निराला का भाषागत संघर्ष

तुलसीदास के बाद हिन्दी साहित्य में निराला ही एक ऐसे कवि हैं जिन्होंने भारतीय काव्य मनीषा को ठीक से समझकर उसे युग अनुरूप प्रेरणादायी बनाया था। जैसे तुलसी ने फारसी के आतंक से हिन्दी को मुक्त कर भाषा के स्तर पर इतने प्रयोग किए कि वह हिन्दी साहित्य के लिए उपयोगी बन गयी। उन्होंने संस्कृत की कठिन शब्दावली को सहज और जनप्रिय छन्दों में ढाला यही कारण है कि रामचरित मानस के प्रत्येक काण्ड का प्रारम्भ वे बोधगम्य संस्कृत में करते हैं। निराला ने भाषा और छन्द के स्तर पर हिन्दी में जो प्रयोग किए उन्हें तुलसीदास के प्रयोग से जोडकर देखना उचित है। भारतेन्दु बाबू हरिश्चन्द्र के युग के बाद और विशेषकर सरस्वती के प्रकाशन का वह कालखण्ड जो आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी युग के नाम से जाना जाता है। निराला भी इसी कालखण्ड में लेखन प्रारम्भ करते हैं। द्विवेदी जी जिस हिन्दी को विकसित करने में लगे रहे महाप्राण निराला जैसे अनेक साहित्यकारों और साहित्य प्रेमियों ने अपना सर्वस्व अर्पण किया। उसी हिन्दी को आगे बढाने का दायित्व वर्तमान पीढयों का है। यह पितृऋण हमारे ऊपर है। इससे उऋण हुए बिना न तो हमारी मुक्ति है और न ही राष्ट्र की।
हिन्दी जिस रूप में आज हमारे सामने है उसमें निराला का बहुत बडा योगदान है। हीन ग्रंथि से पीडत हिन्दी समाज को अपनी भाषा और साहित्य पर इसलिए स्वाभिमान होना चाहिए क्योंकि उसके पास विश्व का सबसे बडा कवि तुलसीदास है। उन्हें इसलिए भी गौरव होना चाहिए क्योंकि उनके पास सूर्यकान्त त्रिपाठी निराला जैसा साहित्यकार और पत्रकार उपलब्ध है। लेकिन यह दुःखद पक्ष है कि आज हिन्दी भाषी समाज इन मूल्यवान बिन्दुओं पर विचार नहीं कर रहा है। हमारा सोच इस स्तर तक कैसे पहुँच गया। इस पर विचार करते हुए निराला ने ”सुधा” पत्रिका के सम्पादकीय में सन् १९३५ में लिखा था – ”हिन्दी साहित्यकारों ने हिन्दी के पीछे तो अपना सर्वस्व अर्पण कर दिया है पर हिन्दी भाषियों ने उनकी तरफ वैसा ध्यान नहीं दिया – शतांश भी नहीं। वे साहित्यिक इस समय जिन कठिनता का सामना कर रहे हैं, उसे देखकर किसी भी सहृदय की आँखों में आँसू आ जाएँगे। बदले में उन्हें अनधिकारी साहित्यिकों से लाँछन और असंस्कृत जनता से अनादर प्राप्त हो रहा है। (सुधा जून ३५ समां टि. २)
निराला का जन्म २१ फरवरी सन् १८९९ में महिषादल में हुआ था। यह स्थान आज के बंगलादेश में आता है। यह समय देश की आजादी के लिए संघर्ष का समय था। अंग्रेज जान-बूझकर भारतीय संस्कृति और भाषा को नष्ट करने में लगे हुए थे। अंग्रेजों की रणनीति का यह महत्त्वपूर्ण हिस्सा रहा है कि वे जहाँ भी शासन करते थे, वहाँ की भाषाओं को नष्ट कर देते थे। डॉ. रामविलास शर्मा लिखते हैं ”साम्राज्यवाद से जहाँ भी बन पडा, उसने न केवल भाषाओं का, वरन् उन्हें बोलने वाली जातियों का भी नाश किया। अमरीकी महाद्वीपों में अजतेक और इंका जनों की सभ्यताएँ अत्यन्त विकसित थीं। अब वहाँ उनके ध्वंसावशेष ही रह गए हैं। रेड इंडियन जनों से उनकी भूमि छीन ली गयी, अमरीकी विश्वविद्यालयों में उनकी भाषाएँ शिक्षा का माध्यम नहीं है। अमरीकी नीग्रो अंग्रेजी बोलते हैं, उनके पुरखे कौन सी भाषा बोलते थे, यह वे नहीं जानते। दक्षिणी अफ्रिका, रोडेशिया, आस्ट्रेलिया, न्यूजीलैण्ड, जहाँ भी साम्राज्यवादियों से बन पडा उन्होंने गुलाम बनाए हुए देशों के मूल निवासियों का नाश किया, उनकी भाषाओं और संस्कृतियों का दमन किया।” (निराला की साहित्य साधना, भाग-२, पृष्ठ १९)
एक महान् चिन्तक की तरह निराला अपने समय की स्थिति पर निगाह रखे हुए थे तथा अपनी कविताओं और लेखों के द्वारा भारतीय जनमानस को यह बता रहे थे कि अंग्रेजी की पक्षधरता उन्हें कहाँ ले जाएगी। सन् १९३० में सुधा के सम्पादकीय में उन्होंने लिखा, ”भारतवर्ष अंग्रेजों की साम्राज्य लालसा सर्वप्रधान ध्येय रहा है। यहाँ की सभ्यता और संस्कृति अंग्रेजों की सभ्यता और संस्कृति से बहुत कम मेल खाती थी, पर सात समुद्र पार से आकर इतने विस्तृत और इतने सभ्य देश में राज्य करना जिन अंग्रेजों को अभीष्ट था, वे बिना अपनी कूटनीति का प्रयोग किए कैसे रह सकते थे ‘ अंग्रेजों की नीति हुई – भारत के इतिहास को विकृत कर दो और हो सके तो उसकी भाषा को मिटा दो। चेष्टाएँ की जाने लगी। भारतीय सभ्यता और संस्कृति तुलना में नीची दिखायी जाने लगीं। हमारी भाषाएँ गँवारू असाहित्यिक और अविकसित बताई जाने लगी। हमारा प्राचीन इतिहास अंधकार में डाल दिया गया। बकायदा अंग्रेजी की पढाई होने लगी। इस देश का शताब्दियों से अंधकार में पडा हुआ जन समाज समझने लगा कि जो कुछ है, अंग्रेजी सभ्यता है, अंग्रेजी साहित्य है और अंग्रेज हैं।”
निराला हिन्दी और संस्कृत के लिए निरन्तर संघर्ष करते रहे ”अनामिका” नाम की कविता संग्रह में ”मित्र के प्रति” कविता में उनके भाव देखे जा सकते हैं –
जला है जीवन यह आतप में दीर्घकाल
सूखी भूमि, सूखे तरु, सूखे शिक्त आलाव
बन्द हुआ गूँज, धूलि धूसर हो गए कुंज,
किन्तु पडी व्योम-उर बन्धु, नील-मेघ-माल।
जो काम देश की आजादी के लिए क्रांतिकारी लोग अपने स्तर पर कर रहे थे। साहित्य और भाषा के स्तर पर यही संघर्ष निराला लड रहे थे। और इससे भी अधिक वे दोनों स्तरों पर काम कर रहे थे। पूरे स्वतंत्रता आंदोलन में किसानों का जो एक मात्र आंदोलन हुआ था। इस आंदोलन में निराला ने महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई थी। निराला के जीवन पर केन्द्रित पुस्तक ”निराला की साहित्य साधना भाग-१,२ एवं ३ में डॉ. रामविलास शर्मा ने निराला के भाषागत संघर्ष का सुन्दर चित्रण किया है। इस पुस्तक के विषय में कहा जाता है कि किसी कवि पर केन्द्रित विश्व की उत्कृष्ट रचना है। डॉ. रामविलास शर्मा लिखते हैं ”जला है जीवन यह – निराला का जीवन जला है, हिन्दी का जीवन जला है। निराला के मन की आशाएँ, उल्लास, विषाद्, निराशा, वीरतापूर्ण कर्म, त्रास, दुःस्वप्न यह सब कुछ कहीं न कहीं हिन्दी के इस आन्तरिक संघर्ष से जुडा हुआ है। निराला के बिना हिन्दी का यह संघर्ष नहीं समझा जा सकता, इस संघर्ष के बिना निराला नहीं समझे जा सकते, न व्यक्तित्व न कृतित्व। निराला का जीवन हिन्दीमय है, हिन्दी उनके लिए साहित्य साधना का माध्यम है अपने में यह साध्य है। भारत देश और इस देश की जनता की तरह निराला की आस्था, श्रद्धा, सर्वाधिक प्रेम का अधिष्ठान है भाषा। असह्य पीडा के क्षणों में वह सारा दुःख ”यह हिन्दी का प्रेमोपहार कह कर स्वीकार करते हैं।” (निराला की साहित्य साधना भाग-२, पृष्ठ १७२)
हिन्दी को लेकर निराला उस समय के सबसे बडे नेताओं से भी बातचीत कर अपनी चिन्ताएँ व्यक्त करते रहे। उन्होंने महात्मा गाँधी से भी हिन्दी के विकास को लेकर बातचीत की। गाँधी जी हिन्दी के प्रबल पक्षधर थे। स्वतंत्रता आन्दोलन में लगे हुए नेताओं में गाँधी ही एक ऐसे व्यक्ति थे जो राजनैतिक आजादी को भाषागत आजादी से जोडकर देख रहे थे और यह कह रहे थे – ”मेरा नम्र लेकिन दृढ अभिप्राय है कि जब तक हम भाषा को राष्ट्रीय और अपनी भाषाओं प्रान्तों में उनका योग्य स्थान नहीं देंगे, तब तक स्वराज्य की सब बातें निरर्थक हैं। (सन् १९३५ में इन्दौर म दिए गए भाषण से) गाँधी के इसी देश में आज का ज्ञान आयोग यह मानता है कि बिना अंग्रेजी के राष्ट्र का विकास असम्भव है। ज्ञान आयोग और चाहे जो कुछ भी सोचे किन्तु उसका यह सोच गाँधी और निराला की भाँति राष्ट्र के उन्नयन की बात नहीं सोच रहा है। इसी भाँति वे पंडित जवाहरलाल नेहरू से भी हिन्दी के चिन्तन को लेकर आमने-सामने हुए। इस घटना का चित्रण करते हुए डॉ. रामविलास शर्मा ने लिखा है। (यह चित्रण उस समय का है जब रावी नदी के तट पर पूर्ण स्वाधीनता की प्रतिज्ञा ली गई थी जिसकी खुशी में पूरे देश में कार्यक्रम आयोजित हो रहे थे जिनमें भाग लेने के लिए राष्ट्रीय नेता पूरे देश का भ्रमण कर रहे थे)” जनता से विदा होने और गाडी के चलने पर जब नेहरू जी भीतर आकर बैठे तब निराला ने शुरू किया – ‘आपसे कुछ बातें करने की गरज से अपनी जगह से यहाँ आया हुआ हूँ।’
नेहरू ने कुछ न कहा। निराला ने अपना परिचय दिया। फिर हिन्दुस्तानी का प्रसंग छेडा, सूक्ष्म भाव प्रकट करने में हिन्दुस्तानी की असमर्थता जाहिर की। फिर एक चुनौती दी – ‘मैं हिन्दी के कुछ वाक्य आपको दूँगा जिनका अनुवाद आप हिन्दुस्तानी जबान में कर देंगे, मैं आपसे प्रार्थना करता हूँ। इस वक्त आपको समय नहीं। अगर इलाहाबाद में आप मुझे आज्ञा करें, तो किसी वक्त मिलकर मैं आपसे उन पंक्तियों के अनुवाद के लिए निवेदन करूँ।’
जवाहरलाल नेहरू ने चुनौती स्वीकार न की, समय देने में असमर्थता प्रकट की। निराला ने दूसरा प्रसंग छेडा। समाज के पिछडेपन की बात की, ज्ञान से सुधार करने का सूत्र पेश किया। हिन्दू-मुस्लिम समस्या का हल हिन्दी के नये साहित्य में जितना सही पाया जायगा, राजनीतिक साहित्य में नहीं – निराला ने अपने व्यावहारिक वेदान्त कर गुर समझाया।
जवाहरलाल नेहरू डिब्बे में आई बला को देखते रहे, उसे टालने की कोई कारगर तरकीब सामने न थी। डिब्बे में आर.एस. पंडित भी थे। दोनों में किसी ने बहस में पडना उचित न समझा। लेकिन निराला सुनने नहीं, सुनाने आये थे। बनारस की गोष्ठी में जवाहरलाल के भाषण पर वह ‘सुधा’ में लिख चुके थे, अब वह व्यक्ति सामने था जो अपने हिन्दी-साहित्य संबंधी ज्ञान पर लज्जित न था, जो स्वयं अंग्रेजी में लिखता था, जो हिन्दी वालों को क्या करना चाहिए, उपदेश देता था। (इससे पूर्व पंडित नेहरू बनारस के एक सम्मेलन में कह आए थे कि हिन्दी साहित्य अभी दरबारी परम्परा से नहीं उबरा है। यहीं पर उन्होंने यह भी कहा था कि अच्छा होगा कि अंग्रेजी साहित्य की कुछ चुनी हुई पुस्तकों का हिन्दी में अनुवाद करवाया जाए, इस पूरे प्रसंग पर ही निराला, पंडित जवाहरलाल नेहरू से बात कर रहे थे)।
निराला ने कहा – ‘पंडित जी, यह मामूली अफसोस की बात नहीं कि आप जैसे सुप्रसिद्ध व्यक्ति इस प्रान्त में होते हुए भी इस प्रान्त की मुख्य भाषा हिन्दी से प्रायः अनभिज्ञ हैं।’ किसी दूसरे प्रान्त का राजनीतिक व्यक्ति ऐसा नहीं। सन् १९३० के लगभग श्री सुभाष बोस ने लाहौर के विद्यार्थियों के बीच भाषण करते हुए कहा था कि बंगाल के कवि पंजाब के वीरों के चरित्र गाते हैं। उन्हें अपनी भाषा का ज्ञान और गर्व है। महात्मा गाँधी के लिए कहा जाता है कि गुजराती को उन्होंने नया जीवन दिया है। बनारस के जिन साहित्यिकों की मण्डली म आपने दरबारी कवियों का उल्लेख किया कि, उनमें से तीन को मैं जानता हूँ। तीनों अपने-अपने विषय के हिन्दी के प्रवर्तक हैं। प्रसाद जी काव्य और नाटक-साहित्य के, प्रेमचन्द जी कथा-साहित्य के और रामचन्द्र जी शुक्ल आलोचना-साहित्य के। आप ही समझिए कि इनके बीच आपका दरबारी कवियों का उल्लेख कितना हास्यास्पद हो सकता है। एक तो हिन्दी के साहित्यिक साधारण श्रेणी के लोग हैं, एक हाथ से वार झेलते, दूसरे से खिलते हुए, दूसरे आप जैसे बडे-बडे व्यक्तियों की मैदान में वे मुखालिफत करते देखते हैं। हमने जब काम शुरू किया था, हमारी मुखालिफत हुई थी। आज जब हम कुछ प्रतिष्ठित हुए, अपने विरोधियों से लडते, साहित्य की दृष्टि करते हुए, तब किन्हीं मानी में हम आपको मुखालिफत करते देखते हैं। यह कम दुर्भाग्य की बात नहीं, साहित्य और साहित्यिक के लिए। हम वार झेलते हुए सामने आए ही थे कि आपका वार हुआ। हम जानते हैं कि हिन्दी लिखने के लिए कलम हाथ में लेने पर, बिना हमारे कहे फैसला हो जायगा कि बडे से बडा प्रसिद्ध राजनीतिज्ञ एक जानकार साहित्यिक के मुकाबले कितने पानी में ठहरता है। लेकिन यह तो बताइए, जहाँ सुभाष बाबू, अगर मैं भूलता नहीं, अपने सभापति के अभिभाषण में शरत्चन्द्र के निधन का जिक्र करते हैं, वहाँ क्या वजह है जो आपकी जुबान पर प्रसाद का नाम नहीं आता। मैं समझता हूँ, आपसे छोटे नेता भी सुभाष बाबू के जोड के शब्दों में कांग्रेस में प्रसाद जी पर शोक-प्रस्ताव पास नहीं कराते। क्या आप जानते हैं कि हिन्दी के महत्त्व की दृष्टि से प्रसाद कितने महान् हैं ‘
जवाहरलाल एकटक निराला को देखते रहे। ऐसा धाराप्रवाह भाषण सुनाने वाले जीवन में ये उन्हें पहले व्यक्ति मिले थे, अगला स्टेशन अभी आया न था। सुनते जाने के सिवा चारा न था।
निराला को प्रेमचन्द याद आये। बोले – ‘प्रेमचन्द जी पर भी वैसा प्रस्ताव पास नहीं हुआ जैसा शरत्चन्द्र पर।’
नेहरू ने टोका – ‘नहीं, जहाँ तक याद है, प्रेमचन्द जी पर तो एक शोक-प्रस्ताव पास किया गया था।’
निराला ने अपनी बात स्पष्ट की – ‘जी हाँ, यह मैं जानता हूँ, लेकिन उसकी वैसी महत्ता नहीं जैसी शरत्चन्द वाले की है।’
आखिर अयोध्या स्टेशन आ गया। निराला ने आखिरी बात कही – ‘अगर मौका मिला तो आपसे मिलकर फिर साहित्यिक प्रश्न निवेदित करूँगा।’
नेहरू ने इसका कोई उत्तर न दिया।
नमस्कार करके निराला उतरे और अपने डिब्बे में आ गये। प्लेटफार्म महात्मा गाँधी की जय, पं. जवाहरलाल नेहरू की जय से गूँजता रहा। ( निराला की साहित्य साधना, भाग-१, पृष्ठ क्रमांक ३१८ से ३२०)।
निराला के लिए न तो कोई व्यक्ति बडा था और न ही पद। उनके व्यक्ति की यह सबसे बडी ताकत थी कि वे किसी से डरते भी न थे। भाषा और साहित्य के लिए किसी से भी भिड सकते थे और भिडे भी।
वर दे वीणा वादिनी ………. । सरस्वती वन्दना से हमारे सांस्कृतिक कार्यक्रम शुरू होते हैं। इस वन्दना में प्रयुक्त नवगति, नवलय, तालछन्द नव ……. नव पर नव स्वर दे माँगने वाले इस अमर गायक की वेदना अभी भी हिन्दी भाषी समाज और हिन्दी के पक्षधर पूरी तरह नहीं समझ सके हैं। निराला ने माँ सरस्वती से सारी नवीनता हिन्दी के लिए ही माँगी थी क्योंकि उनके लिए जीवन का एकमात्र उद्देश्य हिन्दी भाषा और उसका साहित्य था। अपने जीवन की संध्या में वे कहते हैं – ”ताक रहा है भीष्म सरों की कठिन सेज से”। निःसन्देह निराला हिन्दी के भीष्म पितामह थे। इन प्रसंगों में हिन्दी को सम्मानजनक स्थान दिलाने के लिए महाभारत अभी शेष है। इससे लडते रहना ही निराला के प्रति सादर कृतज्ञता होगी।