तुलसीदास की प्रासंगिकता

जब तक मानव जीवन में रूढ़िवाद बना रहेगा तब तक तुलसीदास प्रासंगिक रहेंगे. तुलसीदास की मुख्य समस्या थी कलियुग, एवं मुख्य विकल्प था रामराज्य. कलियुग अर्थात “कलि बारहि बार दुकाल परै, बिन अन्न दु:खी सब लोक मरै“. कलि की पहचान भूख, गरीबी और मृत्यु हो. यह कोई दैवी प्रकोप नहीं है. यह समाज की भौतिक अवस्था है जिसके लिए मुख्यत: सत्ताधिकारी ही जिम्मेदार हैं. “जासु राज प्रिय प्रजा दुखारी, सो नृप अवस नरक अधिकारी”.
तुलसीदास को शुद्रविरोधी और नारीविरोधी भी कहा जाता है, लेकिन इसे स्वीकार करना मुश्किल है. शेक्सपीयर के नाटकों में नारी को डायन कह कर मारा जाता है. वे उसकी भर्त्सना भी करते हैं और कहीं समर्थन भी. तुलसीदास भी नारी वेदना को समझने वाले महान संत थे. “कत विधि सृजि नारि जग माही, पराधीन सपनेहु सुख नाहीं“. पातिव्रत धर्म स्त्री की पराधीनता है.जब तक नारी पराधीन रहेंगी तुलसी प्रासंगिक रहेंगे. ऐसा समाज था जहां पुरूषों के लिए बंधन नहीं पर नारी के लिए था. अर्थात संबंधों की विषमता थी. इस विषमता को तुलसी ने रेखांकित किया. समाज के संबंधों में विषमता का अर्थ है दासता. सामाजिक बुराईयां इन्हीं विषमता से पैदा होती है. इस विषमता का जवाब था राम का आचरण. मानव संबंधों में समानता की खोज तुलसीदास रामचरित के रूप में करते हैं. एक पत्नीव्रता रूप. राम के सर्वप्रिय पात्र हैं निषाद और शबरी. निषाद लोक, वेद, शास्त्र और समाज सारे दृष्टि से इतने नीच थे कि जिसकी छाया पर जाए तो आदमी भ्रष्ट हो जाय. वह राम के अनन्य सखा हैं. सामंती समाज में जो सबसे अधिक प्रताड़ित है राम उन सबके निकट हैं. इसलिए तुलसीदास प्रासंगिक हैं. 500 वर्ष पहले जो समस्यायें तुलसीदास के समय थी वह आज भी है. अत: तुलसीदास के संघर्ष से भी हमारा संबंध है.
भक्त कवियों का आत्मानुभव उनके ईश्वर को ढालता है, इसलिए संत कवियों के नायक राजपाट से दूर सामान्य जीवन में साधारण रूप में ही रमते हैं. तुलसी के राम भी राजाओं या सामंतों के रूप में ढले नहीं हैं. राम सारे जीवन मूल्य के एकमात्र प्रतीक हैं जिनकी भक्ति में भक्त का गौरव ऊँचा हो जाता है.
मर्यादा पुरूषोत्तम जगह जगह मर्यादा तोड़ते हैं और नए मर्यादा का सूत्रपात कर उसके पुरूषोत्तम बनते हैं. राम अपने भक्त के लिए अधीर होते हैं. पहली बार ऐसा भगवान दिखाई देता है जो अपने भक्त के लिए अधीर होते हैं. इसी का परिणाम होता है कि भक्त भगवान को अपने वश में कर लेते हैं. हनुमान इसके उदाहरण हैं. भगवान भक्त के वश में आ जाते हैं. इस वश में आने का मुख्य कारण प्रेम है. भक्ति का मतलब ही है प्रेम. यही भक्ति साधारण और हीन मनुष्यों को आत्मगौरव प्रदान करने का माध्यम बनता है. मनुष्य की श्रेष्ठता इस भक्ति का दर्शन है.
तुलसी का आत्मानुभव राम से जुड़ता है. भक्ति इन कवियों के सामाजिक अपमान के भीतर से पैदा हुई शक्ति है. जब सामाजिक उत्पीड़न का विकल्प समाज में न हो तब उसका विकल्प दर्शन या आध्यात्म में होता है. इसलिए इसे आधार बनाकर भक्तों ने अपने अनुभव के सांचे में अपने ईश्वर को ढाला. चूंकि भक्त मनुष्य थे इसलिए उनके मन में कमज़ोरियां भी थी, ईश्वर इन कमजोरियों से दूर थे इसलिए वे उनके आदर्श थे. ईश्वर के रूप में जिस आदर्श की खोज भक्त कवि करते हैं उसी अनुरूप वे संघर्ष करते हैं. अपने माता-पिता के प्रति निंदा का भाव तुलसीदास के मन में है लेकिन राम के मन में नहीं. भक्ति यदि एक सिरे पर सामाजिक विद्रोह है तो दूसरे स्तर पर आत्मसाधना भी. भक्ति सामाजिक भी है और व्यक्तिगत भी. भक्ति एक ऐसी प्रेरणा है जिसने पूरे मनुष्य को उसकी सम्पूर्णता में पाने की कोशिश की. “जो सहजै विषया तजै” यही सहज साधना है कबीर की. सहज होना साधना चीज़ है.
वाल्मीकि की कथा का प्राण था शोक. शोक से श्लोक पैदा होता था. भवभूति की आत्मा करूणा थी, तुलसीदास की आत्मा संघर्ष थी जो राम के पूरे जीवन में व्याप्त है. करूणा, शोक, संघर्ष राम की कथा का सार है. वह भी जीवन व्यापी रूप में किसी ईश्वर में नहीं है. ये तीनों मनुष्य की परिस्थितियां हैं. मानव जीवन है. इसलिए राम का तादात्म्य बैठता है. राम कथा में व्यक्त वेदना मनुष्य के जीवन व संबंधों से पैदा होती है. वेदना अनैतिक आदमी में उत्पन्न नहीं होती.
पहले देवकथा देववाणी में लिखी जाती थी, तुलसी व सभी भक्त कवियों ने बोलचाल की भाषा में ईश की अराधना की. सामाजिक, धार्मिक या आध्यात्मिक के साथ भाषायी रूढ़िवाद से भी भक्तों ने संघर्ष किया. भारत में संस्कृत के वर्चस्व के विरूद्ध धर्म रूप में ही सही बोलचाल की भाषा सामने आई. सांस्कृतिक निरंतरता का प्रतीक राम के रूप में आया, वाल्मीकि, तुलसी, निराला तक. बंगाल के कृत्तिवास, दक्षिण में कंबन, महाराष्ट्र में रामदास और उत्तर में तुलसी ने एक समय में राम की कथा लिखी. राम उस समय के हिन्दुस्तान की राष्ट्रीय एकता के प्रतीक हैं. एटकिन्स नामक पादरी ने 18वीं सदी में रामचरित मानस का अनुवाद किया, रूस के वारानिक्कोव ने 20वीं सदी में रूसी भाषा में मानस का अनुवाद किया. वे नास्तिक थे. भारत की सांस्कृतिक छवि तुलसी के मानस से बनती है. तुलना करने पर मानस लैटिन और यूनानी भाषा के सर्वमान्य ग्रंथों से श्रेष्ठ सिद्ध होता है. भक्ति की अंतर्राष्ट्रीय संदर्भ स्रोत भी इस युग में जुड़ा है. 
सारे भक्त कवि किसान और कारीगर समुदाय के लोग थे. भक्ति नि:स्वार्थ होता है. समाज में नए वर्गों की नये सामाजिक शक्तियों की गतिशीलता से भक्ति पैदा होती है. कारीगरों का उत्थान व्यापार की उन्नति से जुड़ा है. व्यापार एक सामाजिक शक्ति है. पूराने सामंती ढांचे के भीतर व्यापार की शक्तियों के विकास ने गति पैदा की. पूराने सामंती ढांचे को इस गति ने कमजोर किया. इन सभी शक्तियों ने अपने साथ नयी भाषा और नयी संस्कृति पैदा की.
तुलसी शंकर के मायावाद का खंडन करते हैं और जगत का सत्य मानते हैं. क्योंकि राम यदि हैं तो वह इस संसार से परे नहीं हो सकते. तुलसी के अनुसार ब्रह्म रूप में बंधा है और उसके रूप की कोई सीमा नहीं है.”हरि व्यापे सर्वत्र समाना, प्रेम से प्रकट होई मैं जाना”. प्रत्यक्ष और परोक्ष ब्रह्म दोनों एक हैं. “सगुन अगुन दुई ब्रह्म सरूपा” तुलसी ब्रह्म को प्रणाम करने के लिए ब्रह्म में नहीं संसार में जाते हैं. अतीत की बहुत सी दार्शनिक प्रणालियां और वर्तमान समाज की उपासना पद्धतियां तुलसी में मिल गई थी. अपने विश्वास को कायम रखना समन्वयवाद नहीं है. विचारों और पद्धतियों का प्रभाव समाज में एकता लाने की आवश्यकता के कारण हुआ.

कबीर की समाज सम्बन्धी विचारधारा

डॉ० मेराज अहमद

भारत के इतिहास का मध्यकाल सामाजिक संक्रांति का युग था। समाज  संगठन की दृष्टि से अस्त-व्यस्त था। धर्म दर्शन और संस्कृत की अनेक धाराएँ परस्पर संघर्षरत थीं। हिन्दू-समाज भेदभाव पर आधारित शास्त्रों द्वारा अनुमोदित वर्ण व्यवस्था से संचालित होता था परन्तु विद्रोह के स्वर भी उठते थे। बौद्धों, जैनों, नाथों और सिद्धों इत्यादि की विद्रोह में महती भूमिका होती थी। हिन्दू समाज के समानान्तर मुस्लिम समाज का धर्म इस्लाम जो कि सैद्धान्तिक आधार पर समानता का पोषक होते हुए विषमता की भावना से ग्रस्त हो रहा था। बाह्याचारों ने एक सीमा तक इसे अपने मूल से भटका दिया था। यद्यपि इनके बीच भी सूफी संत विद्रोही तेवर के साथ आ खड़े हुए थे परन्तु आम जनता कर्मकाण्डों द्वारा संचालित धर्म के दुष्चक्र में उलझी हुई थी। ऐसे समय में कबीर ने जटिल परिस्थितियों के मध्य अपनी स्वतंत्रा दृष्टि मानवतावादी चिन्तन पद्धति और दृढ़ संकल्पना शक्ति के द्वारा समाज में व्याप्त विषमता का न केवल विरोध ही किया अपितु अपनी वाणियों के माध्यम से समतामूलक समाज के लिए आधारभूमि भी प्रस्तुत की।सामाजिक विश्रृंखलता का केन्द्र व्यक्ति के लिए उच्च आदर्श उपस्थित करते हुए कबीर कहते हैं कि व्यक्ति को गुण ग्राही और आत्मज्ञानी होना चाहिए । यथा – तरूवर तास बिलविये, बारह मास फलंत।/सीतल छाया गहर फल, पंछी केलि करंत॥१कबीर के अनुसार वास्तव में व्यक्ति वही है जो सामाजिक साम्य, स्थापना हेतु अपना सर्वस्व उत्सर्ग कर दे। द्रष्टव्य है – तन मन सीस समरपन कीन्हां, प्रगत जोति तंह आतम लीनां।२इसके अतिरिक्त कबीर ने व्यक्ति के आदर्श के रूप में निस्पृहता अहंकारहीनता एवं निर्विषयता इत्यादि के महात्म्य का उल्लेख किया है। देखिए – निरवेरी निहः कांमता, सांई सेती नेह।/विषिया सू न्यारा रहे, संतनि का अंग एह॥३सिद्धान्ततः नारी को व्यक्ति से इतर नहीं माना जाना चाहिए, परन्तु व्यवहार में नारी का विषय पृथक्‌ रूप से ही विचारणीय होता है। उल्लेखनीय है कि कबीर की नारी निन्दा सर्वविदित है परन्तु उसी के साथ सीमित संदर्भों में समाज में उनकी आदर्श नारी संबंधी विचारधारा के भी दर्शन होते हैं। वह नारी के लिए त्याग, निष्ठा, पतिव्रत एवं सतीत्व की आवश्यकता पर बल देते हुए कहते हैं कि उसे अपने पति के लिए जो कि उसके प्रेम का आधार होता है सब कुछ अर्पित कर देना चाहिए। यथा – इस मन का दीया करों, धरती मैल्यूं जीव।/लोही सींचो तेज ज्यूं, चित दैखौं तित पीव॥४ध्यान देने योग्य तथ्य यह है कि कबीर जैसा विद्रोही कवि नारी समाज के प्रति समाज के अन्य अंगों जैसे स्वस्थ मानसिकता नहीं रखता है, परन्तु उपर्युक्त संदर्भ के माध्यम से भारतीय समाज के पारिवारिक संबंधों में पति-पत्नी के संबंधों की पवित्राता का स्वरूप अवश्य सामने आ जाता है।
विद्या ग्रहण करने वाला विद्यार्थी कहलाता है। समाज में विद्यार्थी की भूमिका अत्यन्त महत्त्वपूर्ण होती है। विद्यार्थी समाज का वह आवश्यक अंग हैं जो भविष्य के समाज की रूपरेखा का नियन्ता होता है। यद्यपि वर्तमान में विद्या और विद्यार्थी दोनों से संबंधित मान्यताएँ बदल चुकी हैं, परन्तु मध्यकाल तक शिक्षा के मूल उद्देश्यों में से एक एवं मुख्य उद्देश्य अध्यात्म और मानवानुकूल श्रेष्ठ गुणों का विकास था। गुरु एवं शिष्य संबंध सभी मानवीय संबंधों से उच्च एवं पवित्रा माने गये। कबीर तो इस संबंध की श्रेष्ठता के प्रबल समर्थक के रूप में सामने आते हैं। यथा – सतगुरु की महिमा अनन्त, अनन्त किया उपकार।/लोचन अनन्त उघाड़िया, अनन्त दिखावणहार।५विद्यार्थी को सातात्त्विक गुरु प्राप्त करने के लिए अपना सम्पूर्ण अर्पित कर देने की बात करते हुए कबीर कहते हैं कि – मेरा मुझ में कुछ नहीं, जो कुछ है सो तेरा।/ तेरा तुझको सौंपता, क्या लागे है मेरा॥६कबीर ने गुरु शिष्य दोनों के लिए श्रेष्ठता स्वनियंत्रण समदर्शिता एवं आत्म नियंत्रण को आवश्यक मानते हुए समाज के सर्व कल्याण के लिए सहायक माना है।यद्यपि साम्प्रदायिकता का जो भयावह स्वरूप समसामयिक संदर्भों में दृष्टिगत होता है वह आधुनिक युग का रूप है।
मध्यकाल में साम्प्रदायिक वैमनस्व कारण साम्प्रदायिक श्रेष्ठता की होड़ की मानसिकता पर आधारित थी। वह कभी तो दो धर्मों के मध्य की होड़ के कारण दृष्टिगत होती थी तो कभी एक ही धर्म के विविध सम्प्रदायों के मध्य दिखाई देती थी। कबीर समाज में साम्प्रदायिक एकता स्थापित करने के क्रम में उभय धर्मों की आलोचना में मुखर हो उठते हैं। यथा – जौर खुदाय मसीति बसत है, और मुलिक किस केरा।/तीरथ मूरति राम निवासा, दुहु मैं किनहू न हेरा॥७साम्प्रदायिक साम्य की भावना से संचालित कबीर साहित्य में अनेक दोहे और पद देखे जा सकते हैं। जो समाज में एकता एवं भाईचारे के लिए मार्ग प्रशस्त करने में सहायक सिद्ध होते प्रतीत होते हैं। इसी भावना के समानातर वर्ण व्यवस्था के परिणाम स्वरूप समाज में उपजी अस्पृश्यता का विरोध कबीर द्वारा प्रस्तुत साम्यवादी समाज के संदर्भों की महती विशेषता है।समाज के विकास की प्रमुख बाँधाओं में आर्थिक वैषम्य के प्रभाव को अनदेखा नहीं किया जा सकता है। कबीर आर्थिक विषमता के मूल धन संचय एवं वैभवपूर्ण जीवन पर कुठाराघात करते हुए कहते हैं – कबीर सो धन संचिये, जो आगे कूं होइ।/ सीस चढ़ाये पोठली, ले जात न देख्या कोइ॥८वास्तविक धन का संकेत करते हुए कबीर कहते हैं कि – निरधन सरधन दोनों भाई प्रभु की कला न मेरी जाई।/कहि कबीर निरधन है सांइ जाके हिदये नाम न होई॥९कबीर की मान्यता है कि धन संचय अध्यात्म और समाज दोनों के विरूद्ध है। यही कारण है कि वह आर्थिक वैषम्य के स्थान पर साम्य स्थापित करने के आकांक्षी रूप में सामने आते हैं।
कबीर अपनी वाणियों के माध्यम से सामाजिक ढांचे को विश्रृंखलता से दूर करने के लिए मानवता की भावना की आवश्यकता पर विशेष बल देते हैं। मानवोचित गुणों का उल्लेख करते समय दया, क्षमा, उदारता और दानशीलता आदि को रेखांकित किया जाता है। कदाचित्‌ मनुष्यों के यही वह सद्व्यवहार है जो समाज को सुसंगठित रखने में अह्‌म भूमिका निभा सकते हैं। सद्व्यवहार से संबंधित कबीर काव्य में अनेक पद एवं दोहे बिखरे पड़े हैं। यथा- एते औरत मरदां साजे, ये सब रूप हमारे।/कबीर पंगुरा राम अलह का, सब गुरु पीर हमारे॥१०प्रस्तुत दोहे में कबीर सभी में यहाँ तक कि असह्रय तक में अपनी आत्मा को पहचानते हुए उनका सम्मान एवं सेवा करने की घोषणा करते हैं।प्राचीन काल से ही संसार के अधिकांश समाज में व्यवस्था के लिए जिस विशिष्ट नियमों और उपनियमों का पालन किया जाता है ऐसे सार्वजनीन एवं सार्वभौमिक नियम को धर्म की संज्ञा से अभिहीत किया जाता है। व्यवस्था, न्याय, सत्य, अहिंसा और प्रेम इत्यादि उदात्त भावों पर आधारित होती है। यही समाज को संगति प्रदान करती है। परन्तु जब अव्यवस्था या यूँ कहा जाये कि धर्म के स्थान अधर्म का जब समाज में प्रभाव बढ़ जाता है तब समाज में विसंगतियों का जन्म स्वाभाविक है। कबीर कालीन समाज की विसंगतियों के उल्लेख की आवश्यकता नहीं। कबीर अधर्म जन्य विश्रृंखल समाज का विरोध ही नहीं करते वरन्‌ सहज एवं सत्य धर्म के स्वरूप को निर्दिष्ट करते हुए कहते हैं कि उसका आधार चरित्रा, संयम एवं हृदय तथा मन की स्वच्छता है। यथा – जे मन नहि तजे विकारा, तो क्यूँ तिरिये भो पारा।/ जब मन छाड़े कुटिलाई तब आइ मिले राम राई॥११कबीर धर्म के अन्तर्गत सातात्त्विक, नैतिकता इत्यादि को भी महत्त्व देते हुए समाज के लिए ऐसे सहज धर्म का निर्देशन करते हैं जो साधक को स्तुति निन्दा, आशा एवं मान अभिमान से मुक्त कर देता है। यथा- असतुति निन्दा आसा छोड़ तजे मान अभिमाना।/लोहा कंचन समि करि देखे ते मूरति भगवाना॥१२भौतिक जगत में मानव समाज के अतिरिक्त जीव जन्तुओं का भी एक विशाल संसार है। मनुष्यों का साथ इनका घनिष्ठ संबंध भी होता है। इतना ही नहीं वनस्पति जगत की परिवर्तन-परिवर्धन एवं संवेदनशील होता है। भारतीय दर्शन के अनुसार आत्मा सर्वव्यापी है। यह संसार के सभी पदार्थों में व्याप्त है। अतः मानव जीव-जन्तु एवं वनस्पतियाँ आध्यात्मिक एकता से परिपूर्ण हैं।
इस आधार पर कहा जा सकता है कि आध्यात्मिक एवं भौतिक दोनों धरातल पर इन सबको मिलाकर एक विशाल समाज की सृष्टि होती है। समाज के इस विशाल परिप्रेक्ष्य के प्रत्येक अंग के प्रति कबीर काव्य में संवेदनशीलता के दर्शन होते हैं। द्रष्टव्य है -भूली मालनि पाती तोड़े, पाती पाली जीव।/जा मूरति को पाती तोड़े, सो मूरति निरजीव।१३जीव-जन्तुओं के प्रति उनकी जागरूकता विलक्षण है यथा – जीव वधत अरू धरम कहते हो, अधरम कहाँ है भाई।/आपन तो मुनि जन हैं बैठे, कासनि कहौ कसाई॥१४प्रस्तुत तथ्यों के प्रकाश में यह स्पष्ट रूप से विदित होता है कि कबीर सुशिष्ट और संयत समाज के लिए समाज की अधिकांश इकाईयों से संबंधित स्पष्ट विचारधारा रखते हैं। समाज की आधारभूत इकाई व्यक्ति के लिए उन्होंने गुण ग्रहण की क्षमता से युक्त संयम और सदाचार के आदर्श को आवश्यक माना है। यद्यपि महिला कल्याण के विषय पर यथोचित विचार प्रस्तुत नहीं किये उसे कबीर की सीमा के रूप में उल्लेखित किया जाता है, परन्तु सामाजिक व्यवस्था में उनके लिए कुछ आवश्यक गुणों के रूप में चरित्रा पतिव्रत एवं सतीत्व का उल्लेख अवश्य किया है।कबीर साहित्य में आध्यात्मिक एवं सामाजिक दोनों संदर्भों में गुरु को विशेष महत्ता प्राप्त है। धार्मिक विभेद वर्ण व्यवस्था एवं साम्प्रदायिक वैमनस्य का विरोध करके धार्मिक एवं साम्प्रदायिक एकता को उन्होंने सामाजिक साम्य के मूल रूप में रेखांकित किया है। वर्ण भेद को कबीर समाज की विखण्डनकारी शक्ति के रूप में देखते हुए उसे समाप्त करने का आह्‌वान करते हैं।
कबीर के अनुसार आर्थिक वैषम्य समाज में अव्यवस्था उत्पन्न करता है। अतः स्वस्थ समाज के लिए वैषम्य समाप्ति आवश्यक है। मानव के साथ उसके परिवेश को जोड़कर जिस विशाल समाज का सृजन होता है उसके अन्तर्सम्बंधों के संदर्भ में कबीर का दृष्टिकोण स्पष्ट एवं संरचनात्मक है।उपर्युक्त विवेचन-विश्लेषण के आलोक में कहा जा सकता है कि कबीर ने आध्यात्मिक क्षेत्र में जिस सहज सिद्धान्त को निर्धारित कर उसकी अनुभूति प्राप्त की उसी अनुभूति के आधार पर उन्होंने समाज में साम्य स्थापित करने हेतु समाज कल्याण की भावना से संचालित स्वस्थ एवं सुसंगठित समाज संबंधी विचारों का प्रतिपादन किया। समाज संबंधी यह वैचारिक प्रतिपादन कबीर साहित्य का आदम प्रतिपादन है।

रामचरितमानस की मनोवैज्ञानिकता

हिन्दी साहित्य का सर्वमान्य एवं सर्वश्रेष्ठ महाकाव्य “रामचरितमानस” मानव संसार के साहित्य के सर्वश्रेष्ठ ग्रंथों एवं महाकाव्यों में से एक है। विश्व के सर्वश्रेष्ठ महाकाव्य ग्रंथ के  साथ रामचरित मानस को ही प्रतिष्ठित करना समीचीन है | वह वेद, उपनिषद, पुराण, बाईबल, इत्यादि के मध्य भी पूरे गौरव के साथ खड़ा किया जा सकता है। इसीलिए यहां पर तुलसीदास रचित महाकाव्य रामचरित मानस प्रशंसा में प्रसादजी के शब्दों में इतना तो अवश्य कह सकते हैं कि –
राम छोड़कर और की जिसने कभी न आस की,
रामचरितमानस-कमल जय हो तुलसीदास की।
अर्थात यह एक विराट मानवतावादी महाकाव्य है, जिसका अध्ययन अब हम एक मनोवैज्ञानिक ढ़ंग से करना चाहेंगे, जो इस प्रकार है – जिसके अन्तर्गत श्री महाकवि तुलसीदासजी ने श्रीराम के व्यक्तित्व को इतना लोकव्यापी और मंगलमय रूप दिया है कि उसके स्मरण से हृदय में पवित्र और उदात्त भावनाएं जाग उठती हैं। परिवार और समाज की मर्यादा स्थिर रखते हुए उनका चरित्र महान है कि उन्हें मर्यादा पुरूषोतम के रूप में स्मरण किया जाता ह। वह पुरूषोत्तम होने के साथ-साथ दिव्य गुणों से विभूषित भी हैं। वह ब्रह्म रूप ही है, वह साधुओं के परित्राण और दुष्टों के विनाश के लिए ही पृथ्वी पर अवतरित हुए हैं, मनोवैज्ञानिक दृष्टि से यदि कहना चाहे तो भी राम के चरित्र में इतने अधिक गुणों का एक साथ समावेश होने के कारण जनता उन्हें अपना आराध्य मानती है, इसीलिए महाकवि तुलसीदासजी ने अपने ग्रंथ रामचरितमानस में राम का पावन चरित्र अपनी कुशल लेखनी से लिखकर देश के धर्म, दर्शन और समाज को इतनी अधिक प्रेरणा दी है कि शताब्दियों के बीत जाने पर भी मानस मानव मूल्यों की अक्षुण्ण निधि के रूप में मान्य है। अत: जीवन की समस्यामूलक वृत्तियों के समाधान और उसके व्यावहारिक प्रयोगों की स्वभाविकता के कारण तो आज यह विश्व साहित्य का महान ग्रंथ घोषित हुआ है, और इस का अनुवाद भी आज संसार की प्राय: समस्त प्रमुख भाषाओं में होकर घर-घर में बस गया है।
एक जगह डॉ. रामकुमार वर्मा – संत तुलसीदास ग्रंथ में कहते हैं कि ‘रूस में मैंने प्रसिध्द समीक्षक तिखानोव से प्रश्न किया था कि ”सियाराम मय सब जग जानी” के आस्तिक कवि तुलसीदास का रामचरितमानस ग्रंथ आपके देश में इतना लोकप्रिय क्यों है? तब उन्होंने उत्तर दिया था कि आप भले ही राम को अपना ईश्वर माने, लेकिन हमारे समक्ष तो राम के चरित्र की यह विशेषता है कि उससे हमारे वस्तुवादी जीवन की प्रत्येक समस्या का समाधान मिल जाता है। इतना बड़ा चरित्र समस्त विश्व में मिलना असंभव है। ‘ ऐसा संत तुलसीदासजी का रामचरित मानस है।”
मनोवैज्ञानिक ढ़ंग से अध्ययन किया जाये तो रामचरित मानस बड़े भाग मानुस तन पावा के आधार पर अधिष्ठित है, मानव के रूप में ईश्वर का अवतार प्रस्तुत करने के कारण मानवता की सर्वोच्चता का एक उदगार है। वह कहीं भी संकीर्णतावादी स्थापनाओं से बध्द नहीं है। वह व्यक्ति से समाज तक प्रसरित समग्र जीवन में उदात्त आदर्शों की प्रतिष्ठा भी करता है। अत: तुलसीदास रचित रामचरित मानस को मनोबैज्ञानिक दृष्टि से देखा जाये तो कुछ विशेष उल्लेखनीय बातें हमें निम्मलिखित रूप में देखने को मिलती हैं –
तुलसीदास एवं समय संवेदन में मनोवैज्ञानिकता :
तुलसीदासजी ने अपने समय की धार्मिक स्थिति की जो आलोचना की है उसमें एक तो वे सामाजिक अनुशासन को लेकर चिंतित दिखलाई देते हैं, दूसरे उस समय प्रचलित विभत्स साधनाओं से वे खिन्न रहे हैं। वैसे धर्म की अनेक भूमिकाएं होतीं हैं, जिनमें से एक सामाजिक अनुशासन की स्थापना है।
रामचरितमानस में उन्होंने इस प्रकार की धर्म साधनाओं का उल्लेख ‘तामस धर्म’ के रूप में करते हुए उन्हें जन-जीवन के लिए अमंगलकारी बताया है।
तामस धर्म करहिं नर जप तप व्रत मख दान,
देव न बरषहिं धरती बए न जामहि धान॥”3
इस प्रकार के तामस धर्म को अस्वीकार करते हुए वहां भी उन्होंने भक्ति का विकल्प प्रस्तुत किया हैं।
अपने समय में तुलसीदासजी ने मर्यादाहीनता देखी। उसमें धार्मिक स्खलन के साथ ही राजनीतिक अव्यवस्था की चेतना भी सम्मिलित थी। रामचरितमानस के कलियुग वर्णन में धार्मिक मर्यादाएं टूट जाने का वर्णन ही मुख्य रूप से हुआ है, मानस के कलियुग वर्णन में द्विजों की आलोचना के साथ शासकों पर किया किया गया प्रहार निश्चय ही अपने समय के नरेशों के प्रति उनके मनोभावों का द्योतक है। इसलिए उन्होंने लिखा है –
द्विजा भूति बेचक भूप प्रजासन।4
अन्त: साक्ष्य के प्रकाश में इतना कहा जा सकता है कि इस असंतोष का कारण शासन द्वारा जनता की उपेक्षा रहा है। रामचरितमानस में तुलसीदासजी ने बार-बार अकाल पड़ने का उल्लेख भी किया है जिसके कारण लोग भूखों मर रहे थे –
कलि बारहिं बार अकाल परै,
बिनु अन्न दु:खी सब लोग मरै।5
इस प्रकार रामचरितमानस में लोगों की दु:खद स्थिति का वर्णन भी तुलसीदासजी का एक मनोवैज्ञानिक समय संवेदन पक्ष रहा है।
तुलसीदास एवं मानव अस्तित्व की यातना :
यहां पर तुलसीदासजी ने अस्तित्व की व्यर्थतता का अनुभव भक्ति रहित आचरण में ही नहीं, उस भाग दौड़ में भी किया है, जो सांसारिक लाभ लोभ के वशीभूत लोग करते हैं। वस्तुत:, ईश्वर विमुखता और लाभ लोभ के फेर में की जानेवाली दौड़ धूप तूलसीदास की दृष्टि में एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। ध्यान देने की बात तो यह है कि तुलसीदासजी ने जहां भक्ति रहित जीवन में अस्तित्व की व्यर्थता देखी है, वही भाग दौड़ भरे जीवन की उपलध्धि भी अनर्थकारी मानी हैं। यथा –
जानत अर्थ अनर्थ रूप-भव-कूप परत एहि लागै।6
इस प्रकार इन्होंने इसके साथ सांसारिक सुखों की खोज में निरर्थक हो जाने वाले आयुष्य क्रम के प्रति भी ग्लानि व्यक्त की है।
तुलसीदास की आत्मदीप्ति :
तुलसीदासजी ने रामचरितमानस में स्पष्ट शब्दों में दास्य भाव की भक्ति प्रतिपादित की है –
सेवक सेव्य भाव, बिनु भव न तरिय उरगारि।7
साथ-साथ रामचरित मानस में प्राकृतजन के गुणगान की भर्त्सना अन्य के बड़प्पन की अस्वीकृति ही हैं। यहीं यह कहना कि उन्होंने रामचरितमानस’ की रचना ‘स्वान्त: सुखाय’ की हैं, अर्थात तुलसीदासजी के व्यक्तित्व की यह दीप्ति आज भी हमें विस्मित करती हैं।
मानस के जीवन मूल्यों का मनोवैज्ञानिक पक्ष :
इसके अन्तर्गत मनोवैज्ञानिकता के संदर्भ में रामराज्य को बताने का प्रयत्न किया गया है।
मनोवैज्ञानिक अध्ययन से ‘रामराज्य’ में स्पष्टत: तीन प्रकार हमें मिलते हैं (1) मन: प्रसाद (2) भौतिक समृध्दि और (3) वर्णाश्रम व्यवस्था।
तुलसीदासजी की दृष्टि में शासन का आदर्श भौतिक समृध्दि नहीं है।मन: प्रसाद उसका महत्वपूर्ण अंग है। अत: रामराज्य में मनुष्य ही नहीं, पशु भी बैर भाव से मुक्त हैं। सहज शत्रु, हाथी और सिंह वहां एक साथ रहते हैं –
रहहिं एक संग गज पंचानन
भौतिक समृध्दि :
वस्तुत: मन संबंधी मूल्य बहुत कुछ भौतिक परिस्थितियाें पर निर्भर रहते हैं। भौतिक परिस्थितियों से निरपेक्ष सुखी जन मन की कल्पना नहीं की जा सकती। दरिद्रता और अज्ञान की स्थिति में मन संयमन की बात सोचना भी निरर्थक हैं।
वर्णाश्रम व्यवस्था :
तुलसीदासजी ने समाज व्यवस्था-वर्णाश्रम के प्रश् के सदैव मनोवैज्ञानिक परिणामों के परिपार्श्व में उठाया हैं जिस कारण से कलियुग संतप्त हैं, और रामराज्य तापमुक्त है – वह है कलियुग में वर्णाश्रम की अवमानना और रामराज्य में उसका परिपालन।
साथ-साथ तुलसीदासजी ने भक्ति और कर्म की बात को भी निर्देशित किया है।
गोस्वामी तुलसीदासजी ने भक्ति की महिमा का उद्धोष करने के साथ ही साथ शुभ कर्मो पर भी बल दिया है। उनकी मान्यता है कि संसार कर्म प्रधान है। यहां जो कर्म करता है, वैसा फल पाता है –
करम प्रधान बिरख करि रख्खा,
जो जस करिए सो-तस फल चाखा।8
आधुनिकता के संदर्भ में रामराज्य :
रामचरितमानस में उन्होंने अपने समय में शासक या शासन पर सीधे कोई प्रहार नहीं किया। लेकिन सामान्य रूप से उन्होंने शासकों को कोसा है, जिनके राज्य में प्रजा दु:खी रहती है –
जासु राज प्रिय प्रजा दुखारी,
सो नृप अवसि नरक अधिकारी।9
अर्थात यहां पर विशेष रूप से प्रजा को सुरक्षा प्रदान करने की क्षमता सम्पन्न शासन की प्रशंसा की है। अत: राम ऐसे ही समर्थ और स्वच्छ शासक है और ऐसा राज्य ‘सुराज’ का प्रतीक है।
रामचरितमानस में वर्णित रामराज्य के विभिन्न अंग समग्रत: मानवीय सुख की कल्पना के आयोजन में विनियुक्त हैं। रामराज्य का अर्थ उनमें से किसी एक अंग से व्यक्त नहीं हो सकता। किसी एक को रामराज्य के केन्द्र में मानकर शेष को परिधि का स्थान देना भी अनुचित होगा, क्योंकि ऐसा करने से उनकी पारस्परिकता को सही सही नहीं समझा जा सकता। इस प्रकार रामराज्य में जिस स्थिति का चित्र अंकित हुआ है वह कुल मिलाकर एक सुखी और सम्पन्न समाज की स्थिति है। लेकिन सुख सम्पन्नता का अहसास तब तक निरर्थक है, जब तक वह समष्टि के स्तर से आगे आकर व्यक्तिश: प्रसन्नता की प्रेरक नहीं बन जाती। इस प्रकार रामराज्य में लोक मंगल की स्थिति के बीच व्यक्ति के केवल कल्याण का विधान नहीं किया गया है। इतना ही नहीं, तुलसीदासजी ने रामराज्य में अल्पवय में मृत्यु के अभाव और शरीर के नीरोग रहने के साथ ही पशु पक्षियों के उन्मुक्त विचरण और निर्भीक भाव से चहकने में व्यक्तिगत स्वतंत्रता की उत्साहपूर्ण और उमंगभरी अभिव्यक्त को भी एक वाणी दी गई है –
अभय चरहिं बन करहिं अनंदा।
सीतल सुरभि, पवन वट मंदा।
गुंजत अलि लै चलि-मकरंदा॥”
इससे यह स्पष्ट हो जाता है कि रामराज्य एक ऐसी मानवीय स्थिति का द्योतक है जिसमें समष्टि और व्यष्टि दोनों सुखी है।
सादृश्य विधान एवं मनोवैज्ञानिकता :
तुलसीदास के सादृश्य विधान की विशेषता यह नहीं है कि वह घिसा-पिटा है, बल्कि यह है कि वह सहज है। वस्तुत: रामचरितमानस के अंत के निकट रामभक्ति के लिए उनकी याचना में प्रस्तुत किये गये सादृश्य में उनका लोकानुभव झलक रहा है –
कामिहि नारि पिआरि जिमि लोभिहि प्रिय जिमि दाम,
तिमि रघुनाथ-निरंतर प्रिय लागहु मोहि राम।
इस प्रकार प्रकृति वर्णन में भी वर्षा का वर्णन करते समय जब वे पहाड़ों पर बूंदे गिरने के दृश्य संतों द्वारा खल-वचनों को सेटे जाने की चर्चा सादृश्य के ही सहारे हमें मिलते हैं।
अत: तुलसीदासजी ने अपने काव्य की रचना केवल विदग्धजन के लिए नहीं की है। बिना पढ़े लिखे लोगों की अप्रशिक्षित काव्य रसिकता की तृप्ति की चिंता भी उन्हें ही थी जितनी विज्ञजन की।
इस प्रकार रामचरितमानस का मनोवैज्ञानिक अध्ययन करने से यह हमें ज्ञात होता है कि रामचरित मानस केवल रामकाव्य नहीं है, वह एक शिव काव्य भी है, हनुमान काव्य भी है, व्यापक संस्कृति काव्य भी है। शिव विराट भारत की एकता का प्रतीक भी है। तुलसीदास के काव्य की समय सिध्द लोकप्रियता इस बात का प्रमाण है कि उसी काव्य रचना बहुत बार आयासित होने पर भी अन्त: स्फूर्ति की विरोधी नहीं, उसकी एक पूरक रही है। निस्संदेह तुलसीदास के काव्य के लोकप्रियता का श्रेय बहुत अंशों में उसकी अन्तर्वस्तु को है। अत: समग्रतया, तुलसीदास रचित रामचरित मानस एक सफल विश्वव्यापी महाकाव्य रहा है।