेरों के लिए यह विश्वास करना कठिन होता था कि यह व्यक्ति हिन्दुस्तान रिपब्लिकन आर्मी का सक्रिय सदस्य था। चंद्रशेखर आजाद, भगवतीचरण वोहरा, सुखदेव आदि अनेक क्रांतिकारियों से अज्ञेय की घनिष्ठता रही। कई बार गिरफ़्तार हुए, जेल गये, कालकोठरी में रहे, अपने घर में नज़रबंद किये गये। अज्ञेय में स्वाधीनता की यह ललक उनके साहित्य में भाँति-भाँति से प्रतिबिम्बित हुई। उन्होंने 1924 में पहली कहानी लिखी। सच्चिदानंद हीरानंद को अज्ञेय नाम जैनेन्द्र कुमार ने दिया था।
अज्ञेय सचमुच बहुमुखी व्यक्तित्व थे। उन्होंने खुद लिखा कि जूता गाठने से लेकर बहुत सारे काम करके वे अपनी आजीविका चला सकते है। एक पत्रकार के रूप में सैनिक, विशाल भारत, प्रतीक, थॉट, वाक्, दिनमान, नया प्रतीक और नवभारत टाइम्स में उनके योगदान को बहुमूल्य माना जाता है। रचनाकार के रूप में शीर्ष स्थानीय महत्व तो है ही, रचनात्मक आंदोलनों के नेतृत्व की जो समझ उनमें थी वह दुर्लभ है। तारसप्तक सहित सप्तक चतुष्टय की परिकल्पना और परिणति ने हिंदी साहित्य में नया इतिहास रचा। उन्हें प्रयोगवाद से जोडना स्वाभाविक है, 1943 में तारसप्तक छपा था, लेकिन अज्ञेय प्रयोगवाद की रूढ अवधारणाओं व फल श्रुतियों को मीलों पीछे छोड देने वाले रचनाकार है।
अज्ञेय ने समान शब्द सिद्धि के साथ कविता, कहानी, उपन्यास, निबंध, आलोचना, यात्रा वृत्तांत ,डायरी, रिपोर्ताज, संस्मरण आदि विधाओं में प्रचुर लेखन किया। भग्नदूत, चिंता, हरी घास पर क्षण भर, बावरा अहेरी, आँगन के पार द्वार, कितनी नावों में कितनी बार, सागर मुद्रा, पहले मैं सन्नाटा बुनता हूं और ऐसा कोई घर आपने देखा है सहित सोलह संग्रहों में उनकी कविताएँ मौजूद है। सचयन आदि तो हैं ही। अज्ञेय की कविता के बीज शब्द है- स्वतंत्रता, निजता, व्यक्ति, मौन, करुणा, प्रकृति, रहस्य, अपार, अन्वेषण और जीवन। श्रद्धा और समर्पण को भी जोड़ा जा सकता है। जन्म दिवस, हरी घास पर क्षण भर, कलगी बाजरे की, नदी के द्वीप, बावरा अहेरी, यह दीप अकेला, चक्रात शिला, असाध्य वीणा और एक सन्नाटा बुनता हूं आदि अनेकानेक कविताओं में अज्ञेय हिंदी कविता को अभूतपूर्व गरिमा प्रदान करते है। निश्चित रूप से वे व्यक्तित्व के वैभव को रेखांकित करते है, पर उन्हें व्यक्तिवाद में सीमित करना अन्याय है। विदेशी साहित्य का सघन पाठक होने के नाते उन पर विचारधाराओं व शैलियों के प्रभाव भी देखे जा सकते है। इन सबके बीच अज्ञेय की मौलिकता अनन्य है। भीतर जागादाता कविता में लिखते है-
लो, यह स्मृति, यह श्रद्धा, यह हंसी
यह आहूत, स्पर्शपूत भाव
यह मैं, यह तुम, यह खिलना
यह ज्वार, यह प्लावन
यह प्यार, यह अडूब उमडना
सब तुम्हे दिया
वे हिंदी कविता के एक बड़े समय और उन्नयन का नेतृत्व करते है। कई परवर्ती बड़े कवियों पर अज्ञेय का प्रभाव दिखता है। कथा साहित्य में अज्ञेय का हस्तक्षेप युगांतरकारी है। शेखर एक जीवनी, नदी के द्वीप और अपने-अपने अजनबी उपन्यास व्यक्ति और समाज की विभिन्न विडम्बनाओं से जूझते है। स्त्री, प्रेम, इच्छा, विरक्ति, मर्यादा, विद्रोह, संस्कार आदि को अज्ञेय नये सिरे से परिभाषित करते है। उनकी कहानियों के सात संग्रह है। जिनमें गैंग्रीन, हीली-बोन् की बत्तखें, मेजर चौधरी की वापसी, शरणार्थी आदि को क्लैसिक का दर्जा मिल चुका है। अज्ञेय के पास शब्दार्थ को पहचानने और उसे व्यक्त कर सकने की जो अपूर्व क्षमता है वह हिंदी गद्य को बदल देती है। हीली बोन् की बत्तखें के अंतिम वाक्य है,कैप्टेन दयाल ने कुछ कहना चाहा, पर अवाक् ही रह गये, क्योंकि उन्होंने देखा, हीली की आँखों में वह निव्र्यास सूनापन घना हो आया है जो कि पर्वत का चिरन्तन विजन सौंदर्य है।
अरे यायावर रहेगा याद और एक बूंद सहसा उछली में अज्ञेय के यात्रा वृत्तांत है। देश और विदेश में घूमते अज्ञेय इन वर्णनों से पाठक की चित्तवृत्ति उदार बनाते है। वे कविर्मनीषी थे। लगभग बारह संग्रहों में उनके निबंध है जिनके केंद्र में साहित्य, संस्कृति, विकास और मनुष्यता से जुडे अनेक प्रश्न है। यहां उनकी तार्किक भारतीयता दिखाई पडती है। कुट्टिचातन नाम से अज्ञेय ने अनेक ललित निबंध लिखे जो सबरग, सबरग और कुछ राग व छाया का जंगल आदि में है। उनका गीतिनाट्य उत्तर प्रियदर्शी युद्ध, शांति और करुणा को समकालीन संदर्भो में व्याख्यायित करता है।
भवन्ती,अन्तरा,शाश्वती आदि डायरी पुस्तकें और स्मृतिलेखा व स्मृति के गलियारों से संस्मरण संग्रह अज्ञेय के सृजन और चिन्तन के अनूठे साक्ष्य है। सप्तक श्रृंखला सहित अठारह से अधिक ग्रंथों का संपादन किया। अज्ञेय एक मर्मान्वेषी अनुवादक भी थे। उनका अवदान विपुल व बहुमूल्य है। अज्ञेय के जन्मशती वर्ष में उनके साहित्य के पुनर्मूल्याँकन के बहुतेरे उपक्रम हो रहे है। कई आलोचक पश्चाताप भाव से भर उठे है कि हमने वाद ग्रस्तता के कारण इतने बड़े शब्द शिल्पी की अनदेखी की। कुछ आलोचक ऐसे भी है जो इस स्मरण वर्ष की भावुकता से लाभ उठाकर मा?र्क्सवादियों को मुँहतोड जवाब जैसी वीरोचित व्याख्याएँ कर रहे है। वस्तुत: ये दोनों ही उपक्रम इस बात के प्रतीक है कि अज्ञेय जैसे बड़े रचनाकार को समझने में होने वाली भूलें हिंदी समाज का सहज स्वभाव जैसी है।
अज्ञेय ने एक जगह बुद्धिजीव और बौद्धिक का फ़र्क स्पष्ट किया है। उन्हें बौद्धिक के रूप में ही समझा जा सकता है। प्रेम, प्रकृति और स्वाधीनता आदि अनेक रचनात्मक विशेषताएँ अज्ञेय को बडा बनाती है। युवा आलोचक व कवि पंकज चतुर्वेदी उनकी जीवन दृष्टि को रेखांकित करते हुए कहते है कि मनुष्य की अनियंत्रित स्वार्थपरता, भोगवाद और क्रूरता क्रूरता के मद्देनज़र यह कवि की भविष्य-दृष्टि के प्रेसिशन या अचूकता की मिसाल है। अज्ञेय इसलिए बड़े कवि है कि उनमें सुंदर और उदात्त की अभिव्यक्ति की संस्कृति ही नहीं, धारा के विरुद्ध जाकर अप्रिय और असुविधाजनक सच कहने का साहस भी था। अपने सच को ही कहने की बात करने वाले अज्ञेय कई बार अप्रत्याशित भी है, जिससे उन्हें समझने में कई कठिनाई हो सकती है। रागात्मक संबंधों पर तो उनकी अभिव्यक्तियाँ अद्वितीय है। प्रकृति का इतना बडा प्रेमी भी मिलना कठिन है। अज्ञेय लिखते है मैं वह धनु हूं, जिसे साधने में प्रत्यचा टूट गई है/ स्खलित हुआ है वाण, यद्यपि ध्वनि दिग्दिगन्त में फूट गई है। सच यही है कि ऐसे रचनाकार की शब्द में समाई कठिन होती है। अज्ञेय भारतीय साहित्य को गौरव प्रदान करने वाले महान रचनाकार है।
निराला का भाषागत संघर्ष
तुलसीदास के बाद हिन्दी साहित्य में निराला ही एक ऐसे कवि हैं जिन्होंने भारतीय काव्य मनीषा को ठीक से समझकर उसे युग अनुरूप प्रेरणादायी बनाया था। जैसे तुलसी ने फारसी के आतंक से हिन्दी को मुक्त कर भाषा के स्तर पर इतने प्रयोग किए कि वह हिन्दी साहित्य के लिए उपयोगी बन गयी। उन्होंने संस्कृत की कठिन शब्दावली को सहज और जनप्रिय छन्दों में ढाला यही कारण है कि रामचरित मानस के प्रत्येक काण्ड का प्रारम्भ वे बोधगम्य संस्कृत में करते हैं। निराला ने भाषा और छन्द के स्तर पर हिन्दी में जो प्रयोग किए उन्हें तुलसीदास के प्रयोग से जोडकर देखना उचित है। भारतेन्दु बाबू हरिश्चन्द्र के युग के बाद और विशेषकर सरस्वती के प्रकाशन का वह कालखण्ड जो आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी युग के नाम से जाना जाता है। निराला भी इसी कालखण्ड में लेखन प्रारम्भ करते हैं। द्विवेदी जी जिस हिन्दी को विकसित करने में लगे रहे महाप्राण निराला जैसे अनेक साहित्यकारों और साहित्य प्रेमियों ने अपना सर्वस्व अर्पण किया। उसी हिन्दी को आगे बढाने का दायित्व वर्तमान पीढयों का है। यह पितृऋण हमारे ऊपर है। इससे उऋण हुए बिना न तो हमारी मुक्ति है और न ही राष्ट्र की। |
हिन्दी जिस रूप में आज हमारे सामने है उसमें निराला का बहुत बडा योगदान है। हीन ग्रंथि से पीडत हिन्दी समाज को अपनी भाषा और साहित्य पर इसलिए स्वाभिमान होना चाहिए क्योंकि उसके पास विश्व का सबसे बडा कवि तुलसीदास है। उन्हें इसलिए भी गौरव होना चाहिए क्योंकि उनके पास सूर्यकान्त त्रिपाठी निराला जैसा साहित्यकार और पत्रकार उपलब्ध है। लेकिन यह दुःखद पक्ष है कि आज हिन्दी भाषी समाज इन मूल्यवान बिन्दुओं पर विचार नहीं कर रहा है। हमारा सोच इस स्तर तक कैसे पहुँच गया। इस पर विचार करते हुए निराला ने ”सुधा” पत्रिका के सम्पादकीय में सन् १९३५ में लिखा था – ”हिन्दी साहित्यकारों ने हिन्दी के पीछे तो अपना सर्वस्व अर्पण कर दिया है पर हिन्दी भाषियों ने उनकी तरफ वैसा ध्यान नहीं दिया – शतांश भी नहीं। वे साहित्यिक इस समय जिन कठिनता का सामना कर रहे हैं, उसे देखकर किसी भी सहृदय की आँखों में आँसू आ जाएँगे। बदले में उन्हें अनधिकारी साहित्यिकों से लाँछन और असंस्कृत जनता से अनादर प्राप्त हो रहा है। (सुधा जून ३५ समां टि. २) |
निराला का जन्म २१ फरवरी सन् १८९९ में महिषादल में हुआ था। यह स्थान आज के बंगलादेश में आता है। यह समय देश की आजादी के लिए संघर्ष का समय था। अंग्रेज जान-बूझकर भारतीय संस्कृति और भाषा को नष्ट करने में लगे हुए थे। अंग्रेजों की रणनीति का यह महत्त्वपूर्ण हिस्सा रहा है कि वे जहाँ भी शासन करते थे, वहाँ की भाषाओं को नष्ट कर देते थे। डॉ. रामविलास शर्मा लिखते हैं ”साम्राज्यवाद से जहाँ भी बन पडा, उसने न केवल भाषाओं का, वरन् उन्हें बोलने वाली जातियों का भी नाश किया। अमरीकी महाद्वीपों में अजतेक और इंका जनों की सभ्यताएँ अत्यन्त विकसित थीं। अब वहाँ उनके ध्वंसावशेष ही रह गए हैं। रेड इंडियन जनों से उनकी भूमि छीन ली गयी, अमरीकी विश्वविद्यालयों में उनकी भाषाएँ शिक्षा का माध्यम नहीं है। अमरीकी नीग्रो अंग्रेजी बोलते हैं, उनके पुरखे कौन सी भाषा बोलते थे, यह वे नहीं जानते। दक्षिणी अफ्रिका, रोडेशिया, आस्ट्रेलिया, न्यूजीलैण्ड, जहाँ भी साम्राज्यवादियों से बन पडा उन्होंने गुलाम बनाए हुए देशों के मूल निवासियों का नाश किया, उनकी भाषाओं और संस्कृतियों का दमन किया।” (निराला की साहित्य साधना, भाग-२, पृष्ठ १९) |
एक महान् चिन्तक की तरह निराला अपने समय की स्थिति पर निगाह रखे हुए थे तथा अपनी कविताओं और लेखों के द्वारा भारतीय जनमानस को यह बता रहे थे कि अंग्रेजी की पक्षधरता उन्हें कहाँ ले जाएगी। सन् १९३० में सुधा के सम्पादकीय में उन्होंने लिखा, ”भारतवर्ष अंग्रेजों की साम्राज्य लालसा सर्वप्रधान ध्येय रहा है। यहाँ की सभ्यता और संस्कृति अंग्रेजों की सभ्यता और संस्कृति से बहुत कम मेल खाती थी, पर सात समुद्र पार से आकर इतने विस्तृत और इतने सभ्य देश में राज्य करना जिन अंग्रेजों को अभीष्ट था, वे बिना अपनी कूटनीति का प्रयोग किए कैसे रह सकते थे ‘ अंग्रेजों की नीति हुई – भारत के इतिहास को विकृत कर दो और हो सके तो उसकी भाषा को मिटा दो। चेष्टाएँ की जाने लगी। भारतीय सभ्यता और संस्कृति तुलना में नीची दिखायी जाने लगीं। हमारी भाषाएँ गँवारू असाहित्यिक और अविकसित बताई जाने लगी। हमारा प्राचीन इतिहास अंधकार में डाल दिया गया। बकायदा अंग्रेजी की पढाई होने लगी। इस देश का शताब्दियों से अंधकार में पडा हुआ जन समाज समझने लगा कि जो कुछ है, अंग्रेजी सभ्यता है, अंग्रेजी साहित्य है और अंग्रेज हैं।” |
निराला हिन्दी और संस्कृत के लिए निरन्तर संघर्ष करते रहे ”अनामिका” नाम की कविता संग्रह में ”मित्र के प्रति” कविता में उनके भाव देखे जा सकते हैं – |
जला है जीवन यह आतप में दीर्घकाल |
सूखी भूमि, सूखे तरु, सूखे शिक्त आलाव |
बन्द हुआ गूँज, धूलि धूसर हो गए कुंज, |
किन्तु पडी व्योम-उर बन्धु, नील-मेघ-माल। |
जो काम देश की आजादी के लिए क्रांतिकारी लोग अपने स्तर पर कर रहे थे। साहित्य और भाषा के स्तर पर यही संघर्ष निराला लड रहे थे। और इससे भी अधिक वे दोनों स्तरों पर काम कर रहे थे। पूरे स्वतंत्रता आंदोलन में किसानों का जो एक मात्र आंदोलन हुआ था। इस आंदोलन में निराला ने महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई थी। निराला के जीवन पर केन्द्रित पुस्तक ”निराला की साहित्य साधना भाग-१,२ एवं ३ में डॉ. रामविलास शर्मा ने निराला के भाषागत संघर्ष का सुन्दर चित्रण किया है। इस पुस्तक के विषय में कहा जाता है कि किसी कवि पर केन्द्रित विश्व की उत्कृष्ट रचना है। डॉ. रामविलास शर्मा लिखते हैं ”जला है जीवन यह – निराला का जीवन जला है, हिन्दी का जीवन जला है। निराला के मन की आशाएँ, उल्लास, विषाद्, निराशा, वीरतापूर्ण कर्म, त्रास, दुःस्वप्न यह सब कुछ कहीं न कहीं हिन्दी के इस आन्तरिक संघर्ष से जुडा हुआ है। निराला के बिना हिन्दी का यह संघर्ष नहीं समझा जा सकता, इस संघर्ष के बिना निराला नहीं समझे जा सकते, न व्यक्तित्व न कृतित्व। निराला का जीवन हिन्दीमय है, हिन्दी उनके लिए साहित्य साधना का माध्यम है अपने में यह साध्य है। भारत देश और इस देश की जनता की तरह निराला की आस्था, श्रद्धा, सर्वाधिक प्रेम का अधिष्ठान है भाषा। असह्य पीडा के क्षणों में वह सारा दुःख ”यह हिन्दी का प्रेमोपहार कह कर स्वीकार करते हैं।” (निराला की साहित्य साधना भाग-२, पृष्ठ १७२) |
हिन्दी को लेकर निराला उस समय के सबसे बडे नेताओं से भी बातचीत कर अपनी चिन्ताएँ व्यक्त करते रहे। उन्होंने महात्मा गाँधी से भी हिन्दी के विकास को लेकर बातचीत की। गाँधी जी हिन्दी के प्रबल पक्षधर थे। स्वतंत्रता आन्दोलन में लगे हुए नेताओं में गाँधी ही एक ऐसे व्यक्ति थे जो राजनैतिक आजादी को भाषागत आजादी से जोडकर देख रहे थे और यह कह रहे थे – ”मेरा नम्र लेकिन दृढ अभिप्राय है कि जब तक हम भाषा को राष्ट्रीय और अपनी भाषाओं प्रान्तों में उनका योग्य स्थान नहीं देंगे, तब तक स्वराज्य की सब बातें निरर्थक हैं। (सन् १९३५ में इन्दौर म दिए गए भाषण से) गाँधी के इसी देश में आज का ज्ञान आयोग यह मानता है कि बिना अंग्रेजी के राष्ट्र का विकास असम्भव है। ज्ञान आयोग और चाहे जो कुछ भी सोचे किन्तु उसका यह सोच गाँधी और निराला की भाँति राष्ट्र के उन्नयन की बात नहीं सोच रहा है। इसी भाँति वे पंडित जवाहरलाल नेहरू से भी हिन्दी के चिन्तन को लेकर आमने-सामने हुए। इस घटना का चित्रण करते हुए डॉ. रामविलास शर्मा ने लिखा है। (यह चित्रण उस समय का है जब रावी नदी के तट पर पूर्ण स्वाधीनता की प्रतिज्ञा ली गई थी जिसकी खुशी में पूरे देश में कार्यक्रम आयोजित हो रहे थे जिनमें भाग लेने के लिए राष्ट्रीय नेता पूरे देश का भ्रमण कर रहे थे)” जनता से विदा होने और गाडी के चलने पर जब नेहरू जी भीतर आकर बैठे तब निराला ने शुरू किया – ‘आपसे कुछ बातें करने की गरज से अपनी जगह से यहाँ आया हुआ हूँ।’ |
नेहरू ने कुछ न कहा। निराला ने अपना परिचय दिया। फिर हिन्दुस्तानी का प्रसंग छेडा, सूक्ष्म भाव प्रकट करने में हिन्दुस्तानी की असमर्थता जाहिर की। फिर एक चुनौती दी – ‘मैं हिन्दी के कुछ वाक्य आपको दूँगा जिनका अनुवाद आप हिन्दुस्तानी जबान में कर देंगे, मैं आपसे प्रार्थना करता हूँ। इस वक्त आपको समय नहीं। अगर इलाहाबाद में आप मुझे आज्ञा करें, तो किसी वक्त मिलकर मैं आपसे उन पंक्तियों के अनुवाद के लिए निवेदन करूँ।’ |
जवाहरलाल नेहरू ने चुनौती स्वीकार न की, समय देने में असमर्थता प्रकट की। निराला ने दूसरा प्रसंग छेडा। समाज के पिछडेपन की बात की, ज्ञान से सुधार करने का सूत्र पेश किया। हिन्दू-मुस्लिम समस्या का हल हिन्दी के नये साहित्य में जितना सही पाया जायगा, राजनीतिक साहित्य में नहीं – निराला ने अपने व्यावहारिक वेदान्त कर गुर समझाया। |
जवाहरलाल नेहरू डिब्बे में आई बला को देखते रहे, उसे टालने की कोई कारगर तरकीब सामने न थी। डिब्बे में आर.एस. पंडित भी थे। दोनों में किसी ने बहस में पडना उचित न समझा। लेकिन निराला सुनने नहीं, सुनाने आये थे। बनारस की गोष्ठी में जवाहरलाल के भाषण पर वह ‘सुधा’ में लिख चुके थे, अब वह व्यक्ति सामने था जो अपने हिन्दी-साहित्य संबंधी ज्ञान पर लज्जित न था, जो स्वयं अंग्रेजी में लिखता था, जो हिन्दी वालों को क्या करना चाहिए, उपदेश देता था। (इससे पूर्व पंडित नेहरू बनारस के एक सम्मेलन में कह आए थे कि हिन्दी साहित्य अभी दरबारी परम्परा से नहीं उबरा है। यहीं पर उन्होंने यह भी कहा था कि अच्छा होगा कि अंग्रेजी साहित्य की कुछ चुनी हुई पुस्तकों का हिन्दी में अनुवाद करवाया जाए, इस पूरे प्रसंग पर ही निराला, पंडित जवाहरलाल नेहरू से बात कर रहे थे)। |
निराला ने कहा – ‘पंडित जी, यह मामूली अफसोस की बात नहीं कि आप जैसे सुप्रसिद्ध व्यक्ति इस प्रान्त में होते हुए भी इस प्रान्त की मुख्य भाषा हिन्दी से प्रायः अनभिज्ञ हैं।’ किसी दूसरे प्रान्त का राजनीतिक व्यक्ति ऐसा नहीं। सन् १९३० के लगभग श्री सुभाष बोस ने लाहौर के विद्यार्थियों के बीच भाषण करते हुए कहा था कि बंगाल के कवि पंजाब के वीरों के चरित्र गाते हैं। उन्हें अपनी भाषा का ज्ञान और गर्व है। महात्मा गाँधी के लिए कहा जाता है कि गुजराती को उन्होंने नया जीवन दिया है। बनारस के जिन साहित्यिकों की मण्डली म आपने दरबारी कवियों का उल्लेख किया कि, उनमें से तीन को मैं जानता हूँ। तीनों अपने-अपने विषय के हिन्दी के प्रवर्तक हैं। प्रसाद जी काव्य और नाटक-साहित्य के, प्रेमचन्द जी कथा-साहित्य के और रामचन्द्र जी शुक्ल आलोचना-साहित्य के। आप ही समझिए कि इनके बीच आपका दरबारी कवियों का उल्लेख कितना हास्यास्पद हो सकता है। एक तो हिन्दी के साहित्यिक साधारण श्रेणी के लोग हैं, एक हाथ से वार झेलते, दूसरे से खिलते हुए, दूसरे आप जैसे बडे-बडे व्यक्तियों की मैदान में वे मुखालिफत करते देखते हैं। हमने जब काम शुरू किया था, हमारी मुखालिफत हुई थी। आज जब हम कुछ प्रतिष्ठित हुए, अपने विरोधियों से लडते, साहित्य की दृष्टि करते हुए, तब किन्हीं मानी में हम आपको मुखालिफत करते देखते हैं। यह कम दुर्भाग्य की बात नहीं, साहित्य और साहित्यिक के लिए। हम वार झेलते हुए सामने आए ही थे कि आपका वार हुआ। हम जानते हैं कि हिन्दी लिखने के लिए कलम हाथ में लेने पर, बिना हमारे कहे फैसला हो जायगा कि बडे से बडा प्रसिद्ध राजनीतिज्ञ एक जानकार साहित्यिक के मुकाबले कितने पानी में ठहरता है। लेकिन यह तो बताइए, जहाँ सुभाष बाबू, अगर मैं भूलता नहीं, अपने सभापति के अभिभाषण में शरत्चन्द्र के निधन का जिक्र करते हैं, वहाँ क्या वजह है जो आपकी जुबान पर प्रसाद का नाम नहीं आता। मैं समझता हूँ, आपसे छोटे नेता भी सुभाष बाबू के जोड के शब्दों में कांग्रेस में प्रसाद जी पर शोक-प्रस्ताव पास नहीं कराते। क्या आप जानते हैं कि हिन्दी के महत्त्व की दृष्टि से प्रसाद कितने महान् हैं ‘ |
जवाहरलाल एकटक निराला को देखते रहे। ऐसा धाराप्रवाह भाषण सुनाने वाले जीवन में ये उन्हें पहले व्यक्ति मिले थे, अगला स्टेशन अभी आया न था। सुनते जाने के सिवा चारा न था। |
निराला को प्रेमचन्द याद आये। बोले – ‘प्रेमचन्द जी पर भी वैसा प्रस्ताव पास नहीं हुआ जैसा शरत्चन्द्र पर।’ |
नेहरू ने टोका – ‘नहीं, जहाँ तक याद है, प्रेमचन्द जी पर तो एक शोक-प्रस्ताव पास किया गया था।’ |
निराला ने अपनी बात स्पष्ट की – ‘जी हाँ, यह मैं जानता हूँ, लेकिन उसकी वैसी महत्ता नहीं जैसी शरत्चन्द वाले की है।’ |
आखिर अयोध्या स्टेशन आ गया। निराला ने आखिरी बात कही – ‘अगर मौका मिला तो आपसे मिलकर फिर साहित्यिक प्रश्न निवेदित करूँगा।’ |
नेहरू ने इसका कोई उत्तर न दिया। |
नमस्कार करके निराला उतरे और अपने डिब्बे में आ गये। प्लेटफार्म महात्मा गाँधी की जय, पं. जवाहरलाल नेहरू की जय से गूँजता रहा। ( निराला की साहित्य साधना, भाग-१, पृष्ठ क्रमांक ३१८ से ३२०)। |
निराला के लिए न तो कोई व्यक्ति बडा था और न ही पद। उनके व्यक्ति की यह सबसे बडी ताकत थी कि वे किसी से डरते भी न थे। भाषा और साहित्य के लिए किसी से भी भिड सकते थे और भिडे भी। |
वर दे वीणा वादिनी ………. । सरस्वती वन्दना से हमारे सांस्कृतिक कार्यक्रम शुरू होते हैं। इस वन्दना में प्रयुक्त नवगति, नवलय, तालछन्द नव ……. नव पर नव स्वर दे माँगने वाले इस अमर गायक की वेदना अभी भी हिन्दी भाषी समाज और हिन्दी के पक्षधर पूरी तरह नहीं समझ सके हैं। निराला ने माँ सरस्वती से सारी नवीनता हिन्दी के लिए ही माँगी थी क्योंकि उनके लिए जीवन का एकमात्र उद्देश्य हिन्दी भाषा और उसका साहित्य था। अपने जीवन की संध्या में वे कहते हैं – ”ताक रहा है भीष्म सरों की कठिन सेज से”। निःसन्देह निराला हिन्दी के भीष्म पितामह थे। इन प्रसंगों में हिन्दी को सम्मानजनक स्थान दिलाने के लिए महाभारत अभी शेष है। इससे लडते रहना ही निराला के प्रति सादर कृतज्ञता होगी। |
तुलसीदास की प्रासंगिकता
जब तक मानव जीवन में रूढ़िवाद बना रहेगा तब तक तुलसीदास प्रासंगिक रहेंगे. तुलसीदास की मुख्य समस्या थी कलियुग, एवं मुख्य विकल्प था रामराज्य. कलियुग अर्थात “कलि बारहि बार दुकाल परै, बिन अन्न दु:खी सब लोक मरै“. कलि की पहचान भूख, गरीबी और मृत्यु हो. यह कोई दैवी प्रकोप नहीं है. यह समाज की भौतिक अवस्था है जिसके लिए मुख्यत: सत्ताधिकारी ही जिम्मेदार हैं. “जासु राज प्रिय प्रजा दुखारी, सो नृप अवस नरक अधिकारी”.
तुलसीदास को शुद्रविरोधी और नारीविरोधी भी कहा जाता है, लेकिन इसे स्वीकार करना मुश्किल है. शेक्सपीयर के नाटकों में नारी को डायन कह कर मारा जाता है. वे उसकी भर्त्सना भी करते हैं और कहीं समर्थन भी. तुलसीदास भी नारी वेदना को समझने वाले महान संत थे. “कत विधि सृजि नारि जग माही, पराधीन सपनेहु सुख नाहीं“. पातिव्रत धर्म स्त्री की पराधीनता है.जब तक नारी पराधीन रहेंगी तुलसी प्रासंगिक रहेंगे. ऐसा समाज था जहां पुरूषों के लिए बंधन नहीं पर नारी के लिए था. अर्थात संबंधों की विषमता थी. इस विषमता को तुलसी ने रेखांकित किया. समाज के संबंधों में विषमता का अर्थ है दासता. सामाजिक बुराईयां इन्हीं विषमता से पैदा होती है. इस विषमता का जवाब था राम का आचरण. मानव संबंधों में समानता की खोज तुलसीदास रामचरित के रूप में करते हैं. एक पत्नीव्रता रूप. राम के सर्वप्रिय पात्र हैं निषाद और शबरी. निषाद लोक, वेद, शास्त्र और समाज सारे दृष्टि से इतने नीच थे कि जिसकी छाया पर जाए तो आदमी भ्रष्ट हो जाय. वह राम के अनन्य सखा हैं. सामंती समाज में जो सबसे अधिक प्रताड़ित है राम उन सबके निकट हैं. इसलिए तुलसीदास प्रासंगिक हैं. 500 वर्ष पहले जो समस्यायें तुलसीदास के समय थी वह आज भी है. अत: तुलसीदास के संघर्ष से भी हमारा संबंध है.
भक्त कवियों का आत्मानुभव उनके ईश्वर को ढालता है, इसलिए संत कवियों के नायक राजपाट से दूर सामान्य जीवन में साधारण रूप में ही रमते हैं. तुलसी के राम भी राजाओं या सामंतों के रूप में ढले नहीं हैं. राम सारे जीवन मूल्य के एकमात्र प्रतीक हैं जिनकी भक्ति में भक्त का गौरव ऊँचा हो जाता है.
मर्यादा पुरूषोत्तम जगह जगह मर्यादा तोड़ते हैं और नए मर्यादा का सूत्रपात कर उसके पुरूषोत्तम बनते हैं. राम अपने भक्त के लिए अधीर होते हैं. पहली बार ऐसा भगवान दिखाई देता है जो अपने भक्त के लिए अधीर होते हैं. इसी का परिणाम होता है कि भक्त भगवान को अपने वश में कर लेते हैं. हनुमान इसके उदाहरण हैं. भगवान भक्त के वश में आ जाते हैं. इस वश में आने का मुख्य कारण प्रेम है. भक्ति का मतलब ही है प्रेम. यही भक्ति साधारण और हीन मनुष्यों को आत्मगौरव प्रदान करने का माध्यम बनता है. मनुष्य की श्रेष्ठता इस भक्ति का दर्शन है.
तुलसी का आत्मानुभव राम से जुड़ता है. भक्ति इन कवियों के सामाजिक अपमान के भीतर से पैदा हुई शक्ति है. जब सामाजिक उत्पीड़न का विकल्प समाज में न हो तब उसका विकल्प दर्शन या आध्यात्म में होता है. इसलिए इसे आधार बनाकर भक्तों ने अपने अनुभव के सांचे में अपने ईश्वर को ढाला. चूंकि भक्त मनुष्य थे इसलिए उनके मन में कमज़ोरियां भी थी, ईश्वर इन कमजोरियों से दूर थे इसलिए वे उनके आदर्श थे. ईश्वर के रूप में जिस आदर्श की खोज भक्त कवि करते हैं उसी अनुरूप वे संघर्ष करते हैं. अपने माता-पिता के प्रति निंदा का भाव तुलसीदास के मन में है लेकिन राम के मन में नहीं. भक्ति यदि एक सिरे पर सामाजिक विद्रोह है तो दूसरे स्तर पर आत्मसाधना भी. भक्ति सामाजिक भी है और व्यक्तिगत भी. भक्ति एक ऐसी प्रेरणा है जिसने पूरे मनुष्य को उसकी सम्पूर्णता में पाने की कोशिश की. “जो सहजै विषया तजै” यही सहज साधना है कबीर की. सहज होना साधना चीज़ है.
वाल्मीकि की कथा का प्राण था शोक. शोक से श्लोक पैदा होता था. भवभूति की आत्मा करूणा थी, तुलसीदास की आत्मा संघर्ष थी जो राम के पूरे जीवन में व्याप्त है. करूणा, शोक, संघर्ष राम की कथा का सार है. वह भी जीवन व्यापी रूप में किसी ईश्वर में नहीं है. ये तीनों मनुष्य की परिस्थितियां हैं. मानव जीवन है. इसलिए राम का तादात्म्य बैठता है. राम कथा में व्यक्त वेदना मनुष्य के जीवन व संबंधों से पैदा होती है. वेदना अनैतिक आदमी में उत्पन्न नहीं होती.
पहले देवकथा देववाणी में लिखी जाती थी, तुलसी व सभी भक्त कवियों ने बोलचाल की भाषा में ईश की अराधना की. सामाजिक, धार्मिक या आध्यात्मिक के साथ भाषायी रूढ़िवाद से भी भक्तों ने संघर्ष किया. भारत में संस्कृत के वर्चस्व के विरूद्ध धर्म रूप में ही सही बोलचाल की भाषा सामने आई. सांस्कृतिक निरंतरता का प्रतीक राम के रूप में आया, वाल्मीकि, तुलसी, निराला तक. बंगाल के कृत्तिवास, दक्षिण में कंबन, महाराष्ट्र में रामदास और उत्तर में तुलसी ने एक समय में राम की कथा लिखी. राम उस समय के हिन्दुस्तान की राष्ट्रीय एकता के प्रतीक हैं. एटकिन्स नामक पादरी ने 18वीं सदी में रामचरित मानस का अनुवाद किया, रूस के वारानिक्कोव ने 20वीं सदी में रूसी भाषा में मानस का अनुवाद किया. वे नास्तिक थे. भारत की सांस्कृतिक छवि तुलसी के मानस से बनती है. तुलना करने पर मानस लैटिन और यूनानी भाषा के सर्वमान्य ग्रंथों से श्रेष्ठ सिद्ध होता है. भक्ति की अंतर्राष्ट्रीय संदर्भ स्रोत भी इस युग में जुड़ा है.
सारे भक्त कवि किसान और कारीगर समुदाय के लोग थे. भक्ति नि:स्वार्थ होता है. समाज में नए वर्गों की नये सामाजिक शक्तियों की गतिशीलता से भक्ति पैदा होती है. कारीगरों का उत्थान व्यापार की उन्नति से जुड़ा है. व्यापार एक सामाजिक शक्ति है. पूराने सामंती ढांचे के भीतर व्यापार की शक्तियों के विकास ने गति पैदा की. पूराने सामंती ढांचे को इस गति ने कमजोर किया. इन सभी शक्तियों ने अपने साथ नयी भाषा और नयी संस्कृति पैदा की.
तुलसी शंकर के मायावाद का खंडन करते हैं और जगत का सत्य मानते हैं. क्योंकि राम यदि हैं तो वह इस संसार से परे नहीं हो सकते. तुलसी के अनुसार ब्रह्म रूप में बंधा है और उसके रूप की कोई सीमा नहीं है.”हरि व्यापे सर्वत्र समाना, प्रेम से प्रकट होई मैं जाना”. प्रत्यक्ष और परोक्ष ब्रह्म दोनों एक हैं. “सगुन अगुन दुई ब्रह्म सरूपा” तुलसी ब्रह्म को प्रणाम करने के लिए ब्रह्म में नहीं संसार में जाते हैं. अतीत की बहुत सी दार्शनिक प्रणालियां और वर्तमान समाज की उपासना पद्धतियां तुलसी में मिल गई थी. अपने विश्वास को कायम रखना समन्वयवाद नहीं है. विचारों और पद्धतियों का प्रभाव समाज में एकता लाने की आवश्यकता के कारण हुआ.
कबीर की समाज सम्बन्धी विचारधारा
डॉ० मेराज अहमद
रामचरितमानस की मनोवैज्ञानिकता
कबीर और जायसी का रहस्यवाद : तुलनात्मक विवेचन
डॉ० ए.एल. अन्सारी
काव्य और साहित्य के क्षेत्र में विद्यापति का योगदान
काव्य और साहित्य के क्षेत्र में महाकवि ने निम्नलिखित ग्रन्थों की रचना की
(क) पुरुषपरीक्षा
(ख) भूपरिक्रमा
(ग) कीर्तिलता
(घ) कीर्तिपताका
(च) गोरक्षविजयांटक तथा
(छ) मणिमंजरीनाटिका।
इन ग्रन्थों के सम्बन्ध में संक्षिप्त विवरण नीचे दिया जा रहा है:
(क) पुरुषपरीक्षा
महाकवि विद्यापति ठाकुर ने पुरुष परीक्षा की रचना महाराजा शिवसिंह के निर्देशन पर किया था। यह ग्रन्थ पश्चिम के समाजशास्रियों के इस भ्रान्त कि “भारत में concept of man in Indian Tradition नामक विषय पर पटना विश्वविद्यालय के महान समाजशास्री प्रो. हेतुकर झा ने एक उत्तम कोटि की ग्रन्थ की रचना की है। यह ग्रन्थ समाजशास्रियों, इतिहासकारों, मानव वैज्ञानिको, राजनीतिशास्रियों के साथ-साथ दर्शन एवं साहित्य के लोगों के लिए भी एक अपूर्व कृति है। पुरुषपरीक्षा की कथा दी गयी है। वीरकथा, सुबुद्धिकथा, सुविद्यकथा और पुरुषार्थकथा- इन चार वर्गों पञ्चतन्त्र की परम्परा में शिक्षाप्रद कथाएँ प्रस्तुत की गयी हैं।
(ख) भूपरिक्रमा
भूपरिक्रमा नामक एक अत्यन्त प्रभावकारी ग्रन्थ की रचना महाकवि विद्यापति ठाकुर ने महाराज देवसिंह की आज्ञा से की थी। इस ग्रन्थ में बलदेवजी द्वारा की गयी भूपरिक्रमा का वर्णन है और नैमिषारण्य से मिथिला तक के सभी तीर्थ स्थलों का वर्णन है। भूपरिक्रमा को महाकवि का प्रथम ग्रन्थ माना जाता है। कारण, औइनवारवंशीय जिन राजा या रानियों के आदेश से कविश्रेष्ठ विद्यापति ठाकुर ने ग्रन्थ रचना की, उनमें सबसे वयोवृद्ध देवसिंह ही थे। भाषा और शैली की दृष्टि से भी मालूम होता है कि यह कवि की प्रथम रचना है।
(ग) कीर्तिलता
परवर्ती अपभ्रंश को ही संभवत: महाकवि ने अवहट्ठ नाम दिया है। ज्ञातव्य है कि महाकवि के पूर्व अद्दहयाण (अब्दुल रहमान) ने भी ‘सन्देशरासक’ की भाषा को अबहट्ठ ही कहा था। कीर्तिलता की रचना महाकवि विद्यापति ठाकुर ने अवहट्ठ में की है और इसमें महाराजा कीर्तिसिंह का कीर्तिकीर्तन किया है। ग्रन्थ के आरम्भ में ही महाकवि लिखते है:
… श्रोतुर्ज्ञातुर्वदान्यस्य कीर्तिसिंह महीपते:।
करोतु कवितु: काव्यं भव्यं विद्यापति: कवि:।।
अर्थात् महाराज कीर्तिसिंह काव्य सुननेवाले, दान देनेवाले, उदार तथा कविता करनेवाले हैं। इनके लिए सुन्दर, मनोहर काव्य की रचना कवि विद्यापति करते हैं। यह ग्रन्थ प्राचीन काव्यरुढियों के अनुरुप शुक-शुकी-संवाद के रुप में लिखा गया है।
कीर्तिसिंह के पिता राम गणेश्वर की हत्या असलान नामक पवन सरदार ने छल से करके मिथिला पर अधिकार कर लिया था। पिता की हत्या का बदला लेने तथा राज्य की पुनर्प्राप्ति के लिए कीर्तिसिंह अपने भाई वीरसिंह के साथा जौनापुर (जौनपुर) गये और वहाँ के सुलतान की सहायता से असलान को युद्ध में परास्त कर मिथिला पर पुन: अधिकार किया। जौनपुर की यात्रा, वहाँ के हाट-बाजार का वर्णन तथा महाराज कीर्तिसिंह की वीरता का उल्लेख कीर्तिलता में है। इसके वर्णनों में यर्थाध के साथ शास्राय पद्धति का प्रभाव भी है। वर्णन के ब्यौरे पर ज्योतिरीश्वर के वर्णरत्नाकर की स्पष्ट धाप है। तत्कालीन राजनैतिक, सामाजिक और सांस्कृतिक स्थिति के अध्ययन के लिए कीर्तिलता से बहुत सहायता ली जा सकती है। इस ग्रन्थ की रचना तक महाकवि विद्यापति ठाकुर का काव्यकला प्रौढ़ हो चुकी थी। इसी कारण इन्होंने आत्मगौरवपरक पंक्तियाँ लिखी:
बालचन्द विज्जावड़ भासा, दुहु नहिं लग्गइ दुज्जन हासा।
ओ परमेसर हर सिर सोहइ, ई णिच्चई नाअर मन मोहइ।।
चतुर्थ पल्लव के अन्त में महाकवि लिखते हैं:
“…माधुर्य प्रसवस्थली गुरुयशोविस्तार शिक्षासखी।
यावद्धिश्चमिदञ्च खेलतु कवेर्विद्यापतेर्भारती।।”
म.म. हरप्रसाद शास्री ने भ्रमवश ‘खेलतु कवे:’ के स्थान पर ‘खेलनकवे:’ पढ़ लिया और तब से डॉ. बाबूराम सक्सेना, विमानविहारी मजुमदार, डॉ. जयकान्त मिश्र, डॉ. शिवप्रसाद सिंह प्रभृति विद्धानों ने विद्यापति का उपनाम ‘खेलन कवि’ मान लिया। यह अनवमान कर लिया गया कि चूँकि कवि अपने को ‘खेलन कवि’ कहता है, अर्थात् उसके खेलने की ही उम्र है, इसलिए कीर्तिलता महाकवि विद्यापति ठाकुर की प्रथम रचना है। अब इस भ्रम की कोई गुंजाइश नहीं है और कीर्तिलता में कवि की विकसित काव्य-प्रतिमा के दर्शन होते हैं।
(घ) कीर्तिपताका
महाकवि विद्यापति ठाकुर ने बड़े ही चतुरता से महाराजा शिवसिंह का यशोवर्णन किया है। इस ग्रन्थ की रचना दोहा और छन्द में की गयी है। कहीं-कहीं पर संस्कृत के श्लोकों का भी प्रयोग किया गया है। कीर्तिपताका ग्रन्थ की खण्डित प्रति ही उपलब्ध है, जिसके बीच में ९ से २९ तक के २१ पृष्ठ अप्राप्त हैं। ग्रन्थ के प्रारंभ में अर्द्धनारीश्वर, चन्द्रचूड़ शिव और गणेश की वन्दना है। कीर्तिपताका ग्रन्थ के ३० वें पृष्ठ से अन्त तक शिवसिंह के युद्ध पराक्रम का वर्णन है। इसलिए डॉ. वीरेन्द्र श्रीवास्तव अपना वक्तव्य कुछ इस तरह लिखते हैं कि “अत: निर्विवाद रुप से पिछले अंश को विद्यापति-विरचित कीर्तिपताका कहा जा सकता है, जो वीरगाथा के अनुरुप वीररस की औजस्विता से पूर्ण है” (विद्यापति-अनुशीलन एवं मूल्यांकन खण्ड-१, पृ.३०)।
(च) गोरक्षविजय
गोरक्षविजय के रुप में विद्यापति ने एक नूतन प्रयोग किया है। यह एक एकांकी नाटक है। इसके कथनोपकथन में संस्कृत और प्राकृत भाषा का प्रयोग है। गीत कवि की मातृभाषा मैथिली में है। गोरक्षनाथ और मत्स्येन्द्रनाथ की प्रसिद्ध कथा पर यह नाटक आधारित है। कहते हैं कि महाकवि ने इस नाटक की रचना महाराजा शिवसिंह की आज्ञा से किया था।
(छ) मणिमंजरा नाटिका
यह एक लघु नाटिका है। इस नाटिका में राजा चन्द्रसेन और मणिमंजरी के प्रेम का वर्णन है।
हिंदी की पहली कहानी-एक टोकरी भर मिट्टी
हिंदी की पहली कहानी-एक टोकरी भर मिट्टी
बीते जमाने की कथा पत्रिका सारिका ने प्रत्येक भारतीय भाषा की आदि कहानी, पहली कहानी तलाश करने का बडा सार्थक प्रयत्न किया था। इसी क्रम में हिंदी की पहली कहानी के रूप में पं. माधपराव सप्रे की एक टोकरी भर मिट्टी को हिंदी की पहली कहानी के रूप में प्रस्थापित किया गया था। इससे पूर्व हिंदी की पहली कहानी के रूप में दुलाई वाली (बंग महिला राजेंद्र बाला घोष) से लेकर ग्यारह वर्ष का समय (आचार्य रामचंद्र शुक्ल) और 1915 ई. में प्रकाशित उसने कहा था तक भी इस चर्चा को खींचा गया था किंतु हिंदी की पहली मौलिक कहानी के रूप में अब पं. माधवराव सप्रे की कहानी एक टोकरी भर मिट्टी जो अप्रैल 1901 के छत्तीसगढ मित्र नामक पत्र में प्रकाशित हुई थी, को प्राय: सर्वसम्मत मान्यता प्राप्त हो गई है। हमारी दृष्टि से भी यही हिंदी की पहली मौलिक कहानी कही जा सकती है क्योंकि इसके बाद हिंदी कहानी का प्रवाह बह चला।
मध्यप्रदेश के ही देवीप्रसाद वर्मा ने सपे्र की इस कहानी को हिंदी की प्रथम मौलिक कहानी के रूप में पेश किया। यद्यपि देवी प्रसाद वर्मा ने पहले एक टोकरी भर मिट्टी को ही सप्रेजी की प्रथम मौलिक कहानी के रूप में प्रस्तावित किया, पर फिर समय को थोडा और पीछे खींचने के दुराग्रह में वे सप्रेजी की ही फरवरी 1900 ई. में प्रकाशित सुभाषित रत्न को उनकी पहली मौलिक कहानी बताते रहे। सप्रेजी की कहानियों की सूची इस प्रकार पेश की गई: सुभाषित रत्न जनवरी 1990 ई., एक टोकरी भर मिट्टी- अप्रैल, 1901 ई. और एक व्यंग्य जून 1990 ई. पर वास्तविकता यह है कि इनमें से एक टोकरी भर मिट्टी ही पं. माधव राव सप्रे की एकमात्र मौलिक कहानी है। जिस सुभाषित रत्न को देवी प्रसाद वर्मा ने प्रथम मौलिक कहानी के रूप में प्रस्थापित करना चाहा, वह अपने रूपबंध (फार्म) में कहानी में न होकर संस्कृत के सुभाषितों का महत्व प्रस्थापन है। वस्तुत: देवीप्रसाद वर्मा को यह स्वयं स्पष्ट नहीं हो पाया कि वे किसे सप्रेजी की मौलिक कहानी मानते हैं, इसलिए वे अपने आप में विरोधपूर्ण तर्क देते हैं। यदि एक ओर वे सुभाषित रत्न को उनकी प्रथम मौलिक कहानी मानते है तो दूसरी और यह भी कहते हैं, सवा साल की कथा यात्रा में उनके विभिन्न प्रयोग उनकी सही कहानी की तलाश को प्रमाणित करते हैं। यह बात भी अलग महत्व रखती है कि एक टोकरी भर मिट्टी लिखने के बाद सप्रेजी ने कोई भी कहानी नहीं लिखी। इससे हमारे कथन की ही पुष्टि मिलती है कि, एक टोकरी भर मिट्टी हिंदी की प्रथम मौलिक कहानी है।
जब हम किसी कृति, रचना या रचनाकार की प्रशंसा करने लगते हैं, तब रुकते कहां हैं! उसे सातवें आसमान से नीचे लाकर छोडते ही नहीं हैं। हिंदी आलोचना का यह फतवेबाजी का खास अंदाज रहा है। देवीप्रसाद वर्मा ऐसा ही एक टोकरी भर मिट्टी के विषय में कहते हैं सातवें दशक में कहानी का जो स्वरूप आज हमारे सम्मुख है, उसके सभी बीज इस कहानी में स्पष्ट हैं-नई कहानी के प्रबल पक्षधर कमलेश्वर की वाणी किसी सीमा तक प्रस्तुत कहानी में मिलती है। ऐसा कहकर पता नहीं देवी प्रसाद वर्मा कमलेश्वर को पीछे क्यों खींचना चाहते हैं? सातवें दशक की हिंदी की जिस कहानी को उसकी गुणवत्ता के आधार पर विश्व स्तर की कहानी के सम्मुख सगर्व रखा गया, उसे वे हिंदी की पहली कहानी में ही बीज रूप में पा रहे हैं। किसी कहानीकार को हिंदी का पहला कहानीकार सिद्घ करने के लिए ऐसे गैरजिम्मेदाराना कथनों की आवश्यकता नहीं हैं।
एक टोकरी भर मिट्टी एक प्रभावी कहानी हैं, जिसमें वृद्घा की मार्मिक उक्ति जमींदार की वृत्ति ही परिवर्तित कर देती है। एक गरीब विधवा अपनी पौत्री के साथ अपनी झोपडी में रहती थी। यह उसकी बहुत पुश्तैनी झोपडी थी उसका बेटा इस झोपडी में ही मर गया था। उसके बेटे की बहू भी पांच वर्ष की कन्या को छोडकर मर गई थी और अब यही एक बालिका उसका एकमात्र आधार थी। जमींदार का महल उस झोपडी के पास ही था। उसे अपने महल के अहाते को झोपडी के स्थान तक बढाने की इच्छा हुई। बुढिया से बहुत कहा गया पर उसने अपनी झोपडी नहीं छोडी। किन्तु जमींदार ने अपने बल के धन पर अदालत द्वारा झोपडी पर अपना कब्जा कर लिया। विधवा को वहां से निकाल दिया गया। वह कहीं पडोस में जा कर रहने लगी।
एक दिन जब जमींदार उस झोपडी की भूमि पर मजदूरों से काम करा रहा था तो वह बुढिया हाथ में एक टोकरी लेकर वहां पहुंची। उसने अपनी पोती का बहाना बना कर बहुत अधिक मिन्नतें करके एक टोकरी भर मिट्टी वहां से लेनी चाही, जिससे चूल्हा बनाकर उस पर रोटी बना कर अपनी पोती को खिला सके। जमींदार ने झोपडी में से एक टोकरी मिट्टी ले जाने की आज्ञा दे दी। झोपडी के भीतर पहुंचते ही वृद्धा स्मृतियों में खो गई, उसकी अश्रुधारा बह चली। किसी प्रकार अपने पर नियंत्रण रख कर उसने अपनी टोकरी मिट्टी से भर ली। फिर उसने जमींदार से प्रार्थना की कि उसकी टोकरी उठवा दे। जमींदार पहले तो नाराज होता है, पर वृद्धा के अनुनय विनय को मानकर उठवाने के लिए चल पडता है। पर टोकरी उससे टस से मस नहीं होती है। हार कर उसे कहना पडता है, यह टोकरी हमसे न उठाई जाएगी। यह सुन कर उस विधवा ने कहा, महाराज आप नाराज न हों, पर जब आपसे एक टोकरी भर मिट्टी नहीं उठाई जाती तो इस झोपडी में तो हजारों टोकरियां मिट्टी है, उसका भार आप जन्मभर नहीं उठा पाएंगे। बुढिया के ये मर्म वचन सुन कर जमींदार की आंखें खुल जाती हैं। उन्हें अपने किए हुए पर पछतावा होता है, वह क्षमा मांगते हुए उसे उसकी झोपडी लौटा देते हैं।
इस प्रकार यह संक्षिप्त-सी कथा बडे प्रभावी रूप से अपनी बात कहती है। एक छोटे-से-मर्म-कथन से असद् पात्र का हृदय-परिवर्तन करा कर उसे सद्कोटि में आदर्शात्मक समाधान के रूप में ला दिया जाता है। किंतु यह इतने कुशल रूप में दिया गया आदर्श है कि कहानी की संवेदना पर भारी नहीं पडता और न ही संस्कृत की नीति-कथाओं जैसा है। सब कुछ पूर्ण स्वाभाविक, सहज, रूप में घटित होता है।
एक महत्वपूर्ण बात यह है कि हिंदी की पहली ही कहानी में तीव्र सामाजिक संवेदना है। जमींदार के अत्याचार को कहानी समस्या के रूप में उठाती ही नहीं अपितु उसका प्रतिकार भी वृद्धा के माध्यम से कराती है। पहली ही कहानी सामाजिक अन्याय के विरोध में इस प्रकार खडी हो सकी, हिंदी कहानी की यह बहुत महत्वपूर्ण उपलब्धि है। बहुत चुन कर आवश्यक प्रसंगों का ही कहानी में नियोजन किया गया है, यह कहानीकार के कौशल का परिचायक है, कहानी की संक्षिप्ति में एक गहन और व्यापक संवेदना है।
कहानी की भाषा-शैली भी तत्कालीन कथा-लेखकों से कुछ अलग हटकर कहानी विधा की प्रवृत्ति के अनुरूप है। बोलचाल की सामान्य भाषा और ऋजु प्रवाहमयी यथा एक दिन श्रीमान उस झोपडी के आसपास टहल रहे थे और लोगों को काम बतला रहे थे कि इतने में वह विधवा हाथ में टोकरी लेकर वहां पहुंची। कहीं-कहीं अत्यन्त छोटे-छोटे बडे प्रभावी वाक्य हैं, विधवा झोपडी के भीतर गई या बेचारी अनाथ तो थी ही। पास-पडोस में जाकर कहीं रहने लगी। कहना न होगा कि मिजाज में यह भाषा कहानी के कितनी अनुकूल है, एक जीवनधर्मी गंध लिए हुए। कहानी के संवाद भी अत्यन्त चुस्त-दुरुस्त और स्वाभाविक बन पडे हैं।
कहानी शिल्प की दृष्टि से भी पुष्ट है। इस कहानी ने हिंदी कहानी को बहुत दूर तक प्रभावित किया। सुदर्शन की हार की जीत कहानी में भी बाबा भारती के ऐसे ही छोटे से मर्म कथन से डाकू का हृदय-परिवर्तन हो जाता है। इस प्रकार यह कहनी-कहानी-कला की दृष्टि से पर्याप्त निखरी हुई और प्रभावी है। (जागरण से)
रामधारी सिंह ‘दिनकर’ का काव्य:राष्ट्रीय सांस्कृतिक चेतना की अभिव्यक्ति
रामधारी सिंह ‘दिनकर’ के कृतित्व ने विचारकों का ध्यान जिन दिशाओं की ओर आकृष्ट किया है, वे हैं – उनकी ओजस्विता, गतिशीलता, गीतोन्मुखता, विद्रोही स्वर, सांस्कृतिक और राष्ट्रीय चेतना, मंगल कामना और विवेक की संयुक्ति तथा जनतांत्रिक विचार।
दिनकर के काव्य पर विचार करते समय कुछ प्रश्न उपस्थित होते हैं :-
–क्या दिनकर स्वच्छन्द धारा के कवि हैं ?
–क्या दिनकर ‘अज्ञेय’ के कथन के अनुरूप रोमांटिक राष्ट्रवादी हैं अथवा डॉ. नगेन्द्र के कथन के अनुरूप सांस्कृतिक राष्ट्रवादी कवि हैं?
–एक ही काल और परिस्थिति में जीवित रहकर भी दिनकर का काव्य पंत, प्रसाद, निराला और मैथिलीशरण गुप्त के काव्य से किस प्रकार भिन्न है और क्या उसे किसी वाद के घेरे में बाँधा जा सकता है ?
–दिनकर का चिन्तन केवल चिन्तन ही है या कोई समाधान भी प्रस्तुत करता है ?
स्वच्छन्दतावाद को प्राय: यूरोपीय रोमाण्टिसिज्म का समानार्थी माना जाता है। हिन्दी के स्वच्छन्दतावादी कवि जिन्हें ‘छायावादी कवि’ के नाम से अभिहित किया जाता है, भावप्रवणता एवं कल्पना अथवा अन्तर्दृष्टि के बल पर अन्त: सौन्दर्य का उद्धाटन करने में समर्थ रचनाकारों के रूप में अपनी पहचान स्थापित करते हैं। प्रकृति के कण-कण में आध्यात्मिक चेतना और सौन्दर्य का प्रसार देखने के कारण उन्हें सर्वात्मवादी एवं प्रकृत-रहस्यवादी भी कहा गया है। डॉ. हजारी प्रसाद द्विवेदी रोमांटिक साहित्य के मूल में ‘उन्मुक्त आवेगों की प्रधानता तथा कल्पना प्रवण अर्न्तदृष्टि’ स्वीकार करते हैं तो पं. नन्द दुलारे वाजपेयी रोमांटिक धारा के मूल में स्वतन्त्रता की लालसा और बन्धनों के त्याग की व्याप्ति मानते हैं। यहॉ यह भी कहना अभीष्ट है कि हिन्दी स्वच्छन्दतावादी काव्य में रोमानी प्रवृत्तियों की प्रधानता हैकिन्तु इसी काव्य धारा में सांस्कृतिक/राष्ट्रीय तत्व भी समाहित हैं। सांस्कृतिक एवं राष्ट्रीय पक्ष की प्रमुखता को लेकर हिन्दी में जिन कवियों ने रचनाएं की हैं, उनकी एक अलग उपधारा है और इस उपधारा के कवि हैं :- (1) माखन लाल चतुर्वेदी (2) सियाराम शरण गुप्त (3) बालकृष्ण शर्मा ‘नवीन’ (4) दिनकर ।
कामायनी जैसी गरिमामयी कृति की विषय-वस्तु और उसकी शिल्पविधि का प्रभाव ‘दिनकर’ पर है किन्तु उसके आगे वे नतशिर नहीं हुए। स्वच्छन्दतावाद से दिनकर की भिन्नता को संकेत रूप में इस प्रकार अभिव्यक्त किया जा सकता है कि दिनकर ने ‘बनफूल’ को प्रकृति प्रेमी के रूप में नहीं बल्कि जीवन दृष्टा के रूप में ‘साधारण’ का प्रतीक मानकर श्रध्दापूर्वक ग्रहण किया है। वर्ण्य विषय का यह विपर्यय मूलत: स्वच्छन्दतावाद से परिचालित होते हुए भी छायावादी काव्य रूढ़ियों के विपरीत पड़ा है। दिनकर की प्रारम्भिक रचनाओं में यह विपर्यय ‘विद्रोह’ के रूप में अंकित है। आरम्भिक काव्य में श्रृंगार और हुंकार की सम्मिलित भूमि देखी जा सकती है। ‘रेणुका‘ काव्य संकलन के आरम्भ में ‘युगधर्म’ और ‘जागृति-हुंकार‘ अभिव्यक्त है। ‘हिमालय के प्रति’ कविता में राष्ट्रीय-सांस्कृतिक चेतना की खुली अभिव्यक्ति हुई है। पुण्य भूमि पर कराल संकट आ पड़ा है और व्याकुल सुत तड़प रहे हैं। आह्वान है :-
कह दे शंकर से, आज करें, वे प्रलय नृत्य फिर एक बार,
सारे भारत में गूँज उठे, ‘हर-हर-बम’ का फिर महोच्चार।
‘रेणुका’ में रोमानी कविताएँ राष्ट्रीय चेतना को साथ लेकर चलीं पर ‘हुंकार’ में कवि अधिक आक्रोशी मुद्रा अपनाता है। ‘रसवंती’ में दिनकर आरम्भ से ही अधिक उदात्त भूमि पर खड़े दिखाई पड़ते हैं। तभी वे ‘उर्वशी’ में ‘कामाध्यात्म’ का प्रक्षेपण कर सके। दिनकर के प्रारम्भिक काव्य चरण में स्वच्छंदतावादी काव्य के दो तत्व-रोमानीवृत्तिा और राष्ट्रीय सांस्कृतिक चेतना मुख्य रूप से दिखाई पड़ते हैं किन्तु प्रारम्भ से ही वे अपने स्वतंत्र व्यक्तित्व के निर्माण के प्रति सचेत रहे और इसी कारण वे अधिक उदात्ता भूमियों पर संचरण करने में सफल हुए। दिनकर की 1955 ई. में प्रकाशित ‘नील-कुसुम’ को हिन्दी के कुछ विद्वानों ने प्रयोगवादी रचना माना है किन्तु मेरी दृष्टि में ‘नील-कुसुम‘ में संगृहीत रचनाएं प्रयोगवादी रचनाएं नहीं हैं- :
1.दिनकर जी यह नहीं मानते कि जिस नई संवेदना के वे वाहक हैं वह हिन्द के सामान्य पाठक को छू तक नहीं गई है।
2. इसमें संकलित कविताओं के विषय ‘अपरिचित, अप्रत्याशित और अनपेक्षित नहीं हैं।
3.प्रयोगवादी कविता मूलत: प्रश्न चिन्हों की कविता है, संदेह और आशंका की कविता है, नील कुसुम वैसी कृति नहीं हैं। उसमें परम्परा की सुरभि का अभाव नहीं है।
नील कुसुम की कविताएँ उनकी काव्य यात्रा की ऐसी आधारशिला है जिस पर वे ‘उर्वशी’ जैसी प्रबन्ध रचना का निर्माण कर सके। कुरुक्षेत्र एवं उर्वशी उनके विशेष चर्चित आख्यानकाव्य हैं तथा इन कृतियों में दिनकर ने अपनी गीतात्मक प्रवृत्तियों को जीवन के कतिपय वृहत्तर संदर्भों की ओर मोड़ा। कुरुक्षेत्र में युद्ध एवं शान्ति का संदर्भ एवं प्रसंग है, पर संघर्ष से बचने का समर्थन नहीं है। युद्ध एक तूफान है जो भीषण विनाश करता है पर जब तक समाज में शोषण, दमन, अन्याय मौजूद है तब तक संघर्ष अनिवार्य है :
युद्ध को तुम निन्द्य कहते हो, मगर,
जब तलक हैं उठ रही चिनगारियाँ
भिन्न स्वार्थो के कुलिश-संघर्ष की,
युद्ध तब तक विश्व में अनिवार्य है।
x x x x x x x x x x x
व्यक्ति का है धर्म तप, करुणा, क्षमा,
व्यक्ति को शोभा विनय भी, त्याग भी,
किन्तु उठता प्रश्न जब समुदाय का,
भूलना पड़ता हमें तप-त्याग को।
दिनकर ने वैयक्तिक ‘मुक्ति’ की अपेक्षा सामाजिक प्रवृत्ति की उपादेयता एवं सामाजिक समता को स्वीकार किया है :
शान्ति नहीं तब तक जब तक
सुख भाग न नर का सम हो
नहीं किसी को बहुत अधिक हो
नहीं किसी को कम हो
x x x x x x x x x x x
जब तक मनुज-मनुज का यह
सुखभाग नहीं सम होगा,
शामित न होगा कोलाहल,
संघर्ष नहीं कम होगा।
वे भाग्यवाद में विश्वास नहीं करते। वे वर्तमान जीवन की विपदाओं, कष्टों, अभावों का कारण विगत जीवन के कर्मों को मानकर हाथ पर हाथ रखकर बैठना नहीं चाहते। जंगल में जाकर तप एवं साधना के बल पर आत्म कल्याण करने में वे विश्वास नहीं रखते। वे मनुष्य के पुरुषार्थ को जगाने का उपक्रम करते हैं। वे समाज में रहकर संघर्ष, कर्म-कौशल, परिश्रम एवं उदयम बल से समस्याओं का समाधान में विश्वास करते हैं।
सब हो सकते तुष्ट, एक-सा /सब सुख पा सकते हैं,
चाहें तो पल में धरती को /स्वर्ग बना सकते हैं
”छिपा दिये सब तत्व आवरण /के नीचे ईश्वर ने
संघर्षों से खोज निकाला, /उन्हें उद्यमी नर ने।
‘ब्रह्मा से कुछ लिखा भाग्य में/ मनुज नहीं लाया है;
अपना सुख उसने अपने /भुजबल से ही पाया है।
”प्रकृति नहीं डर कर झुकती है /कभी भाग्य के बल से
सदा हारती वह मनुष्य के, /उद्यम से, श्रम जल से
उर्वशी में पुरूरवा-उर्वशी की पौराणिक कथा के माध्यम से चिरन्तन पुरुष तथा चिरन्तन नारी के प्रश्नों पर विचार किया गया है। ‘उर्वशी’ हिन्दी के विद्वानों में विवादमूलक कृती रही है। कुछ आलोचकों ने कहा है कि ‘उर्वशी’ में एक दुर्निवार कामुक अहं ने अस्वाभाविक ढंग से आध्यात्मिक मुकुट पहनने की कोशिश की हैं तो कुछ आलोचकों ने उर्वशी को ‘समाधिस्थ चित्त’ की देन बतलाया है। वास्तविकता यह है कि अध्यात्म की ओर मुड़ने वाला पुरूरवा भौतिक सुख से अतृप्त रहकर किसी अभौतिक सुख की ओर उच्छ्वसित भर ही है। उर्वशी सकल कामनाओं की प्रतीक है। अरविन्द की भविष्यत् युग के बारे में धारणा है कि मानव बौध्दिक स्तर से ऊपर उठेगा और संबुध्दि के संकेतों से गतिशील होकर ऊर्ध्व यात्रा करेगा।उर्वशी अपूर्णता से उत्तारोत्तर विकास की ओर की यात्रा है। उर्वशी में भौतिक स्तर पर अभिव्यंजित ”काम” का यदि आध्यात्मीकरण नहीं भी है तो कम से कम काम का उदात्तीकरण अवश्य है।
अंत में, निष्कर्ष यह है कि रामधारी सिंह ‘दिनकर’ के काव्य में राष्ट्रीय सांस्कृतिक चेतना की सषक्त अभिव्यक्ति हुई है। उन्होंने वैयक्तिक ‘मुक्ति’ की अपेक्षा समााजिक समस्याओं के समाधान पर बल दिया है । उन्होंने व्यकित के पुरुषार्थ को सचेत किया है, प्रेरित किया है, जाग्रत किया है, उद्बुद्ध एवं प्रबुध्द किया है। उनका विश्वास है कि व्यक्ति अपने श्रम, उद्यम एवं कर्म-कौशल से अपना भाग्य बना सकता है, अपनी तकदीर बदल सकता है। इस दृष्टि से रामधारी सिंह ‘दिनकर’ का काव्य आज भी प्रासंगिक है।