जितना तुम्हारा सच है उतना ही कहो-अज्ञेय

उड गई चिड़िया कापी, फिर थिर-हो गई पत्ती। सच्चिदानंद हीरानंद वात्स्यायन अज्ञेय हिंदी के कालजयी रचनाकार है। उन्हें प्रयोगवाद का प्रवर्तक कहा जाता है। वस्तुत: उनका पूरा रचना संसार परंपरा और प्रयोग का विलक्षण सह मेल है। राहों के अन्वेषी अज्ञेय उन यायावर रचनाकारों में अग्रगण्य हैं जिन्होंने शब्द की संस्कृति को नयी आभा प्रदान की। अज्ञेय के व्यक्तित्व और लेखन को लेकर जाने कितने विवाद उठे। कई बार मौन भी अभिव्यजना है में विश्वास रखने वाले अज्ञेय ने अपने मित कथनों से भी इन चर्चाओं को बल दिया। अपने सरोकारों पर टिप्पणी करते हुए एक बातचीत में वे कहते है, मेरे लिए महत्व की बात यह है कि अपने और अपने आसपास के बीच जो संबंध है उसे जानने पहचानने का प्रयत्‍‌न करूं। उसके सभी स्तरों को समग्रता और जटिलता में, और पहचान के सहारे उस स्वाधीनता को बढाऊं और पुष्ट करूं जो मेरे मानव की सबसे मूल्यवान उपलब्धि है।

7 मार्च 1911 को कुशीनगर, उ.प्र. के एक पुरातत्व-उत्खनन शिविर में जन्मे अज्ञेय को ज्ञान की कई धाराएँ विरासत में मिली थीं। उनके पिता पं. हीरानंद शास्त्री बहुविद्याविशारद थे। लाहौर से बीएससी करने वाले अज्ञेय को संस्कृत, फारसी, अंग्रेजी, बांग्ला सहित कई भाषाओं का ज्ञान था। अपनी मां व्यती देवी के साथ 1921 में उन्होंने पंजाब की यात्रा की थी, उनके मन में स्वाधीनता और संघर्ष के बीज इसी समय पडे। परवर्ती अज्ञेय को देखकर बहुतेरों के लिए यह विश्वास करना कठिन होता था कि यह व्यक्ति हिन्दुस्तान रिपब्लिकन आर्मी का सक्रिय सदस्य था। चंद्रशेखर आजाद, भगवतीचरण वोहरा, सुखदेव आदि अनेक क्रांतिकारियों से अज्ञेय की घनिष्ठता रही। कई बार गिरफ़्तार हुए, जेल गये, कालकोठरी में रहे, अपने घर में नज़रबंद किये गये। अज्ञेय में स्वाधीनता की यह ललक उनके साहित्य में भाँति-भाँति से प्रतिबिम्बित हुई। उन्होंने 1924 में पहली कहानी लिखी। सच्चिदानंद हीरानंद को अज्ञेय नाम जैनेन्द्र कुमार ने दिया था।

अज्ञेय सचमुच बहुमुखी व्यक्तित्व थे। उन्होंने खुद लिखा कि जूता गाठने से लेकर बहुत सारे काम करके वे अपनी आजीविका चला सकते है। एक पत्रकार के रूप में सैनिक, विशाल भारत, प्रतीक, थॉट, वाक्, दिनमान, नया प्रतीक और नवभारत टाइम्स में उनके योगदान को बहुमूल्य माना जाता है। रचनाकार के रूप में शीर्ष स्थानीय महत्व तो है ही, रचनात्मक आंदोलनों के नेतृत्व की जो समझ उनमें थी वह दुर्लभ है। तारसप्तक सहित सप्तक चतुष्टय की परिकल्पना और परिणति ने हिंदी साहित्य में नया इतिहास रचा। उन्हें प्रयोगवाद से जोडना स्वाभाविक है, 1943 में तारसप्तक छपा था, लेकिन अज्ञेय प्रयोगवाद की रूढ अवधारणाओं व फल श्रुतियों को मीलों पीछे छोड देने वाले रचनाकार है।

अज्ञेय ने समान शब्द सिद्धि के साथ कविता, कहानी, उपन्यास, निबंध, आलोचना, यात्रा वृत्तांत ,डायरी, रिपोर्ताज, संस्मरण आदि विधाओं में प्रचुर लेखन किया। भग्नदूत, चिंता, हरी घास पर क्षण भर, बावरा अहेरी, आँगन के पार द्वार, कितनी नावों में कितनी बार, सागर मुद्रा, पहले मैं सन्नाटा बुनता हूं और ऐसा कोई घर आपने देखा है सहित सोलह संग्रहों में उनकी कविताएँ मौजूद है। सचयन आदि तो हैं ही। अज्ञेय की कविता के बीज शब्द है- स्वतंत्रता, निजता, व्यक्ति, मौन, करुणा, प्रकृति, रहस्य, अपार, अन्वेषण और जीवन। श्रद्धा और समर्पण को भी जोड़ा जा सकता है। जन्म दिवस, हरी घास पर क्षण भर, कलगी बाजरे की, नदी के द्वीप, बावरा अहेरी, यह दीप अकेला, चक्रात शिला, असाध्य वीणा और एक सन्नाटा बुनता हूं आदि अनेकानेक कविताओं में अज्ञेय हिंदी कविता को अभूतपूर्व गरिमा प्रदान करते है। निश्चित रूप से वे व्यक्तित्व के वैभव को रेखांकित करते है, पर उन्हें व्यक्तिवाद में सीमित करना अन्याय है। विदेशी साहित्य का सघन पाठक होने के नाते उन पर विचारधाराओं व शैलियों के प्रभाव भी देखे जा सकते है। इन सबके बीच अज्ञेय की मौलिकता अनन्य है। भीतर जागादाता कविता में लिखते है-

लो, यह स्मृति, यह श्रद्धा, यह हंसी
यह आहूत, स्पर्शपूत भाव
यह मैं, यह तुम, यह खिलना
यह ज्वार, यह प्लावन
यह प्यार, यह अडूब उमडना
सब तुम्हे दिया

वे हिंदी कविता के एक बड़े समय और उन्नयन का नेतृत्व करते है। कई परवर्ती बड़े कवियों पर अज्ञेय का प्रभाव दिखता है। कथा साहित्य में अज्ञेय का हस्तक्षेप युगांतरकारी है। शेखर एक जीवनी, नदी के द्वीप और अपने-अपने अजनबी उपन्यास व्यक्ति और समाज की विभिन्न विडम्बनाओं से जूझते है। स्त्री, प्रेम, इच्छा, विरक्ति, मर्यादा, विद्रोह, संस्कार आदि को अज्ञेय नये सिरे से परिभाषित करते है। उनकी कहानियों के सात संग्रह है। जिनमें गैंग्रीन, हीली-बोन् की बत्तखें, मेजर चौधरी की वापसी, शरणार्थी आदि को क्लैसिक का दर्जा मिल चुका है। अज्ञेय के पास शब्दार्थ को पहचानने और उसे व्यक्त कर सकने की जो अपूर्व क्षमता है वह हिंदी गद्य को बदल देती है। हीली बोन् की बत्तखें के अंतिम वाक्य है,कैप्टेन दयाल ने कुछ कहना चाहा, पर अवाक् ही रह गये, क्योंकि उन्होंने देखा, हीली की आँखों में वह निव्र्यास सूनापन घना हो आया है जो कि पर्वत का चिरन्तन विजन सौंदर्य है।

अरे यायावर रहेगा याद और एक बूंद सहसा उछली में अज्ञेय के यात्रा वृत्तांत है। देश और विदेश में घूमते अज्ञेय इन वर्णनों से पाठक की चित्तवृत्ति उदार बनाते है। वे कविर्मनीषी थे। लगभग बारह संग्रहों में उनके निबंध है जिनके केंद्र में साहित्य, संस्कृति, विकास और मनुष्यता से जुडे अनेक प्रश्न है। यहां उनकी तार्किक भारतीयता दिखाई पडती है। कुट्टिचातन नाम से अज्ञेय ने अनेक ललित निबंध लिखे जो सबरग, सबरग और कुछ राग व छाया का जंगल आदि में है। उनका गीतिनाट्य उत्तर प्रियदर्शी युद्ध, शांति और करुणा को समकालीन संदर्भो में व्याख्यायित करता है।

भवन्ती,अन्तरा,शाश्वती आदि डायरी पुस्तकें और स्मृतिलेखा व स्मृति के गलियारों से संस्मरण संग्रह अज्ञेय के सृजन और चिन्तन के अनूठे साक्ष्य है। सप्तक श्रृंखला सहित अठारह से अधिक ग्रंथों का संपादन किया। अज्ञेय एक मर्मान्वेषी अनुवादक भी थे। उनका अवदान विपुल व बहुमूल्य है। अज्ञेय के जन्मशती वर्ष में उनके साहित्य के पुनर्मूल्याँकन के बहुतेरे उपक्रम हो रहे है। कई आलोचक पश्चाताप भाव से भर उठे है कि हमने वाद ग्रस्तता के कारण इतने बड़े शब्द शिल्पी की अनदेखी की। कुछ आलोचक ऐसे भी है जो इस स्मरण वर्ष की भावुकता से लाभ उठाकर मा?र्क्सवादियों को मुँहतोड जवाब जैसी वीरोचित व्याख्याएँ कर रहे है। वस्तुत: ये दोनों ही उपक्रम इस बात के प्रतीक है कि अज्ञेय जैसे बड़े रचनाकार को समझने में होने वाली भूलें हिंदी समाज का सहज स्वभाव जैसी है।

अज्ञेय ने एक जगह बुद्धिजीव और बौद्धिक का फ़र्क स्पष्ट किया है। उन्हें बौद्धिक के रूप में ही समझा जा सकता है। प्रेम, प्रकृति और स्वाधीनता आदि अनेक रचनात्मक विशेषताएँ अज्ञेय को बडा बनाती है। युवा आलोचक व कवि पंकज चतुर्वेदी उनकी जीवन दृष्टि को रेखांकित करते हुए कहते है कि मनुष्य की अनियंत्रित स्वार्थपरता, भोगवाद और क्रूरता क्रूरता के मद्देनज़र यह कवि की भविष्य-दृष्टि के प्रेसिशन या अचूकता की मिसाल है। अज्ञेय इसलिए बड़े कवि है कि उनमें सुंदर और उदात्त की अभिव्यक्ति की संस्कृति ही नहीं, धारा के विरुद्ध जाकर अप्रिय और असुविधाजनक सच कहने का साहस भी था। अपने सच को ही कहने की बात करने वाले अज्ञेय कई बार अप्रत्याशित भी है, जिससे उन्हें समझने में कई कठिनाई हो सकती है। रागात्मक संबंधों पर तो उनकी अभिव्यक्तियाँ अद्वितीय है। प्रकृति का इतना बडा प्रेमी भी मिलना कठिन है। अज्ञेय लिखते है मैं वह धनु हूं, जिसे साधने में प्रत्यचा टूट गई है/ स्खलित हुआ है वाण, यद्यपि ध्वनि दिग्दिगन्त में फूट गई है। सच यही है कि ऐसे रचनाकार की शब्द में समाई कठिन होती है। अज्ञेय भारतीय साहित्य को गौरव प्रदान करने वाले महान रचनाकार है।

निराला का भाषागत संघर्ष

तुलसीदास के बाद हिन्दी साहित्य में निराला ही एक ऐसे कवि हैं जिन्होंने भारतीय काव्य मनीषा को ठीक से समझकर उसे युग अनुरूप प्रेरणादायी बनाया था। जैसे तुलसी ने फारसी के आतंक से हिन्दी को मुक्त कर भाषा के स्तर पर इतने प्रयोग किए कि वह हिन्दी साहित्य के लिए उपयोगी बन गयी। उन्होंने संस्कृत की कठिन शब्दावली को सहज और जनप्रिय छन्दों में ढाला यही कारण है कि रामचरित मानस के प्रत्येक काण्ड का प्रारम्भ वे बोधगम्य संस्कृत में करते हैं। निराला ने भाषा और छन्द के स्तर पर हिन्दी में जो प्रयोग किए उन्हें तुलसीदास के प्रयोग से जोडकर देखना उचित है। भारतेन्दु बाबू हरिश्चन्द्र के युग के बाद और विशेषकर सरस्वती के प्रकाशन का वह कालखण्ड जो आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी युग के नाम से जाना जाता है। निराला भी इसी कालखण्ड में लेखन प्रारम्भ करते हैं। द्विवेदी जी जिस हिन्दी को विकसित करने में लगे रहे महाप्राण निराला जैसे अनेक साहित्यकारों और साहित्य प्रेमियों ने अपना सर्वस्व अर्पण किया। उसी हिन्दी को आगे बढाने का दायित्व वर्तमान पीढयों का है। यह पितृऋण हमारे ऊपर है। इससे उऋण हुए बिना न तो हमारी मुक्ति है और न ही राष्ट्र की।
हिन्दी जिस रूप में आज हमारे सामने है उसमें निराला का बहुत बडा योगदान है। हीन ग्रंथि से पीडत हिन्दी समाज को अपनी भाषा और साहित्य पर इसलिए स्वाभिमान होना चाहिए क्योंकि उसके पास विश्व का सबसे बडा कवि तुलसीदास है। उन्हें इसलिए भी गौरव होना चाहिए क्योंकि उनके पास सूर्यकान्त त्रिपाठी निराला जैसा साहित्यकार और पत्रकार उपलब्ध है। लेकिन यह दुःखद पक्ष है कि आज हिन्दी भाषी समाज इन मूल्यवान बिन्दुओं पर विचार नहीं कर रहा है। हमारा सोच इस स्तर तक कैसे पहुँच गया। इस पर विचार करते हुए निराला ने ”सुधा” पत्रिका के सम्पादकीय में सन् १९३५ में लिखा था – ”हिन्दी साहित्यकारों ने हिन्दी के पीछे तो अपना सर्वस्व अर्पण कर दिया है पर हिन्दी भाषियों ने उनकी तरफ वैसा ध्यान नहीं दिया – शतांश भी नहीं। वे साहित्यिक इस समय जिन कठिनता का सामना कर रहे हैं, उसे देखकर किसी भी सहृदय की आँखों में आँसू आ जाएँगे। बदले में उन्हें अनधिकारी साहित्यिकों से लाँछन और असंस्कृत जनता से अनादर प्राप्त हो रहा है। (सुधा जून ३५ समां टि. २)
निराला का जन्म २१ फरवरी सन् १८९९ में महिषादल में हुआ था। यह स्थान आज के बंगलादेश में आता है। यह समय देश की आजादी के लिए संघर्ष का समय था। अंग्रेज जान-बूझकर भारतीय संस्कृति और भाषा को नष्ट करने में लगे हुए थे। अंग्रेजों की रणनीति का यह महत्त्वपूर्ण हिस्सा रहा है कि वे जहाँ भी शासन करते थे, वहाँ की भाषाओं को नष्ट कर देते थे। डॉ. रामविलास शर्मा लिखते हैं ”साम्राज्यवाद से जहाँ भी बन पडा, उसने न केवल भाषाओं का, वरन् उन्हें बोलने वाली जातियों का भी नाश किया। अमरीकी महाद्वीपों में अजतेक और इंका जनों की सभ्यताएँ अत्यन्त विकसित थीं। अब वहाँ उनके ध्वंसावशेष ही रह गए हैं। रेड इंडियन जनों से उनकी भूमि छीन ली गयी, अमरीकी विश्वविद्यालयों में उनकी भाषाएँ शिक्षा का माध्यम नहीं है। अमरीकी नीग्रो अंग्रेजी बोलते हैं, उनके पुरखे कौन सी भाषा बोलते थे, यह वे नहीं जानते। दक्षिणी अफ्रिका, रोडेशिया, आस्ट्रेलिया, न्यूजीलैण्ड, जहाँ भी साम्राज्यवादियों से बन पडा उन्होंने गुलाम बनाए हुए देशों के मूल निवासियों का नाश किया, उनकी भाषाओं और संस्कृतियों का दमन किया।” (निराला की साहित्य साधना, भाग-२, पृष्ठ १९)
एक महान् चिन्तक की तरह निराला अपने समय की स्थिति पर निगाह रखे हुए थे तथा अपनी कविताओं और लेखों के द्वारा भारतीय जनमानस को यह बता रहे थे कि अंग्रेजी की पक्षधरता उन्हें कहाँ ले जाएगी। सन् १९३० में सुधा के सम्पादकीय में उन्होंने लिखा, ”भारतवर्ष अंग्रेजों की साम्राज्य लालसा सर्वप्रधान ध्येय रहा है। यहाँ की सभ्यता और संस्कृति अंग्रेजों की सभ्यता और संस्कृति से बहुत कम मेल खाती थी, पर सात समुद्र पार से आकर इतने विस्तृत और इतने सभ्य देश में राज्य करना जिन अंग्रेजों को अभीष्ट था, वे बिना अपनी कूटनीति का प्रयोग किए कैसे रह सकते थे ‘ अंग्रेजों की नीति हुई – भारत के इतिहास को विकृत कर दो और हो सके तो उसकी भाषा को मिटा दो। चेष्टाएँ की जाने लगी। भारतीय सभ्यता और संस्कृति तुलना में नीची दिखायी जाने लगीं। हमारी भाषाएँ गँवारू असाहित्यिक और अविकसित बताई जाने लगी। हमारा प्राचीन इतिहास अंधकार में डाल दिया गया। बकायदा अंग्रेजी की पढाई होने लगी। इस देश का शताब्दियों से अंधकार में पडा हुआ जन समाज समझने लगा कि जो कुछ है, अंग्रेजी सभ्यता है, अंग्रेजी साहित्य है और अंग्रेज हैं।”
निराला हिन्दी और संस्कृत के लिए निरन्तर संघर्ष करते रहे ”अनामिका” नाम की कविता संग्रह में ”मित्र के प्रति” कविता में उनके भाव देखे जा सकते हैं –
जला है जीवन यह आतप में दीर्घकाल
सूखी भूमि, सूखे तरु, सूखे शिक्त आलाव
बन्द हुआ गूँज, धूलि धूसर हो गए कुंज,
किन्तु पडी व्योम-उर बन्धु, नील-मेघ-माल।
जो काम देश की आजादी के लिए क्रांतिकारी लोग अपने स्तर पर कर रहे थे। साहित्य और भाषा के स्तर पर यही संघर्ष निराला लड रहे थे। और इससे भी अधिक वे दोनों स्तरों पर काम कर रहे थे। पूरे स्वतंत्रता आंदोलन में किसानों का जो एक मात्र आंदोलन हुआ था। इस आंदोलन में निराला ने महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई थी। निराला के जीवन पर केन्द्रित पुस्तक ”निराला की साहित्य साधना भाग-१,२ एवं ३ में डॉ. रामविलास शर्मा ने निराला के भाषागत संघर्ष का सुन्दर चित्रण किया है। इस पुस्तक के विषय में कहा जाता है कि किसी कवि पर केन्द्रित विश्व की उत्कृष्ट रचना है। डॉ. रामविलास शर्मा लिखते हैं ”जला है जीवन यह – निराला का जीवन जला है, हिन्दी का जीवन जला है। निराला के मन की आशाएँ, उल्लास, विषाद्, निराशा, वीरतापूर्ण कर्म, त्रास, दुःस्वप्न यह सब कुछ कहीं न कहीं हिन्दी के इस आन्तरिक संघर्ष से जुडा हुआ है। निराला के बिना हिन्दी का यह संघर्ष नहीं समझा जा सकता, इस संघर्ष के बिना निराला नहीं समझे जा सकते, न व्यक्तित्व न कृतित्व। निराला का जीवन हिन्दीमय है, हिन्दी उनके लिए साहित्य साधना का माध्यम है अपने में यह साध्य है। भारत देश और इस देश की जनता की तरह निराला की आस्था, श्रद्धा, सर्वाधिक प्रेम का अधिष्ठान है भाषा। असह्य पीडा के क्षणों में वह सारा दुःख ”यह हिन्दी का प्रेमोपहार कह कर स्वीकार करते हैं।” (निराला की साहित्य साधना भाग-२, पृष्ठ १७२)
हिन्दी को लेकर निराला उस समय के सबसे बडे नेताओं से भी बातचीत कर अपनी चिन्ताएँ व्यक्त करते रहे। उन्होंने महात्मा गाँधी से भी हिन्दी के विकास को लेकर बातचीत की। गाँधी जी हिन्दी के प्रबल पक्षधर थे। स्वतंत्रता आन्दोलन में लगे हुए नेताओं में गाँधी ही एक ऐसे व्यक्ति थे जो राजनैतिक आजादी को भाषागत आजादी से जोडकर देख रहे थे और यह कह रहे थे – ”मेरा नम्र लेकिन दृढ अभिप्राय है कि जब तक हम भाषा को राष्ट्रीय और अपनी भाषाओं प्रान्तों में उनका योग्य स्थान नहीं देंगे, तब तक स्वराज्य की सब बातें निरर्थक हैं। (सन् १९३५ में इन्दौर म दिए गए भाषण से) गाँधी के इसी देश में आज का ज्ञान आयोग यह मानता है कि बिना अंग्रेजी के राष्ट्र का विकास असम्भव है। ज्ञान आयोग और चाहे जो कुछ भी सोचे किन्तु उसका यह सोच गाँधी और निराला की भाँति राष्ट्र के उन्नयन की बात नहीं सोच रहा है। इसी भाँति वे पंडित जवाहरलाल नेहरू से भी हिन्दी के चिन्तन को लेकर आमने-सामने हुए। इस घटना का चित्रण करते हुए डॉ. रामविलास शर्मा ने लिखा है। (यह चित्रण उस समय का है जब रावी नदी के तट पर पूर्ण स्वाधीनता की प्रतिज्ञा ली गई थी जिसकी खुशी में पूरे देश में कार्यक्रम आयोजित हो रहे थे जिनमें भाग लेने के लिए राष्ट्रीय नेता पूरे देश का भ्रमण कर रहे थे)” जनता से विदा होने और गाडी के चलने पर जब नेहरू जी भीतर आकर बैठे तब निराला ने शुरू किया – ‘आपसे कुछ बातें करने की गरज से अपनी जगह से यहाँ आया हुआ हूँ।’
नेहरू ने कुछ न कहा। निराला ने अपना परिचय दिया। फिर हिन्दुस्तानी का प्रसंग छेडा, सूक्ष्म भाव प्रकट करने में हिन्दुस्तानी की असमर्थता जाहिर की। फिर एक चुनौती दी – ‘मैं हिन्दी के कुछ वाक्य आपको दूँगा जिनका अनुवाद आप हिन्दुस्तानी जबान में कर देंगे, मैं आपसे प्रार्थना करता हूँ। इस वक्त आपको समय नहीं। अगर इलाहाबाद में आप मुझे आज्ञा करें, तो किसी वक्त मिलकर मैं आपसे उन पंक्तियों के अनुवाद के लिए निवेदन करूँ।’
जवाहरलाल नेहरू ने चुनौती स्वीकार न की, समय देने में असमर्थता प्रकट की। निराला ने दूसरा प्रसंग छेडा। समाज के पिछडेपन की बात की, ज्ञान से सुधार करने का सूत्र पेश किया। हिन्दू-मुस्लिम समस्या का हल हिन्दी के नये साहित्य में जितना सही पाया जायगा, राजनीतिक साहित्य में नहीं – निराला ने अपने व्यावहारिक वेदान्त कर गुर समझाया।
जवाहरलाल नेहरू डिब्बे में आई बला को देखते रहे, उसे टालने की कोई कारगर तरकीब सामने न थी। डिब्बे में आर.एस. पंडित भी थे। दोनों में किसी ने बहस में पडना उचित न समझा। लेकिन निराला सुनने नहीं, सुनाने आये थे। बनारस की गोष्ठी में जवाहरलाल के भाषण पर वह ‘सुधा’ में लिख चुके थे, अब वह व्यक्ति सामने था जो अपने हिन्दी-साहित्य संबंधी ज्ञान पर लज्जित न था, जो स्वयं अंग्रेजी में लिखता था, जो हिन्दी वालों को क्या करना चाहिए, उपदेश देता था। (इससे पूर्व पंडित नेहरू बनारस के एक सम्मेलन में कह आए थे कि हिन्दी साहित्य अभी दरबारी परम्परा से नहीं उबरा है। यहीं पर उन्होंने यह भी कहा था कि अच्छा होगा कि अंग्रेजी साहित्य की कुछ चुनी हुई पुस्तकों का हिन्दी में अनुवाद करवाया जाए, इस पूरे प्रसंग पर ही निराला, पंडित जवाहरलाल नेहरू से बात कर रहे थे)।
निराला ने कहा – ‘पंडित जी, यह मामूली अफसोस की बात नहीं कि आप जैसे सुप्रसिद्ध व्यक्ति इस प्रान्त में होते हुए भी इस प्रान्त की मुख्य भाषा हिन्दी से प्रायः अनभिज्ञ हैं।’ किसी दूसरे प्रान्त का राजनीतिक व्यक्ति ऐसा नहीं। सन् १९३० के लगभग श्री सुभाष बोस ने लाहौर के विद्यार्थियों के बीच भाषण करते हुए कहा था कि बंगाल के कवि पंजाब के वीरों के चरित्र गाते हैं। उन्हें अपनी भाषा का ज्ञान और गर्व है। महात्मा गाँधी के लिए कहा जाता है कि गुजराती को उन्होंने नया जीवन दिया है। बनारस के जिन साहित्यिकों की मण्डली म आपने दरबारी कवियों का उल्लेख किया कि, उनमें से तीन को मैं जानता हूँ। तीनों अपने-अपने विषय के हिन्दी के प्रवर्तक हैं। प्रसाद जी काव्य और नाटक-साहित्य के, प्रेमचन्द जी कथा-साहित्य के और रामचन्द्र जी शुक्ल आलोचना-साहित्य के। आप ही समझिए कि इनके बीच आपका दरबारी कवियों का उल्लेख कितना हास्यास्पद हो सकता है। एक तो हिन्दी के साहित्यिक साधारण श्रेणी के लोग हैं, एक हाथ से वार झेलते, दूसरे से खिलते हुए, दूसरे आप जैसे बडे-बडे व्यक्तियों की मैदान में वे मुखालिफत करते देखते हैं। हमने जब काम शुरू किया था, हमारी मुखालिफत हुई थी। आज जब हम कुछ प्रतिष्ठित हुए, अपने विरोधियों से लडते, साहित्य की दृष्टि करते हुए, तब किन्हीं मानी में हम आपको मुखालिफत करते देखते हैं। यह कम दुर्भाग्य की बात नहीं, साहित्य और साहित्यिक के लिए। हम वार झेलते हुए सामने आए ही थे कि आपका वार हुआ। हम जानते हैं कि हिन्दी लिखने के लिए कलम हाथ में लेने पर, बिना हमारे कहे फैसला हो जायगा कि बडे से बडा प्रसिद्ध राजनीतिज्ञ एक जानकार साहित्यिक के मुकाबले कितने पानी में ठहरता है। लेकिन यह तो बताइए, जहाँ सुभाष बाबू, अगर मैं भूलता नहीं, अपने सभापति के अभिभाषण में शरत्चन्द्र के निधन का जिक्र करते हैं, वहाँ क्या वजह है जो आपकी जुबान पर प्रसाद का नाम नहीं आता। मैं समझता हूँ, आपसे छोटे नेता भी सुभाष बाबू के जोड के शब्दों में कांग्रेस में प्रसाद जी पर शोक-प्रस्ताव पास नहीं कराते। क्या आप जानते हैं कि हिन्दी के महत्त्व की दृष्टि से प्रसाद कितने महान् हैं ‘
जवाहरलाल एकटक निराला को देखते रहे। ऐसा धाराप्रवाह भाषण सुनाने वाले जीवन में ये उन्हें पहले व्यक्ति मिले थे, अगला स्टेशन अभी आया न था। सुनते जाने के सिवा चारा न था।
निराला को प्रेमचन्द याद आये। बोले – ‘प्रेमचन्द जी पर भी वैसा प्रस्ताव पास नहीं हुआ जैसा शरत्चन्द्र पर।’
नेहरू ने टोका – ‘नहीं, जहाँ तक याद है, प्रेमचन्द जी पर तो एक शोक-प्रस्ताव पास किया गया था।’
निराला ने अपनी बात स्पष्ट की – ‘जी हाँ, यह मैं जानता हूँ, लेकिन उसकी वैसी महत्ता नहीं जैसी शरत्चन्द वाले की है।’
आखिर अयोध्या स्टेशन आ गया। निराला ने आखिरी बात कही – ‘अगर मौका मिला तो आपसे मिलकर फिर साहित्यिक प्रश्न निवेदित करूँगा।’
नेहरू ने इसका कोई उत्तर न दिया।
नमस्कार करके निराला उतरे और अपने डिब्बे में आ गये। प्लेटफार्म महात्मा गाँधी की जय, पं. जवाहरलाल नेहरू की जय से गूँजता रहा। ( निराला की साहित्य साधना, भाग-१, पृष्ठ क्रमांक ३१८ से ३२०)।
निराला के लिए न तो कोई व्यक्ति बडा था और न ही पद। उनके व्यक्ति की यह सबसे बडी ताकत थी कि वे किसी से डरते भी न थे। भाषा और साहित्य के लिए किसी से भी भिड सकते थे और भिडे भी।
वर दे वीणा वादिनी ………. । सरस्वती वन्दना से हमारे सांस्कृतिक कार्यक्रम शुरू होते हैं। इस वन्दना में प्रयुक्त नवगति, नवलय, तालछन्द नव ……. नव पर नव स्वर दे माँगने वाले इस अमर गायक की वेदना अभी भी हिन्दी भाषी समाज और हिन्दी के पक्षधर पूरी तरह नहीं समझ सके हैं। निराला ने माँ सरस्वती से सारी नवीनता हिन्दी के लिए ही माँगी थी क्योंकि उनके लिए जीवन का एकमात्र उद्देश्य हिन्दी भाषा और उसका साहित्य था। अपने जीवन की संध्या में वे कहते हैं – ”ताक रहा है भीष्म सरों की कठिन सेज से”। निःसन्देह निराला हिन्दी के भीष्म पितामह थे। इन प्रसंगों में हिन्दी को सम्मानजनक स्थान दिलाने के लिए महाभारत अभी शेष है। इससे लडते रहना ही निराला के प्रति सादर कृतज्ञता होगी।
 
 

तुलसीदास की प्रासंगिकता

जब तक मानव जीवन में रूढ़िवाद बना रहेगा तब तक तुलसीदास प्रासंगिक रहेंगे. तुलसीदास की मुख्य समस्या थी कलियुग, एवं मुख्य विकल्प था रामराज्य. कलियुग अर्थात “कलि बारहि बार दुकाल परै, बिन अन्न दु:खी सब लोक मरै“. कलि की पहचान भूख, गरीबी और मृत्यु हो. यह कोई दैवी प्रकोप नहीं है. यह समाज की भौतिक अवस्था है जिसके लिए मुख्यत: सत्ताधिकारी ही जिम्मेदार हैं. “जासु राज प्रिय प्रजा दुखारी, सो नृप अवस नरक अधिकारी”.
तुलसीदास को शुद्रविरोधी और नारीविरोधी भी कहा जाता है, लेकिन इसे स्वीकार करना मुश्किल है. शेक्सपीयर के नाटकों में नारी को डायन कह कर मारा जाता है. वे उसकी भर्त्सना भी करते हैं और कहीं समर्थन भी. तुलसीदास भी नारी वेदना को समझने वाले महान संत थे. “कत विधि सृजि नारि जग माही, पराधीन सपनेहु सुख नाहीं“. पातिव्रत धर्म स्त्री की पराधीनता है.जब तक नारी पराधीन रहेंगी तुलसी प्रासंगिक रहेंगे. ऐसा समाज था जहां पुरूषों के लिए बंधन नहीं पर नारी के लिए था. अर्थात संबंधों की विषमता थी. इस विषमता को तुलसी ने रेखांकित किया. समाज के संबंधों में विषमता का अर्थ है दासता. सामाजिक बुराईयां इन्हीं विषमता से पैदा होती है. इस विषमता का जवाब था राम का आचरण. मानव संबंधों में समानता की खोज तुलसीदास रामचरित के रूप में करते हैं. एक पत्नीव्रता रूप. राम के सर्वप्रिय पात्र हैं निषाद और शबरी. निषाद लोक, वेद, शास्त्र और समाज सारे दृष्टि से इतने नीच थे कि जिसकी छाया पर जाए तो आदमी भ्रष्ट हो जाय. वह राम के अनन्य सखा हैं. सामंती समाज में जो सबसे अधिक प्रताड़ित है राम उन सबके निकट हैं. इसलिए तुलसीदास प्रासंगिक हैं. 500 वर्ष पहले जो समस्यायें तुलसीदास के समय थी वह आज भी है. अत: तुलसीदास के संघर्ष से भी हमारा संबंध है.
भक्त कवियों का आत्मानुभव उनके ईश्वर को ढालता है, इसलिए संत कवियों के नायक राजपाट से दूर सामान्य जीवन में साधारण रूप में ही रमते हैं. तुलसी के राम भी राजाओं या सामंतों के रूप में ढले नहीं हैं. राम सारे जीवन मूल्य के एकमात्र प्रतीक हैं जिनकी भक्ति में भक्त का गौरव ऊँचा हो जाता है.
मर्यादा पुरूषोत्तम जगह जगह मर्यादा तोड़ते हैं और नए मर्यादा का सूत्रपात कर उसके पुरूषोत्तम बनते हैं. राम अपने भक्त के लिए अधीर होते हैं. पहली बार ऐसा भगवान दिखाई देता है जो अपने भक्त के लिए अधीर होते हैं. इसी का परिणाम होता है कि भक्त भगवान को अपने वश में कर लेते हैं. हनुमान इसके उदाहरण हैं. भगवान भक्त के वश में आ जाते हैं. इस वश में आने का मुख्य कारण प्रेम है. भक्ति का मतलब ही है प्रेम. यही भक्ति साधारण और हीन मनुष्यों को आत्मगौरव प्रदान करने का माध्यम बनता है. मनुष्य की श्रेष्ठता इस भक्ति का दर्शन है.
तुलसी का आत्मानुभव राम से जुड़ता है. भक्ति इन कवियों के सामाजिक अपमान के भीतर से पैदा हुई शक्ति है. जब सामाजिक उत्पीड़न का विकल्प समाज में न हो तब उसका विकल्प दर्शन या आध्यात्म में होता है. इसलिए इसे आधार बनाकर भक्तों ने अपने अनुभव के सांचे में अपने ईश्वर को ढाला. चूंकि भक्त मनुष्य थे इसलिए उनके मन में कमज़ोरियां भी थी, ईश्वर इन कमजोरियों से दूर थे इसलिए वे उनके आदर्श थे. ईश्वर के रूप में जिस आदर्श की खोज भक्त कवि करते हैं उसी अनुरूप वे संघर्ष करते हैं. अपने माता-पिता के प्रति निंदा का भाव तुलसीदास के मन में है लेकिन राम के मन में नहीं. भक्ति यदि एक सिरे पर सामाजिक विद्रोह है तो दूसरे स्तर पर आत्मसाधना भी. भक्ति सामाजिक भी है और व्यक्तिगत भी. भक्ति एक ऐसी प्रेरणा है जिसने पूरे मनुष्य को उसकी सम्पूर्णता में पाने की कोशिश की. “जो सहजै विषया तजै” यही सहज साधना है कबीर की. सहज होना साधना चीज़ है.
वाल्मीकि की कथा का प्राण था शोक. शोक से श्लोक पैदा होता था. भवभूति की आत्मा करूणा थी, तुलसीदास की आत्मा संघर्ष थी जो राम के पूरे जीवन में व्याप्त है. करूणा, शोक, संघर्ष राम की कथा का सार है. वह भी जीवन व्यापी रूप में किसी ईश्वर में नहीं है. ये तीनों मनुष्य की परिस्थितियां हैं. मानव जीवन है. इसलिए राम का तादात्म्य बैठता है. राम कथा में व्यक्त वेदना मनुष्य के जीवन व संबंधों से पैदा होती है. वेदना अनैतिक आदमी में उत्पन्न नहीं होती.
पहले देवकथा देववाणी में लिखी जाती थी, तुलसी व सभी भक्त कवियों ने बोलचाल की भाषा में ईश की अराधना की. सामाजिक, धार्मिक या आध्यात्मिक के साथ भाषायी रूढ़िवाद से भी भक्तों ने संघर्ष किया. भारत में संस्कृत के वर्चस्व के विरूद्ध धर्म रूप में ही सही बोलचाल की भाषा सामने आई. सांस्कृतिक निरंतरता का प्रतीक राम के रूप में आया, वाल्मीकि, तुलसी, निराला तक. बंगाल के कृत्तिवास, दक्षिण में कंबन, महाराष्ट्र में रामदास और उत्तर में तुलसी ने एक समय में राम की कथा लिखी. राम उस समय के हिन्दुस्तान की राष्ट्रीय एकता के प्रतीक हैं. एटकिन्स नामक पादरी ने 18वीं सदी में रामचरित मानस का अनुवाद किया, रूस के वारानिक्कोव ने 20वीं सदी में रूसी भाषा में मानस का अनुवाद किया. वे नास्तिक थे. भारत की सांस्कृतिक छवि तुलसी के मानस से बनती है. तुलना करने पर मानस लैटिन और यूनानी भाषा के सर्वमान्य ग्रंथों से श्रेष्ठ सिद्ध होता है. भक्ति की अंतर्राष्ट्रीय संदर्भ स्रोत भी इस युग में जुड़ा है. 
सारे भक्त कवि किसान और कारीगर समुदाय के लोग थे. भक्ति नि:स्वार्थ होता है. समाज में नए वर्गों की नये सामाजिक शक्तियों की गतिशीलता से भक्ति पैदा होती है. कारीगरों का उत्थान व्यापार की उन्नति से जुड़ा है. व्यापार एक सामाजिक शक्ति है. पूराने सामंती ढांचे के भीतर व्यापार की शक्तियों के विकास ने गति पैदा की. पूराने सामंती ढांचे को इस गति ने कमजोर किया. इन सभी शक्तियों ने अपने साथ नयी भाषा और नयी संस्कृति पैदा की.
तुलसी शंकर के मायावाद का खंडन करते हैं और जगत का सत्य मानते हैं. क्योंकि राम यदि हैं तो वह इस संसार से परे नहीं हो सकते. तुलसी के अनुसार ब्रह्म रूप में बंधा है और उसके रूप की कोई सीमा नहीं है.”हरि व्यापे सर्वत्र समाना, प्रेम से प्रकट होई मैं जाना”. प्रत्यक्ष और परोक्ष ब्रह्म दोनों एक हैं. “सगुन अगुन दुई ब्रह्म सरूपा” तुलसी ब्रह्म को प्रणाम करने के लिए ब्रह्म में नहीं संसार में जाते हैं. अतीत की बहुत सी दार्शनिक प्रणालियां और वर्तमान समाज की उपासना पद्धतियां तुलसी में मिल गई थी. अपने विश्वास को कायम रखना समन्वयवाद नहीं है. विचारों और पद्धतियों का प्रभाव समाज में एकता लाने की आवश्यकता के कारण हुआ.

कबीर की समाज सम्बन्धी विचारधारा

डॉ० मेराज अहमद

भारत के इतिहास का मध्यकाल सामाजिक संक्रांति का युग था। समाज  संगठन की दृष्टि से अस्त-व्यस्त था। धर्म दर्शन और संस्कृत की अनेक धाराएँ परस्पर संघर्षरत थीं। हिन्दू-समाज भेदभाव पर आधारित शास्त्रों द्वारा अनुमोदित वर्ण व्यवस्था से संचालित होता था परन्तु विद्रोह के स्वर भी उठते थे। बौद्धों, जैनों, नाथों और सिद्धों इत्यादि की विद्रोह में महती भूमिका होती थी। हिन्दू समाज के समानान्तर मुस्लिम समाज का धर्म इस्लाम जो कि सैद्धान्तिक आधार पर समानता का पोषक होते हुए विषमता की भावना से ग्रस्त हो रहा था। बाह्याचारों ने एक सीमा तक इसे अपने मूल से भटका दिया था। यद्यपि इनके बीच भी सूफी संत विद्रोही तेवर के साथ आ खड़े हुए थे परन्तु आम जनता कर्मकाण्डों द्वारा संचालित धर्म के दुष्चक्र में उलझी हुई थी। ऐसे समय में कबीर ने जटिल परिस्थितियों के मध्य अपनी स्वतंत्रा दृष्टि मानवतावादी चिन्तन पद्धति और दृढ़ संकल्पना शक्ति के द्वारा समाज में व्याप्त विषमता का न केवल विरोध ही किया अपितु अपनी वाणियों के माध्यम से समतामूलक समाज के लिए आधारभूमि भी प्रस्तुत की।सामाजिक विश्रृंखलता का केन्द्र व्यक्ति के लिए उच्च आदर्श उपस्थित करते हुए कबीर कहते हैं कि व्यक्ति को गुण ग्राही और आत्मज्ञानी होना चाहिए । यथा – तरूवर तास बिलविये, बारह मास फलंत।/सीतल छाया गहर फल, पंछी केलि करंत॥१कबीर के अनुसार वास्तव में व्यक्ति वही है जो सामाजिक साम्य, स्थापना हेतु अपना सर्वस्व उत्सर्ग कर दे। द्रष्टव्य है – तन मन सीस समरपन कीन्हां, प्रगत जोति तंह आतम लीनां।२इसके अतिरिक्त कबीर ने व्यक्ति के आदर्श के रूप में निस्पृहता अहंकारहीनता एवं निर्विषयता इत्यादि के महात्म्य का उल्लेख किया है। देखिए – निरवेरी निहः कांमता, सांई सेती नेह।/विषिया सू न्यारा रहे, संतनि का अंग एह॥३सिद्धान्ततः नारी को व्यक्ति से इतर नहीं माना जाना चाहिए, परन्तु व्यवहार में नारी का विषय पृथक्‌ रूप से ही विचारणीय होता है। उल्लेखनीय है कि कबीर की नारी निन्दा सर्वविदित है परन्तु उसी के साथ सीमित संदर्भों में समाज में उनकी आदर्श नारी संबंधी विचारधारा के भी दर्शन होते हैं। वह नारी के लिए त्याग, निष्ठा, पतिव्रत एवं सतीत्व की आवश्यकता पर बल देते हुए कहते हैं कि उसे अपने पति के लिए जो कि उसके प्रेम का आधार होता है सब कुछ अर्पित कर देना चाहिए। यथा – इस मन का दीया करों, धरती मैल्यूं जीव।/लोही सींचो तेज ज्यूं, चित दैखौं तित पीव॥४ध्यान देने योग्य तथ्य यह है कि कबीर जैसा विद्रोही कवि नारी समाज के प्रति समाज के अन्य अंगों जैसे स्वस्थ मानसिकता नहीं रखता है, परन्तु उपर्युक्त संदर्भ के माध्यम से भारतीय समाज के पारिवारिक संबंधों में पति-पत्नी के संबंधों की पवित्राता का स्वरूप अवश्य सामने आ जाता है।
विद्या ग्रहण करने वाला विद्यार्थी कहलाता है। समाज में विद्यार्थी की भूमिका अत्यन्त महत्त्वपूर्ण होती है। विद्यार्थी समाज का वह आवश्यक अंग हैं जो भविष्य के समाज की रूपरेखा का नियन्ता होता है। यद्यपि वर्तमान में विद्या और विद्यार्थी दोनों से संबंधित मान्यताएँ बदल चुकी हैं, परन्तु मध्यकाल तक शिक्षा के मूल उद्देश्यों में से एक एवं मुख्य उद्देश्य अध्यात्म और मानवानुकूल श्रेष्ठ गुणों का विकास था। गुरु एवं शिष्य संबंध सभी मानवीय संबंधों से उच्च एवं पवित्रा माने गये। कबीर तो इस संबंध की श्रेष्ठता के प्रबल समर्थक के रूप में सामने आते हैं। यथा – सतगुरु की महिमा अनन्त, अनन्त किया उपकार।/लोचन अनन्त उघाड़िया, अनन्त दिखावणहार।५विद्यार्थी को सातात्त्विक गुरु प्राप्त करने के लिए अपना सम्पूर्ण अर्पित कर देने की बात करते हुए कबीर कहते हैं कि – मेरा मुझ में कुछ नहीं, जो कुछ है सो तेरा।/ तेरा तुझको सौंपता, क्या लागे है मेरा॥६कबीर ने गुरु शिष्य दोनों के लिए श्रेष्ठता स्वनियंत्रण समदर्शिता एवं आत्म नियंत्रण को आवश्यक मानते हुए समाज के सर्व कल्याण के लिए सहायक माना है।यद्यपि साम्प्रदायिकता का जो भयावह स्वरूप समसामयिक संदर्भों में दृष्टिगत होता है वह आधुनिक युग का रूप है।
मध्यकाल में साम्प्रदायिक वैमनस्व कारण साम्प्रदायिक श्रेष्ठता की होड़ की मानसिकता पर आधारित थी। वह कभी तो दो धर्मों के मध्य की होड़ के कारण दृष्टिगत होती थी तो कभी एक ही धर्म के विविध सम्प्रदायों के मध्य दिखाई देती थी। कबीर समाज में साम्प्रदायिक एकता स्थापित करने के क्रम में उभय धर्मों की आलोचना में मुखर हो उठते हैं। यथा – जौर खुदाय मसीति बसत है, और मुलिक किस केरा।/तीरथ मूरति राम निवासा, दुहु मैं किनहू न हेरा॥७साम्प्रदायिक साम्य की भावना से संचालित कबीर साहित्य में अनेक दोहे और पद देखे जा सकते हैं। जो समाज में एकता एवं भाईचारे के लिए मार्ग प्रशस्त करने में सहायक सिद्ध होते प्रतीत होते हैं। इसी भावना के समानातर वर्ण व्यवस्था के परिणाम स्वरूप समाज में उपजी अस्पृश्यता का विरोध कबीर द्वारा प्रस्तुत साम्यवादी समाज के संदर्भों की महती विशेषता है।समाज के विकास की प्रमुख बाँधाओं में आर्थिक वैषम्य के प्रभाव को अनदेखा नहीं किया जा सकता है। कबीर आर्थिक विषमता के मूल धन संचय एवं वैभवपूर्ण जीवन पर कुठाराघात करते हुए कहते हैं – कबीर सो धन संचिये, जो आगे कूं होइ।/ सीस चढ़ाये पोठली, ले जात न देख्या कोइ॥८वास्तविक धन का संकेत करते हुए कबीर कहते हैं कि – निरधन सरधन दोनों भाई प्रभु की कला न मेरी जाई।/कहि कबीर निरधन है सांइ जाके हिदये नाम न होई॥९कबीर की मान्यता है कि धन संचय अध्यात्म और समाज दोनों के विरूद्ध है। यही कारण है कि वह आर्थिक वैषम्य के स्थान पर साम्य स्थापित करने के आकांक्षी रूप में सामने आते हैं।
कबीर अपनी वाणियों के माध्यम से सामाजिक ढांचे को विश्रृंखलता से दूर करने के लिए मानवता की भावना की आवश्यकता पर विशेष बल देते हैं। मानवोचित गुणों का उल्लेख करते समय दया, क्षमा, उदारता और दानशीलता आदि को रेखांकित किया जाता है। कदाचित्‌ मनुष्यों के यही वह सद्व्यवहार है जो समाज को सुसंगठित रखने में अह्‌म भूमिका निभा सकते हैं। सद्व्यवहार से संबंधित कबीर काव्य में अनेक पद एवं दोहे बिखरे पड़े हैं। यथा- एते औरत मरदां साजे, ये सब रूप हमारे।/कबीर पंगुरा राम अलह का, सब गुरु पीर हमारे॥१०प्रस्तुत दोहे में कबीर सभी में यहाँ तक कि असह्रय तक में अपनी आत्मा को पहचानते हुए उनका सम्मान एवं सेवा करने की घोषणा करते हैं।प्राचीन काल से ही संसार के अधिकांश समाज में व्यवस्था के लिए जिस विशिष्ट नियमों और उपनियमों का पालन किया जाता है ऐसे सार्वजनीन एवं सार्वभौमिक नियम को धर्म की संज्ञा से अभिहीत किया जाता है। व्यवस्था, न्याय, सत्य, अहिंसा और प्रेम इत्यादि उदात्त भावों पर आधारित होती है। यही समाज को संगति प्रदान करती है। परन्तु जब अव्यवस्था या यूँ कहा जाये कि धर्म के स्थान अधर्म का जब समाज में प्रभाव बढ़ जाता है तब समाज में विसंगतियों का जन्म स्वाभाविक है। कबीर कालीन समाज की विसंगतियों के उल्लेख की आवश्यकता नहीं। कबीर अधर्म जन्य विश्रृंखल समाज का विरोध ही नहीं करते वरन्‌ सहज एवं सत्य धर्म के स्वरूप को निर्दिष्ट करते हुए कहते हैं कि उसका आधार चरित्रा, संयम एवं हृदय तथा मन की स्वच्छता है। यथा – जे मन नहि तजे विकारा, तो क्यूँ तिरिये भो पारा।/ जब मन छाड़े कुटिलाई तब आइ मिले राम राई॥११कबीर धर्म के अन्तर्गत सातात्त्विक, नैतिकता इत्यादि को भी महत्त्व देते हुए समाज के लिए ऐसे सहज धर्म का निर्देशन करते हैं जो साधक को स्तुति निन्दा, आशा एवं मान अभिमान से मुक्त कर देता है। यथा- असतुति निन्दा आसा छोड़ तजे मान अभिमाना।/लोहा कंचन समि करि देखे ते मूरति भगवाना॥१२भौतिक जगत में मानव समाज के अतिरिक्त जीव जन्तुओं का भी एक विशाल संसार है। मनुष्यों का साथ इनका घनिष्ठ संबंध भी होता है। इतना ही नहीं वनस्पति जगत की परिवर्तन-परिवर्धन एवं संवेदनशील होता है। भारतीय दर्शन के अनुसार आत्मा सर्वव्यापी है। यह संसार के सभी पदार्थों में व्याप्त है। अतः मानव जीव-जन्तु एवं वनस्पतियाँ आध्यात्मिक एकता से परिपूर्ण हैं।
इस आधार पर कहा जा सकता है कि आध्यात्मिक एवं भौतिक दोनों धरातल पर इन सबको मिलाकर एक विशाल समाज की सृष्टि होती है। समाज के इस विशाल परिप्रेक्ष्य के प्रत्येक अंग के प्रति कबीर काव्य में संवेदनशीलता के दर्शन होते हैं। द्रष्टव्य है -भूली मालनि पाती तोड़े, पाती पाली जीव।/जा मूरति को पाती तोड़े, सो मूरति निरजीव।१३जीव-जन्तुओं के प्रति उनकी जागरूकता विलक्षण है यथा – जीव वधत अरू धरम कहते हो, अधरम कहाँ है भाई।/आपन तो मुनि जन हैं बैठे, कासनि कहौ कसाई॥१४प्रस्तुत तथ्यों के प्रकाश में यह स्पष्ट रूप से विदित होता है कि कबीर सुशिष्ट और संयत समाज के लिए समाज की अधिकांश इकाईयों से संबंधित स्पष्ट विचारधारा रखते हैं। समाज की आधारभूत इकाई व्यक्ति के लिए उन्होंने गुण ग्रहण की क्षमता से युक्त संयम और सदाचार के आदर्श को आवश्यक माना है। यद्यपि महिला कल्याण के विषय पर यथोचित विचार प्रस्तुत नहीं किये उसे कबीर की सीमा के रूप में उल्लेखित किया जाता है, परन्तु सामाजिक व्यवस्था में उनके लिए कुछ आवश्यक गुणों के रूप में चरित्रा पतिव्रत एवं सतीत्व का उल्लेख अवश्य किया है।कबीर साहित्य में आध्यात्मिक एवं सामाजिक दोनों संदर्भों में गुरु को विशेष महत्ता प्राप्त है। धार्मिक विभेद वर्ण व्यवस्था एवं साम्प्रदायिक वैमनस्य का विरोध करके धार्मिक एवं साम्प्रदायिक एकता को उन्होंने सामाजिक साम्य के मूल रूप में रेखांकित किया है। वर्ण भेद को कबीर समाज की विखण्डनकारी शक्ति के रूप में देखते हुए उसे समाप्त करने का आह्‌वान करते हैं।
कबीर के अनुसार आर्थिक वैषम्य समाज में अव्यवस्था उत्पन्न करता है। अतः स्वस्थ समाज के लिए वैषम्य समाप्ति आवश्यक है। मानव के साथ उसके परिवेश को जोड़कर जिस विशाल समाज का सृजन होता है उसके अन्तर्सम्बंधों के संदर्भ में कबीर का दृष्टिकोण स्पष्ट एवं संरचनात्मक है।उपर्युक्त विवेचन-विश्लेषण के आलोक में कहा जा सकता है कि कबीर ने आध्यात्मिक क्षेत्र में जिस सहज सिद्धान्त को निर्धारित कर उसकी अनुभूति प्राप्त की उसी अनुभूति के आधार पर उन्होंने समाज में साम्य स्थापित करने हेतु समाज कल्याण की भावना से संचालित स्वस्थ एवं सुसंगठित समाज संबंधी विचारों का प्रतिपादन किया। समाज संबंधी यह वैचारिक प्रतिपादन कबीर साहित्य का आदम प्रतिपादन है।

रामचरितमानस की मनोवैज्ञानिकता

हिन्दी साहित्य का सर्वमान्य एवं सर्वश्रेष्ठ महाकाव्य “रामचरितमानस” मानव संसार के साहित्य के सर्वश्रेष्ठ ग्रंथों एवं महाकाव्यों में से एक है। विश्व के सर्वश्रेष्ठ महाकाव्य ग्रंथ के  साथ रामचरित मानस को ही प्रतिष्ठित करना समीचीन है | वह वेद, उपनिषद, पुराण, बाईबल, इत्यादि के मध्य भी पूरे गौरव के साथ खड़ा किया जा सकता है। इसीलिए यहां पर तुलसीदास रचित महाकाव्य रामचरित मानस प्रशंसा में प्रसादजी के शब्दों में इतना तो अवश्य कह सकते हैं कि –
राम छोड़कर और की जिसने कभी न आस की,
रामचरितमानस-कमल जय हो तुलसीदास की।
अर्थात यह एक विराट मानवतावादी महाकाव्य है, जिसका अध्ययन अब हम एक मनोवैज्ञानिक ढ़ंग से करना चाहेंगे, जो इस प्रकार है – जिसके अन्तर्गत श्री महाकवि तुलसीदासजी ने श्रीराम के व्यक्तित्व को इतना लोकव्यापी और मंगलमय रूप दिया है कि उसके स्मरण से हृदय में पवित्र और उदात्त भावनाएं जाग उठती हैं। परिवार और समाज की मर्यादा स्थिर रखते हुए उनका चरित्र महान है कि उन्हें मर्यादा पुरूषोतम के रूप में स्मरण किया जाता ह। वह पुरूषोत्तम होने के साथ-साथ दिव्य गुणों से विभूषित भी हैं। वह ब्रह्म रूप ही है, वह साधुओं के परित्राण और दुष्टों के विनाश के लिए ही पृथ्वी पर अवतरित हुए हैं, मनोवैज्ञानिक दृष्टि से यदि कहना चाहे तो भी राम के चरित्र में इतने अधिक गुणों का एक साथ समावेश होने के कारण जनता उन्हें अपना आराध्य मानती है, इसीलिए महाकवि तुलसीदासजी ने अपने ग्रंथ रामचरितमानस में राम का पावन चरित्र अपनी कुशल लेखनी से लिखकर देश के धर्म, दर्शन और समाज को इतनी अधिक प्रेरणा दी है कि शताब्दियों के बीत जाने पर भी मानस मानव मूल्यों की अक्षुण्ण निधि के रूप में मान्य है। अत: जीवन की समस्यामूलक वृत्तियों के समाधान और उसके व्यावहारिक प्रयोगों की स्वभाविकता के कारण तो आज यह विश्व साहित्य का महान ग्रंथ घोषित हुआ है, और इस का अनुवाद भी आज संसार की प्राय: समस्त प्रमुख भाषाओं में होकर घर-घर में बस गया है।
एक जगह डॉ. रामकुमार वर्मा – संत तुलसीदास ग्रंथ में कहते हैं कि ‘रूस में मैंने प्रसिध्द समीक्षक तिखानोव से प्रश्न किया था कि ”सियाराम मय सब जग जानी” के आस्तिक कवि तुलसीदास का रामचरितमानस ग्रंथ आपके देश में इतना लोकप्रिय क्यों है? तब उन्होंने उत्तर दिया था कि आप भले ही राम को अपना ईश्वर माने, लेकिन हमारे समक्ष तो राम के चरित्र की यह विशेषता है कि उससे हमारे वस्तुवादी जीवन की प्रत्येक समस्या का समाधान मिल जाता है। इतना बड़ा चरित्र समस्त विश्व में मिलना असंभव है। ‘ ऐसा संत तुलसीदासजी का रामचरित मानस है।”
मनोवैज्ञानिक ढ़ंग से अध्ययन किया जाये तो रामचरित मानस बड़े भाग मानुस तन पावा के आधार पर अधिष्ठित है, मानव के रूप में ईश्वर का अवतार प्रस्तुत करने के कारण मानवता की सर्वोच्चता का एक उदगार है। वह कहीं भी संकीर्णतावादी स्थापनाओं से बध्द नहीं है। वह व्यक्ति से समाज तक प्रसरित समग्र जीवन में उदात्त आदर्शों की प्रतिष्ठा भी करता है। अत: तुलसीदास रचित रामचरित मानस को मनोबैज्ञानिक दृष्टि से देखा जाये तो कुछ विशेष उल्लेखनीय बातें हमें निम्मलिखित रूप में देखने को मिलती हैं –
तुलसीदास एवं समय संवेदन में मनोवैज्ञानिकता :
तुलसीदासजी ने अपने समय की धार्मिक स्थिति की जो आलोचना की है उसमें एक तो वे सामाजिक अनुशासन को लेकर चिंतित दिखलाई देते हैं, दूसरे उस समय प्रचलित विभत्स साधनाओं से वे खिन्न रहे हैं। वैसे धर्म की अनेक भूमिकाएं होतीं हैं, जिनमें से एक सामाजिक अनुशासन की स्थापना है।
रामचरितमानस में उन्होंने इस प्रकार की धर्म साधनाओं का उल्लेख ‘तामस धर्म’ के रूप में करते हुए उन्हें जन-जीवन के लिए अमंगलकारी बताया है।
तामस धर्म करहिं नर जप तप व्रत मख दान,
देव न बरषहिं धरती बए न जामहि धान॥”3
इस प्रकार के तामस धर्म को अस्वीकार करते हुए वहां भी उन्होंने भक्ति का विकल्प प्रस्तुत किया हैं।
अपने समय में तुलसीदासजी ने मर्यादाहीनता देखी। उसमें धार्मिक स्खलन के साथ ही राजनीतिक अव्यवस्था की चेतना भी सम्मिलित थी। रामचरितमानस के कलियुग वर्णन में धार्मिक मर्यादाएं टूट जाने का वर्णन ही मुख्य रूप से हुआ है, मानस के कलियुग वर्णन में द्विजों की आलोचना के साथ शासकों पर किया किया गया प्रहार निश्चय ही अपने समय के नरेशों के प्रति उनके मनोभावों का द्योतक है। इसलिए उन्होंने लिखा है –
द्विजा भूति बेचक भूप प्रजासन।4
अन्त: साक्ष्य के प्रकाश में इतना कहा जा सकता है कि इस असंतोष का कारण शासन द्वारा जनता की उपेक्षा रहा है। रामचरितमानस में तुलसीदासजी ने बार-बार अकाल पड़ने का उल्लेख भी किया है जिसके कारण लोग भूखों मर रहे थे –
कलि बारहिं बार अकाल परै,
बिनु अन्न दु:खी सब लोग मरै।5
इस प्रकार रामचरितमानस में लोगों की दु:खद स्थिति का वर्णन भी तुलसीदासजी का एक मनोवैज्ञानिक समय संवेदन पक्ष रहा है।
तुलसीदास एवं मानव अस्तित्व की यातना :
यहां पर तुलसीदासजी ने अस्तित्व की व्यर्थतता का अनुभव भक्ति रहित आचरण में ही नहीं, उस भाग दौड़ में भी किया है, जो सांसारिक लाभ लोभ के वशीभूत लोग करते हैं। वस्तुत:, ईश्वर विमुखता और लाभ लोभ के फेर में की जानेवाली दौड़ धूप तूलसीदास की दृष्टि में एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। ध्यान देने की बात तो यह है कि तुलसीदासजी ने जहां भक्ति रहित जीवन में अस्तित्व की व्यर्थता देखी है, वही भाग दौड़ भरे जीवन की उपलध्धि भी अनर्थकारी मानी हैं। यथा –
जानत अर्थ अनर्थ रूप-भव-कूप परत एहि लागै।6
इस प्रकार इन्होंने इसके साथ सांसारिक सुखों की खोज में निरर्थक हो जाने वाले आयुष्य क्रम के प्रति भी ग्लानि व्यक्त की है।
तुलसीदास की आत्मदीप्ति :
तुलसीदासजी ने रामचरितमानस में स्पष्ट शब्दों में दास्य भाव की भक्ति प्रतिपादित की है –
सेवक सेव्य भाव, बिनु भव न तरिय उरगारि।7
साथ-साथ रामचरित मानस में प्राकृतजन के गुणगान की भर्त्सना अन्य के बड़प्पन की अस्वीकृति ही हैं। यहीं यह कहना कि उन्होंने रामचरितमानस’ की रचना ‘स्वान्त: सुखाय’ की हैं, अर्थात तुलसीदासजी के व्यक्तित्व की यह दीप्ति आज भी हमें विस्मित करती हैं।
मानस के जीवन मूल्यों का मनोवैज्ञानिक पक्ष :
इसके अन्तर्गत मनोवैज्ञानिकता के संदर्भ में रामराज्य को बताने का प्रयत्न किया गया है।
मनोवैज्ञानिक अध्ययन से ‘रामराज्य’ में स्पष्टत: तीन प्रकार हमें मिलते हैं (1) मन: प्रसाद (2) भौतिक समृध्दि और (3) वर्णाश्रम व्यवस्था।
तुलसीदासजी की दृष्टि में शासन का आदर्श भौतिक समृध्दि नहीं है।मन: प्रसाद उसका महत्वपूर्ण अंग है। अत: रामराज्य में मनुष्य ही नहीं, पशु भी बैर भाव से मुक्त हैं। सहज शत्रु, हाथी और सिंह वहां एक साथ रहते हैं –
रहहिं एक संग गज पंचानन
भौतिक समृध्दि :
वस्तुत: मन संबंधी मूल्य बहुत कुछ भौतिक परिस्थितियाें पर निर्भर रहते हैं। भौतिक परिस्थितियों से निरपेक्ष सुखी जन मन की कल्पना नहीं की जा सकती। दरिद्रता और अज्ञान की स्थिति में मन संयमन की बात सोचना भी निरर्थक हैं।
वर्णाश्रम व्यवस्था :
तुलसीदासजी ने समाज व्यवस्था-वर्णाश्रम के प्रश् के सदैव मनोवैज्ञानिक परिणामों के परिपार्श्व में उठाया हैं जिस कारण से कलियुग संतप्त हैं, और रामराज्य तापमुक्त है – वह है कलियुग में वर्णाश्रम की अवमानना और रामराज्य में उसका परिपालन।
साथ-साथ तुलसीदासजी ने भक्ति और कर्म की बात को भी निर्देशित किया है।
गोस्वामी तुलसीदासजी ने भक्ति की महिमा का उद्धोष करने के साथ ही साथ शुभ कर्मो पर भी बल दिया है। उनकी मान्यता है कि संसार कर्म प्रधान है। यहां जो कर्म करता है, वैसा फल पाता है –
करम प्रधान बिरख करि रख्खा,
जो जस करिए सो-तस फल चाखा।8
आधुनिकता के संदर्भ में रामराज्य :
रामचरितमानस में उन्होंने अपने समय में शासक या शासन पर सीधे कोई प्रहार नहीं किया। लेकिन सामान्य रूप से उन्होंने शासकों को कोसा है, जिनके राज्य में प्रजा दु:खी रहती है –
जासु राज प्रिय प्रजा दुखारी,
सो नृप अवसि नरक अधिकारी।9
अर्थात यहां पर विशेष रूप से प्रजा को सुरक्षा प्रदान करने की क्षमता सम्पन्न शासन की प्रशंसा की है। अत: राम ऐसे ही समर्थ और स्वच्छ शासक है और ऐसा राज्य ‘सुराज’ का प्रतीक है।
रामचरितमानस में वर्णित रामराज्य के विभिन्न अंग समग्रत: मानवीय सुख की कल्पना के आयोजन में विनियुक्त हैं। रामराज्य का अर्थ उनमें से किसी एक अंग से व्यक्त नहीं हो सकता। किसी एक को रामराज्य के केन्द्र में मानकर शेष को परिधि का स्थान देना भी अनुचित होगा, क्योंकि ऐसा करने से उनकी पारस्परिकता को सही सही नहीं समझा जा सकता। इस प्रकार रामराज्य में जिस स्थिति का चित्र अंकित हुआ है वह कुल मिलाकर एक सुखी और सम्पन्न समाज की स्थिति है। लेकिन सुख सम्पन्नता का अहसास तब तक निरर्थक है, जब तक वह समष्टि के स्तर से आगे आकर व्यक्तिश: प्रसन्नता की प्रेरक नहीं बन जाती। इस प्रकार रामराज्य में लोक मंगल की स्थिति के बीच व्यक्ति के केवल कल्याण का विधान नहीं किया गया है। इतना ही नहीं, तुलसीदासजी ने रामराज्य में अल्पवय में मृत्यु के अभाव और शरीर के नीरोग रहने के साथ ही पशु पक्षियों के उन्मुक्त विचरण और निर्भीक भाव से चहकने में व्यक्तिगत स्वतंत्रता की उत्साहपूर्ण और उमंगभरी अभिव्यक्त को भी एक वाणी दी गई है –
अभय चरहिं बन करहिं अनंदा।
सीतल सुरभि, पवन वट मंदा।
गुंजत अलि लै चलि-मकरंदा॥”
इससे यह स्पष्ट हो जाता है कि रामराज्य एक ऐसी मानवीय स्थिति का द्योतक है जिसमें समष्टि और व्यष्टि दोनों सुखी है।
सादृश्य विधान एवं मनोवैज्ञानिकता :
तुलसीदास के सादृश्य विधान की विशेषता यह नहीं है कि वह घिसा-पिटा है, बल्कि यह है कि वह सहज है। वस्तुत: रामचरितमानस के अंत के निकट रामभक्ति के लिए उनकी याचना में प्रस्तुत किये गये सादृश्य में उनका लोकानुभव झलक रहा है –
कामिहि नारि पिआरि जिमि लोभिहि प्रिय जिमि दाम,
तिमि रघुनाथ-निरंतर प्रिय लागहु मोहि राम।
इस प्रकार प्रकृति वर्णन में भी वर्षा का वर्णन करते समय जब वे पहाड़ों पर बूंदे गिरने के दृश्य संतों द्वारा खल-वचनों को सेटे जाने की चर्चा सादृश्य के ही सहारे हमें मिलते हैं।
अत: तुलसीदासजी ने अपने काव्य की रचना केवल विदग्धजन के लिए नहीं की है। बिना पढ़े लिखे लोगों की अप्रशिक्षित काव्य रसिकता की तृप्ति की चिंता भी उन्हें ही थी जितनी विज्ञजन की।
इस प्रकार रामचरितमानस का मनोवैज्ञानिक अध्ययन करने से यह हमें ज्ञात होता है कि रामचरित मानस केवल रामकाव्य नहीं है, वह एक शिव काव्य भी है, हनुमान काव्य भी है, व्यापक संस्कृति काव्य भी है। शिव विराट भारत की एकता का प्रतीक भी है। तुलसीदास के काव्य की समय सिध्द लोकप्रियता इस बात का प्रमाण है कि उसी काव्य रचना बहुत बार आयासित होने पर भी अन्त: स्फूर्ति की विरोधी नहीं, उसकी एक पूरक रही है। निस्संदेह तुलसीदास के काव्य के लोकप्रियता का श्रेय बहुत अंशों में उसकी अन्तर्वस्तु को है। अत: समग्रतया, तुलसीदास रचित रामचरित मानस एक सफल विश्वव्यापी महाकाव्य रहा है।

कबीर और जायसी का रहस्यवाद : तुलनात्मक विवेचन

डॉ० ए.एल. अन्सारी 

रहस्यवाद का अर्थ
काव्य की उस मार्मिक भावभिव्यक्ति को रहस्यवाद  कहते हैं, जिसमें एक भावुक कवि अव्यक्त, अगोचर एवं अज्ञात सत्ता के प्रति अपने प्रेमोद्गार प्रकट करता है। काव्य की इस भावभिव्यक्ति के बारे में विद्वानों के विविध विचार मिलते हैं। जैसे आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने लिखा है कि -जहाँ कवि उस अनन्त और अज्ञात प्रियतम को आलम्बन बनाकर अत्यन्त चित्रामयी भाषा में प्रेम  की अनेक प्रकार से व्यंजना करता है, उसे रहस्यवाद कहते हैं।१ डॉ० श्याम सुन्दर दास ने लिखा है कि -चिन्तन के क्षेत्रा का ब्रह्मवाद कविता के क्षेत्र में जाकर कल्पना और भावुकता का आधार पाकर रहस्यवाद का रूप पकड़ता है।२ महाकवि जयशंकर प्रसाद के अनुसार- रहस्यवाद में अपरोक्ष अनुभूति, समरसता तथा प्राकृतिक सौन्दर्य के द्वारा अहं का इदं से समन्वय करने का सुन्दर प्रयत्न है।३
सुप्रसिद्ध रहस्यवादी कवयित्री महादेव वर्मा ने – अपनी सीमा को असीम तत्त्व में खो देने को रहस्यवाद कहा है।डॉ० रामकुमार वर्मा का विचार है कि -रहस्यवाद जीवात्मा की उस अन्तर्हित प्रवृत्ति का प्रकाशन है, जिसमें वह दिव्य और अलौकिक शक्ति से अपना शान्त और निश्छल सम्बन्ध जोड़ना चाहती है और यह सम्बन्ध यहाँ तक बढ़ जाता है कि दोनों में कुछ भी अन्तर नहीं रह जाता।५अतः यह कहा जा सकता है कि रहस्यवाद के अंतर्गत एक कवि उस अज्ञात एवं असीम सत्ता से अत्यन्त घनिष्ठ सम्बन्ध स्थापित करता हुआ उसके प्रति अपने ऐसे प्रेमोद्गार व्यक्त करता है, जिसमें सुख-दुःख, आनन्द-विषाद, संयोग-वियोग, रूदन-हास आदि घुले मिले रहते हैं और वह अपनी अन्त होने वाली सत्ता को अनन्त सत्ता में विलीन करके एक व्यापक एवं अखण्ड आनन्द का अनुभव किया करता है।कबीर और जायसी के रहस्यवाद के सम्बन्ध में विद्वानों की रायकबीर और जायसी के रहस्यवाद के सम्बन्ध में हिन्दी के प्रसिद्ध विद्वानों के मत एक-दूसरे से भिन्न हैं।
कोई कबीर को ही रहस्यवादियों में सर्वश्रेष्ठ मानता है, तो कोई जायसी के रहस्यवाद में ही रमणीयता और सौन्दर्य के दर्शन करता है। कोई कबीर के रहस्यवाद को प्रायः नीरस और शुष्क मानता है। निम्नलिखित उद्धरणों से यह स्पष्ट हो जायेगा –डॉ० श्याम सुन्दर दास के अनुसार – रहस्यवादी कवियों में कबीर का ही आसन सबसे ऊँचा है। शुद्ध रहस्यवाद केवल उन्हीं का है। प्रेमाख्यानक कवियों का रहस्यवाद तो उनके प्रबन्ध के बीच-बीच में बहुत जगह थिगली सा लगता है और प्रबन्ध से अलग उनका अभिप्राय ही नष्ट हो जाता है।६आचार्य रामचन्द्र शुक्ल के अनुसार – कबीर में जो रहस्यवाद है वह सर्वत्र एक भावुक या कवि का रहस्यवाद नहीं है। हिन्दी के कवियों में यदि कहीं स्मरणीय और सुन्दर रहस्यवाद है तो जायसी में, जिनकी भावुकता बहुत ही उच्चकोटि की है। वे सूफियों की भक्ति भावना के अनुसार कहीं तो परमात्मा को प्रियतम के रूप में देखकर जगत के नाना रूपों में उस प्रियतम के रूप-माधुर्य की छाया देखते हैं और कहीं सारे प्राकृतिक रूपों और व्यापारों को पुरुष के समागम हेतु प्रकृति के श्रृंगार, उत्कंठा या विरह-विकलता के रूप में अनुभव करते हैं।”७
डॉ० चन्द्रबली पाण्डेय के अनुसार -कबीर का रहस्यवाद प्रायः शुष्क और नीरस है, पर जायसी आदि का ऐसा नहीं ।8कबीर और जायसी- दोनों ही हिन्दी साहित्य के सुन्दर रहस्यवादी कलाकार हैं। दोनों ने अपनी-अपनी भावना रूपी बधुओं की झाँकी अपने-अपने ढंग पर सँवारी है। वे दोनों बधुएँ रहस्यात्मकता की दृष्टि से समान होते हुए भी आत्मा की दृष्टि से एक-दूसरे से सर्वथा भिन्न हैं।… कबीर की रहस्यात्मकता भारतीय हठयोग और औपनिषदिक विचारधारा के सुहाग से सम्भूत होने के कारण पूर्ण भारतीय हैं….यह बात दूसरी है कि उस पर चलते-चलते थोड़ा बहुत प्रभाव सूफी साधना का भी पड़ गया हो। किन्तु उसका सम्पूर्ण सौन्दर्य और निष्ठाएँ ठीक उसी प्रकार की हैं, जैसी आदर्श भारतीय बधुओं में पायी जाती है।….अभारतीय सूफी-साधना और भारतीय अद्वैतवाद के संयोग से उत्पन्न उनकी (जायसी की) रहस्य-भावना कुछ बातों में भारतीय और कुछ बातों में अभारतीय है।९तुलनात्मक विवेचनजायसी और कबीर के रहस्यवाद को पूर्ण रूप से देखने के लिए उनकी प्रकृति को समझना आवश्यक है। सभी रहस्यवादी कवियों के काव्यों में प्रायः ये सात अवस्थाएँ पायी जाती हैं : १. जिज्ञासा, २. महत्त्वदर्शन, ३. प्रयत्न, ४. विन एवं वेदना, ५. आभास, ६. अपरोक्ष अनुभूति और ७. चिरमिलन।
डॉ० रामकुमार वर्मा१० ने रहस्यवाद की तीन अवस्थाओं का उल्लेख किया है – प्रथम – स्थिति में आत्मा परमात्मा से सम्बन्ध जोड़ने के लिए अग्रसर होती है, द्वितीय- स्थिति में आत्मा परमात्मा से प्रेम करने लगती है और तृतीय – स्थिति में आत्मा और परमात्मा का पूर्ण मिलन अथवा एकीकरण हो जाता है।अब तक कबीर और जायसी के रहस्यवाद की तुलनात्मक विवेचना करने वाले विद्वानों ने केवल नीरसता और माधुर्य की तुलना की है। कुछ विद्वान इस तथाकथित अन्तर का जायसी में प्रकृति के प्रति रुझान और कबीर में प्रकृति की उपेक्षा को माना है। विद्वानों ने जायसी के रहस्यवाद के पाँच प्रकार माने हैं -१. आध्यात्मिक रहस्यवाद २. प्रकृति-मूलक रहस्यवाद ३. प्रेम मूलक रहस्यवाद ४. भौतिक रहस्यवाद तथा ५. अभिव्यक्ति मूलक रहस्यवादइन रहस्यवादों में से प्रकृति मूलक रहस्यवाद को छोड़कर शेष सबका वर्णन कबीर के रहस्यवाद में मिलता है। कबीर ने प्रकृति-मूलक रहस्यवाद को नहीं अपनाया है। इसका कारण यह है कि कबीर में जहाँ प्रकृति अपने मिथ्यात्व के कारण तिरस्कृत है, वहाँ जायसी में वही परमात्मा के झलक का साधन बन गई है। कबीर में आत्मा और परमात्मा के सौन्दर्य का प्रकाश होने के कारण प्रकृति स्वयं परमात्मा के रूप में प्रतिष्ठित हो गई है।जायसी के रहस्यवाद की सबसे बड़ी विशेषता उनकी प्रेम की पीर है। इसी प्रेम-तत्त्व के कारण उनका रहस्यवाद मधुर से मधुरतम बन गया है और इसी कारण उसमें विलास की झाँकिया मिलती हैं।
जायसी का रहस्यवाद सर्वत्र समष्टिमूलक के रूप में प्रस्तुत हुआ है। सूफीमत और इस्लाम के प्रति पूर्ण आस्था रखने के कारण कहीं-कहीं उनका रहस्यवाद सूफी सिद्धान्तों से पूर्ण रूप से प्रभावित मिलता है। इसके अतिरिक्त समष्टिमूलक दृष्टिकोण होने के कारण उनके रहस्यवाद की अभिव्यक्ति प्रायः अन्योक्ति और समासोक्ति द्वारा हुई है। इसी कारण वह बहुत सांकेतिक और व्यंजनात्मक हो गया है।रहस्यवादी के लिए आस्तिक होना पहली शर्त है। कबीर पूर्ण आस्तिक हैं। उन्होंने नास्तिकों के शून्य को भी ब्रह्म बना दिया है परन्तु उनकी आस्तिकता परम्परा विश्वासों पर आधारित न होकर प्रत्यक्षानुभूति पर आश्रित है -देख्या है तो कस कहूँ, कहै तो को पतियाय।/गूँगे केरी सरकरा, खाये औ बैठा मुस्काय॥११जायसी भी पूर्ण आस्तिक हैं लेकिन उनकी आस्तिकता कबीर से भिन्न है। इस्लाम में प्रत्यक्षानुभूति पर विश्वास न कर इमान पर किया जाता है। इस कारण उनमें भावना और कल्पना का प्राधान्य है – निमिख न लाग कर ओहि सबइ कीन्ह पल एक।/गगन अंतरिख राखा बाज खंभ बिन्दु टेक॥१२उपास्य के मामले में दोनों के ही उपास्य सगुण और निर्गुण के समन्वित रूप वाले है। परन्तु जायसी की प्रेम-भावना समष्टिमूलक है, इसलिए वे अपने आराध्य का चिन्तन एक विराट सौन्दर्यमयी सत्ता के रूप में करते हैं। कबीर की भावना व्यष्टिमूलक है, इसलिए उसमें उस विराट सौन्दर्य के दर्शन नहीं होते। जायसी उसके सौन्दर्य वर्णन के लिए बाह्य साधनों का खुलकर उपयोग करते हैं, जबकि कबीर में बाह्य साधनों की अपेक्षाकृत न्यूनता है।
जायसी पद्मावती के सौन्दर्य में उसी विराट सौन्दर्य का प्रतिरूप देखते हैं – नयन जो देखा कमल भा, निर्मल नीर सरीर।/हँसत जो देखा हँस भा, दसन जोति नगहीर॥१३कबीर का ब्रह्म सुनि मण्डल बासी है -कोई ऐसा न मिले, सब विधि देहि बताय।/सुनि मण्डल में पुरुष एक, ताही रहै ल्यौं लाय॥१४दोनों ही तत्त्व रूप में ब्रह्म के उपासक हैं। दोनों ही शून्यवादी हैं। दोनों के उपास्य सौन्दर्य रूप हैं, किन्तु जायसी की सम्पूर्ण दृष्टि उसी आध्यात्मिक दिव्य सौन्दर्य से ओत-प्रोत है। उनका लक्ष्य सौन्दर्य की प्राप्ति है। इसके विपरीत कबीर के पास अपने आराध्य के सौन्दर्य को व्यक्त करने के साधन नहीं हैं। वे उसे केवल प्रकाश-स्वरूप कहकर ही संतोष कर लेते हैं। यदि उन्होंने कहीं प्रयत्न भी किया है तो उसमें जायसी का-सा भावात्मक सरस एवं ग्राह्य सौन्दर्य नहीं आ पाया है।ब्रह्म की अनुभूति के विषय में दोनों समान विश्वास करते हैं। परन्तु कबीर-औपे आप चिनारिया, तब केत होय आनन्द रे। कहकर उसे विचार प्रधान बना देते हैं। जायसी-आप पिछौनें आपै आप” कहकर उसे भावना-प्रधान बना देते हैं। इस अनुभूति के लिए कबीर का विश्वास है कि – कुछ करनी कुछ करमगति, कछू पूरबला लेख।” की सहायता से ही उस आलेख की अनुभूति की जा सकती है। इसके विपरीत जायसी – न जानौ कौन पौन लइे पाया। कहकर केवल आराध्य की कृपा पर ही विश्वास करते हैं।
कबीर और जायसी दोनों ने ही प्रेम रूपी अमृत का पान किया है, परन्तु जायसी के प्रेम में मादकता, कोमलता और भावुकता का प्राधान्य है। उनके अनुसार – प्रेम फाँद जो परा न छूटा। जिउ जाइ पै फाँद न टूटा। यह प्रेम की अग्नि बड़ी भयानक है, जो सारी सृष्टि में व्याप्त है। वह विरही और वह हृदय धन्य है, जिसमें यह समा जाती है – मुहम्मद चिनगी प्रेम की, सुनि महि गगन डराय।/धनि बिरही और धनि हिया, जहै अस अगिनि समाय।१५विरह और मिलन के वर्णन में दोनों में कोई मौलिक अन्तर नहीं दिखाई पड़ता। दोनों पर कुछ हद तक सूफी काव्य परम्परा का प्रभाव पड़ा है। दोनों को ही अपने प्रियतम का पता गुरु द्वारा मिलता है। कबीर को यह प्रेमतत्त्व के रूप में तथा जायसी को विरह-तत्त्व के रूप में प्राप्त होता है। कबीर को -गुरु ने प्रेम का अंग पढ़ाय दिया रे तथा जायसी को गुरु बिरह चिनङ्गी जो मेला। सो सुलगाई लेइ जो चेला।जायसी का प्रेम रूप-लिप्सा जनित है और कबीर का संस्कार-मूलक। यही कारण है कि सूफियों के प्रेम में अलौकिक भक्ति के साथ-साथ लौकिक रति को भी महत्त्व मिला है। जायसी का सम्पूर्ण काव्य सौन्दर्य और प्रेम की भावना से विभोर है। इस लौकिक सौन्दर्य और रति के कारण ही जायसी के रहस्यवाद में मादकता एवं विकास का पुट अत्यंत गहरा हो गया है।कबीर में इस प्रकार के वर्णन का अभाव है। जायसी और कबीर के प्रेम में विरह और मिलन के कुछ उद्धरण प्रस्तुत हैं -विरह -सब रग तंत रबान तन, विरह बजावै नित्त/और न कोई सुनि सकै, कै साँई के चित्त।१६ रकत ढरा माँसू गरा हाड़ भए सब संख।/धनि सारस होई ररि मुई आइ समेटहु पंख।१७मिलन -कहा मानसर चहा सो पाई। पारस रूप इहाँ लगि आई॥/भा निरमर तेन्ह पायन परसें। पावा रूप रूप के दरसें॥/मलै समीर बास तन आई। भा सीतल गै तपन बुझाई॥/न जनौं कौनु पौन लै आवा। पुन्नि दसा मैं पाप गँवावा॥१८ हरि संगति सीतल भया, मिटी मोह की ताप।/निज बासुरि सुख निधि लह्‌या, जब अन्तर प्रगट्या आप॥१९आध्यात्मिक अनुभूतिडॉ० त्रिगुणायत के अनुसार कुमारी अण्डरहिल नामक अंग्रेज महिला ने इस अनुभूति की पाँच अवस्थाएँ मानी हैं -१. आत्मा की जाग्रतावस्था – इसमें ब्रह्म-जिज्ञासा उत्पन्न होती है और साधक ज्ञान और वैराग्य की ओर उन्मुख होने लगता है।२. आत्मा के परिष्करण की स्थिति – इसमें साधक विविध प्रकार की साधनाओं में लग जाता है।३. आत्मा की आंशिक अनुभूति की स्थिति – साधक इसमें विविध ध्वनियाँ सुनता है और विविध दृश्य देखता है।४. रहस्यानुभूति के विनों की अवस्था-इसमें ईश्वरानुभूति में बाधाएँ पड़ने लगती है।५. तादात्म्क की स्थिति – यह आत्मा-परमात्मा के साक्षात्कार और तादात्म्य की स्थिति है।उपर्युक्त सभी स्थितियों का वर्णन सूफी तो बड़े विस्तार से करते हैं, किन्तु कबीर ने उनका वर्णन समान रूप से किया है। पहली स्थिति जो जाग्रतावस्था कहलाती है, में कबीर और जायसी ने गहरी जिज्ञासा और मिलन के लिए व्याकुलता दिखाई है। जायसी का रत्नसेन जब अपनी प्रियतमा के दिव्य सौन्दर्य की तन्मयता से जागता है तो सारा संसार उसे नीरस लगने लगता है और उसमें वैराग्य भावना उत्पन्न हो जाती है – जब भा चेत उठा बैरागा(जायसी)कबीर वैराग्य को महत्त्व नहीं देते। उनके लिए ज्ञान ही सब कुछ है – कबीर जाग्याहि चाहिए, क्या घर क्या वैराग।
(कबीर)साधना की दूसरी अवस्था में साधक विरह से व्यथित होने के साथ ही आराध्य की प्राप्ति के लिए प्रयत्न करने लगता है। कबीर के विरह वर्णन में सूफी और भक्त दोनों पद्धतियों का प्रभाव है। भक्तों से प्रभावित होकर वे -जिन पर गोविन्द बीछुड़े, तिनको कौन हवाल। कहने लगते हैं और सूफियों का अनुसरण करते हुए कहते हैं – अंषड़िया झांई पड़ी, पंथ निहारि निहारि।/जीभड़िया छाला पड़या, राम पुकारि पुकारि।२०जायसी ने कबीर की यौगिक साधना की तरह सूफी-साधना अपनाई है। इसमें अपना कल्ब (हृदय) शुद्ध करके रूह को विकसित करना पड़ता है। इस शुद्धि के लिए साधक को सात मुकामात से होकर गुजरना पड़ता है। साथ ही उसे ईश्वर स्मरण और जप आदि भी करना पड़ता है। ये हालात कहलाते हैं। इस प्रकार साधक शुद्धाचरण आदि की सहायता से अपने शरीर और मन की शुद्धि कर साधना के मार्ग पर आगे बढ़ता है। इस मार्ग पर चार पड़ाव पड़ते है-शरीयत, तरीकत, हकीकत और मारफत। अन्तिम अवस्था हाल अर्थात्‌ भावातिरेक की चरम अवस्था होती है और यहीं आकर रूह फना होकर आराध्य से जा मिलती है।जायसी में उपर्युक्त सम्पूर्ण अवस्थाओं के चित्राण मिलते हैं। उन्होंने प्रियतमा की प्राप्ति-चार बसेरे सों चढैं, सत सों उतरे पार कहकर इसी सूफी साधना पद्धति का पालन किया है। जबकि कबीर ज्ञान, वैराग्य और योग द्वारा आत्म परिष्करण कर भक्ति में तन्मय हो साक्षात्कार करना चाहते हैं। इसके लिए उन्होंने स्थान-स्थान पर-जल में कुम्भ, कुम्भ में जल है जैसे सिद्धान्त, वाक्य कहकर ज्ञान को प्रधानता दी है।साधना की तीसरी अवस्था में साधक को आराध्य की झलक-सी मिल जाती है। कबीर इस स्थिति का आभास पाकर हर्ष से उन्मत्त हो उठते हैं। यथा – जरा मरण व्यापै नहीं, युवा न सुनिये कोय।/चलि कबीर तेहि देसिडे, जहँ वैद विधाता होय॥२१इस वर्णन में तीव्रता तो है, मगर सरसता और कोमलता की रमणीयता नहीं आ पाई है। जायसी के ऐसे वर्णनों में पर्याप्त सरसता और माधुर्य है। प्रियतम की झलक का वर्णन करने के उपरांत जायसी उस लोक का चित्रण करते हैं – जहाँ न राति न दिवस है, जहाँ न पौन न पानि।/तेहि बन सुअटा चल बसा, कौन मिलावै आनि।२३चौथी अवस्था विन की अवस्था है। साधक के मार्ग में अनेक विन बाधाएँ उत्पन्न होती हैं। कबीर इन बाधाओं को माया का रूप देते हैं। माया ठगिनी का रूप धारण कर अनेक विन बाधाएँ उत्पन्न करती है। इसी प्रकार जायसी ने भी अपने नायक के मार्ग में पड़ने वाली विविध कठिनाईयों का वर्णन बड़े विस्तार से किया है परन्तु जायसी ने कबीर के समान माया के विभिन्न जालों द्वारा उत्पन्न कठिनाईयों की तरफ कोई ध्यान नहीं दिया है। साधक की अंतिम स्थिति मिलन की अवस्था है। मिलन होने पर साधक पूर्ण सिद्धावस्था को प्राप्त हो जाता है।
कबीर आराध्य से मिलन मात्रा की कल्पना से काँप उठते हैं। जायसी ने मिलन से पूर्व की इस रोमांचित अवस्था का चित्रण ऐसा ही किया है किन्तु उसमें लौकिकता का प्राधान्य है। जायसी के इस वर्णन में रमणीयता है, एक अलौकिक आनन्द है। इसकी तुलना में कबीर का वर्णन शुष्क और नीरस है। इसका कारण यह है कि कबीर उपनिषदों से प्रभावित हैं, जबकि जायसी सूफी सौन्दर्यवाद और प्रतिबिम्बवाद से प्रभावित है। पूर्ण मिलन ही दोनों साधकों की साधना की पूर्ण स्थिति है। इस स्थिति के परिणाम स्वरूप कबीर तो पूर्ण रूप से जीवनमुक्त हो जाते हैं और अमर हो जाते हैं – हम न मरे मरिहैं संसार, हमकू मिले जियावन हारा।रहस्यवाद एक आध्यात्मिक अनुभूति का परिणाम है। अतः इसकी अभिव्यक्ति साधारण रूप से नहीं हो सकती। कबीर और जायसी दोनों ने इसकी अभिव्यक्ति अलग अलग ढंग से की है। कबीर ने प्रतीक-पद्धति, रूपक पद्धति तथा उलटबाँसियों की सहायता से अपने रहस्यवाद की अभिव्यक्ति की है तो जायसी ने अपनी स्वानुभूति की अभिव्यक्ति के लिए प्रेम-कथा का सहारा लेकर उसमें असफल अन्योक्ति और सफल समासोक्ति का प्रयोग किया हैं। साथ ही उन्होंने प्रतीक पद्धति को भी अपनाया है।
अतः कहा जा सकता है कि जायसी और कबीर हिन्दी साहित्य के श्रेष्ठ रहस्यवादी कवि हैं। एक (कबीर) का रहस्यवाद आध्यात्मिक, एकान्तिक व्यष्टिमूलक, सजीव और वर्णनात्मक है, तो दूसरे (जायसी) का सरस, संकेतात्मक और समष्टिमूलक है।

काव्य और साहित्य के क्षेत्र में विद्यापति का योगदान

काव्य और साहित्य के क्षेत्र में महाकवि ने निम्नलिखित ग्रन्थों की रचना की

(क) पुरुषपरीक्षा
(ख) भूपरिक्रमा
(ग) कीर्तिलता
(घ) कीर्तिपताका
(च) गोरक्षविजयांटक तथा
(छ) मणिमंजरीनाटिका।

इन ग्रन्थों के सम्बन्ध में संक्षिप्त विवरण नीचे दिया जा रहा है:

(क) पुरुषपरीक्षा

महाकवि विद्यापति ठाकुर ने पुरुष परीक्षा की रचना महाराजा शिवसिंह के निर्देशन पर किया था। यह ग्रन्थ पश्चिम के समाजशास्रियों के इस भ्रान्त कि “भारत में concept of man in Indian Tradition नामक विषय पर पटना विश्वविद्यालय के महान समाजशास्री प्रो. हेतुकर झा ने एक उत्तम कोटि की ग्रन्थ की रचना की है। यह ग्रन्थ समाजशास्रियों, इतिहासकारों, मानव वैज्ञानिको, राजनीतिशास्रियों के साथ-साथ दर्शन एवं साहित्य के लोगों के लिए भी एक अपूर्व कृति है। पुरुषपरीक्षा की कथा दी गयी है। वीरकथा, सुबुद्धिकथा, सुविद्यकथा और पुरुषार्थकथा- इन चार वर्गों पञ्चतन्त्र की परम्परा में शिक्षाप्रद कथाएँ प्रस्तुत की गयी हैं।

(ख) भूपरिक्रमा

भूपरिक्रमा नामक एक अत्यन्त प्रभावकारी ग्रन्थ की रचना महाकवि विद्यापति ठाकुर ने महाराज देवसिंह की आज्ञा से की थी। इस ग्रन्थ में बलदेवजी द्वारा की गयी भूपरिक्रमा का वर्णन है और नैमिषारण्य से मिथिला तक के सभी तीर्थ स्थलों का वर्णन है। भूपरिक्रमा को महाकवि का प्रथम ग्रन्थ माना जाता है। कारण, औइनवारवंशीय जिन राजा या रानियों के आदेश से कविश्रेष्ठ विद्यापति ठाकुर ने ग्रन्थ रचना की, उनमें सबसे वयोवृद्ध देवसिंह ही थे। भाषा और शैली की दृष्टि से भी मालूम होता है कि यह कवि की प्रथम रचना है।

(ग) कीर्तिलता

परवर्ती अपभ्रंश को ही संभवत: महाकवि ने अवहट्ठ नाम दिया है। ज्ञातव्य है कि महाकवि के पूर्व अद्दहयाण (अब्दुल रहमान) ने भी ‘सन्देशरासक’ की भाषा को अबहट्ठ ही कहा था। कीर्तिलता की रचना महाकवि विद्यापति ठाकुर ने अवहट्ठ में की है और इसमें महाराजा कीर्तिसिंह का कीर्तिकीर्तन किया है। ग्रन्थ के आरम्भ में ही महाकवि लिखते है:

… श्रोतुर्ज्ञातुर्वदान्यस्य कीर्तिसिंह महीपते:।
करोतु कवितु: काव्यं भव्यं विद्यापति: कवि:।।

अर्थात् महाराज कीर्तिसिंह काव्य सुननेवाले, दान देनेवाले, उदार तथा कविता करनेवाले हैं। इनके लिए सुन्दर, मनोहर काव्य की रचना कवि विद्यापति करते हैं। यह ग्रन्थ प्राचीन काव्यरुढियों के अनुरुप शुक-शुकी-संवाद के रुप में लिखा गया है।

कीर्तिसिंह के पिता राम गणेश्वर की हत्या असलान नामक पवन सरदार ने छल से करके मिथिला पर अधिकार कर लिया था। पिता की हत्या का बदला लेने तथा राज्य की पुनर्प्राप्ति के लिए कीर्तिसिंह अपने भाई वीरसिंह के साथा जौनापुर (जौनपुर) गये और वहाँ के सुलतान की सहायता से असलान को युद्ध में परास्त कर मिथिला पर पुन: अधिकार किया। जौनपुर की यात्रा, वहाँ के हाट-बाजार का वर्णन तथा महाराज कीर्तिसिंह की वीरता का उल्लेख कीर्तिलता में है। इसके वर्णनों में यर्थाध के साथ शास्राय पद्धति का प्रभाव भी है। वर्णन के ब्यौरे पर ज्योतिरीश्वर के वर्णरत्नाकर की स्पष्ट धाप है। तत्कालीन राजनैतिक, सामाजिक और सांस्कृतिक स्थिति के अध्ययन के लिए कीर्तिलता से बहुत सहायता ली जा सकती है। इस ग्रन्थ की रचना तक महाकवि विद्यापति ठाकुर का काव्यकला प्रौढ़ हो चुकी थी। इसी कारण इन्होंने आत्मगौरवपरक पंक्तियाँ लिखी:

बालचन्द विज्जावड़ भासा, दुहु नहिं लग्गइ दुज्जन हासा।
ओ परमेसर हर सिर सोहइ, ई णिच्चई नाअर मन मोहइ।।

चतुर्थ पल्लव के अन्त में महाकवि लिखते हैं:

“…माधुर्य प्रसवस्थली गुरुयशोविस्तार शिक्षासखी।
यावद्धिश्चमिदञ्च खेलतु कवेर्विद्यापतेर्भारती।।”

म.म. हरप्रसाद शास्री ने भ्रमवश ‘खेलतु कवे:’ के स्थान पर ‘खेलनकवे:’ पढ़ लिया और तब से डॉ. बाबूराम सक्सेना, विमानविहारी मजुमदार, डॉ. जयकान्त मिश्र, डॉ. शिवप्रसाद सिंह प्रभृति विद्धानों ने विद्यापति का उपनाम ‘खेलन कवि’ मान लिया। यह अनवमान कर लिया गया कि चूँकि कवि अपने को ‘खेलन कवि’ कहता है, अर्थात् उसके खेलने की ही उम्र है, इसलिए कीर्तिलता महाकवि विद्यापति ठाकुर की प्रथम रचना है। अब इस भ्रम की कोई गुंजाइश नहीं है और कीर्तिलता में कवि की विकसित काव्य-प्रतिमा के दर्शन होते हैं।

(घ) कीर्तिपताका

महाकवि विद्यापति ठाकुर ने बड़े ही चतुरता से महाराजा शिवसिंह का यशोवर्णन किया है। इस ग्रन्थ की रचना दोहा और छन्द में की गयी है। कहीं-कहीं पर संस्कृत के श्लोकों का भी प्रयोग किया गया है। कीर्तिपताका ग्रन्थ की खण्डित प्रति ही उपलब्ध है, जिसके बीच में ९ से २९ तक के २१ पृष्ठ अप्राप्त हैं। ग्रन्थ के प्रारंभ में अर्द्धनारीश्वर, चन्द्रचूड़ शिव और गणेश की वन्दना है। कीर्तिपताका ग्रन्थ के ३० वें पृष्ठ से अन्त तक शिवसिंह के युद्ध पराक्रम का वर्णन है। इसलिए डॉ. वीरेन्द्र श्रीवास्तव अपना वक्तव्य कुछ इस तरह लिखते हैं कि “अत: निर्विवाद रुप से पिछले अंश को विद्यापति-विरचित कीर्तिपताका कहा जा सकता है, जो वीरगाथा के अनुरुप वीररस की औजस्विता से पूर्ण है” (विद्यापति-अनुशीलन एवं मूल्यांकन खण्ड-१, पृ.३०)।

(च) गोरक्षविजय

गोरक्षविजय के रुप में विद्यापति ने एक नूतन प्रयोग किया है। यह एक एकांकी नाटक है। इसके कथनोपकथन में संस्कृत और प्राकृत भाषा का प्रयोग है। गीत कवि की मातृभाषा मैथिली में है। गोरक्षनाथ और मत्स्येन्द्रनाथ की प्रसिद्ध कथा पर यह नाटक आधारित है। कहते हैं कि महाकवि ने इस नाटक की रचना महाराजा शिवसिंह की आज्ञा से किया था।

(छ) मणिमंजरा नाटिका

यह एक लघु नाटिका है। इस नाटिका में राजा चन्द्रसेन और मणिमंजरी के प्रेम का वर्णन है।

 

हिंदी की पहली कहानी-एक टोकरी भर मिट्टी

हिंदी की पहली कहानी-एक टोकरी भर मिट्टी

पुष्पपाल सिंह

बीते जमाने की कथा पत्रिका सारिका ने प्रत्येक भारतीय  भाषा की आदि कहानी, पहली कहानी तलाश करने का बडा सार्थक प्रयत्न किया था। इसी क्रम में हिंदी की पहली कहानी के रूप में पं. माधपराव सप्रे की एक टोकरी भर मिट्टी को हिंदी की पहली कहानी के रूप में प्रस्थापित किया गया था। इससे पूर्व हिंदी की पहली कहानी के रूप में दुलाई वाली (बंग महिला राजेंद्र बाला घोष) से लेकर ग्यारह वर्ष का समय (आचार्य रामचंद्र शुक्ल) और 1915 ई. में प्रकाशित उसने कहा था तक भी इस चर्चा को खींचा गया था किंतु हिंदी की पहली मौलिक कहानी के रूप में अब पं. माधवराव सप्रे की कहानी एक टोकरी भर मिट्टी जो अप्रैल 1901 के छत्तीसगढ मित्र नामक पत्र में प्रकाशित हुई थी, को प्राय: सर्वसम्मत मान्यता प्राप्त हो गई है। हमारी दृष्टि से भी यही हिंदी की पहली मौलिक कहानी कही जा सकती है क्योंकि इसके बाद हिंदी कहानी का प्रवाह बह चला।

मध्यप्रदेश के ही देवीप्रसाद वर्मा ने सपे्र की इस कहानी को हिंदी की प्रथम मौलिक कहानी के रूप में पेश किया। यद्यपि देवी प्रसाद वर्मा ने पहले एक टोकरी भर मिट्टी को ही सप्रेजी की प्रथम मौलिक कहानी के रूप में प्रस्तावित किया, पर फिर समय को थोडा और पीछे खींचने के दुराग्रह में वे सप्रेजी की ही फरवरी 1900 ई. में प्रकाशित सुभाषित रत्‍‌न को उनकी पहली मौलिक कहानी बताते रहे। सप्रेजी की कहानियों की सूची इस प्रकार पेश की गई: सुभाषित रत्‍‌न जनवरी 1990 ई., एक टोकरी भर मिट्टी- अप्रैल, 1901 ई. और एक व्यंग्य जून 1990 ई. पर वास्तविकता यह है कि इनमें से एक टोकरी भर मिट्टी ही पं. माधव राव सप्रे की एकमात्र मौलिक कहानी है। जिस सुभाषित रत्‍‌न को देवी प्रसाद वर्मा ने प्रथम मौलिक कहानी के रूप में प्रस्थापित करना चाहा, वह अपने रूपबंध (फार्म) में कहानी में न होकर संस्कृत के सुभाषितों का महत्व प्रस्थापन है। वस्तुत: देवीप्रसाद वर्मा को यह स्वयं स्पष्ट नहीं हो पाया कि वे किसे सप्रेजी की मौलिक कहानी मानते हैं, इसलिए वे अपने आप में विरोधपूर्ण तर्क देते हैं। यदि एक ओर वे सुभाषित रत्‍‌न को उनकी प्रथम मौलिक कहानी मानते है तो दूसरी और यह भी कहते हैं, सवा साल की कथा यात्रा में उनके विभिन्न प्रयोग उनकी सही कहानी की तलाश को प्रमाणित करते हैं। यह बात भी अलग महत्व रखती है कि एक टोकरी भर मिट्टी लिखने के बाद सप्रेजी ने कोई भी कहानी नहीं लिखी। इससे हमारे कथन की ही पुष्टि मिलती है कि, एक टोकरी भर मिट्टी हिंदी की प्रथम मौलिक कहानी है।

जब हम किसी कृति, रचना या रचनाकार की प्रशंसा करने लगते हैं, तब रुकते कहां हैं! उसे सातवें आसमान से नीचे लाकर छोडते ही नहीं हैं। हिंदी आलोचना का यह फतवेबाजी का खास अंदाज रहा है। देवीप्रसाद वर्मा ऐसा ही एक टोकरी भर मिट्टी के विषय में कहते हैं सातवें दशक में कहानी का जो स्वरूप आज हमारे सम्मुख है, उसके सभी बीज इस कहानी में स्पष्ट हैं-नई कहानी के प्रबल पक्षधर कमलेश्वर की वाणी किसी सीमा तक प्रस्तुत कहानी में मिलती है। ऐसा कहकर पता नहीं देवी प्रसाद वर्मा कमलेश्वर को पीछे क्यों खींचना चाहते हैं? सातवें दशक की हिंदी की जिस कहानी को उसकी गुणवत्ता के आधार पर विश्व स्तर की कहानी के सम्मुख सगर्व रखा गया, उसे वे हिंदी की पहली कहानी में ही बीज रूप में पा रहे हैं। किसी कहानीकार को हिंदी का पहला कहानीकार सिद्घ करने के लिए ऐसे गैरजिम्मेदाराना कथनों की आवश्यकता नहीं हैं।

एक टोकरी भर मिट्टी एक प्रभावी कहानी हैं, जिसमें वृद्घा की मार्मिक उक्ति जमींदार की वृत्ति ही परिवर्तित कर देती है। एक गरीब विधवा अपनी पौत्री के साथ अपनी झोपडी में रहती थी। यह उसकी बहुत पुश्तैनी झोपडी थी उसका बेटा इस झोपडी में ही मर गया था। उसके बेटे की बहू भी पांच वर्ष की कन्या को छोडकर मर गई थी और अब यही एक बालिका उसका एकमात्र आधार थी। जमींदार का महल उस झोपडी के पास ही था। उसे अपने महल के अहाते को झोपडी के स्थान तक बढाने की इच्छा हुई। बुढिया से बहुत कहा गया पर उसने अपनी झोपडी नहीं छोडी। किन्तु जमींदार ने अपने बल के धन पर अदालत द्वारा झोपडी पर अपना कब्जा कर लिया। विधवा को वहां से निकाल दिया गया। वह कहीं पडोस में जा कर रहने लगी।

एक दिन जब जमींदार उस झोपडी की भूमि पर मजदूरों से काम करा रहा था तो वह बुढिया हाथ में एक टोकरी लेकर वहां पहुंची। उसने अपनी पोती का बहाना बना कर बहुत अधिक मिन्नतें करके एक टोकरी भर मिट्टी वहां से लेनी चाही, जिससे चूल्हा बनाकर उस पर रोटी बना कर अपनी पोती को खिला सके। जमींदार ने झोपडी में से एक टोकरी मिट्टी ले जाने की आज्ञा दे दी। झोपडी के भीतर पहुंचते ही वृद्धा स्मृतियों में खो गई, उसकी अश्रुधारा बह चली। किसी प्रकार अपने पर नियंत्रण रख कर उसने अपनी टोकरी मिट्टी से भर ली। फिर उसने जमींदार से प्रार्थना की कि उसकी टोकरी उठवा दे। जमींदार पहले तो नाराज होता है, पर वृद्धा के अनुनय विनय को मानकर उठवाने के लिए चल पडता है। पर टोकरी उससे टस से मस नहीं होती है। हार कर उसे कहना पडता है, यह टोकरी हमसे न उठाई जाएगी। यह सुन कर उस विधवा ने कहा, महाराज आप नाराज न हों, पर जब आपसे एक टोकरी भर मिट्टी नहीं उठाई जाती तो इस झोपडी में तो हजारों टोकरियां मिट्टी है, उसका भार आप जन्मभर नहीं उठा पाएंगे। बुढिया के ये मर्म वचन सुन कर जमींदार की आंखें खुल जाती हैं। उन्हें अपने किए हुए पर पछतावा होता है, वह क्षमा मांगते हुए उसे उसकी झोपडी लौटा देते हैं।

इस प्रकार यह संक्षिप्त-सी कथा बडे प्रभावी रूप से अपनी बात कहती है। एक छोटे-से-मर्म-कथन से असद् पात्र का हृदय-परिवर्तन करा कर उसे सद्कोटि में आदर्शात्मक समाधान के रूप में ला दिया जाता है। किंतु यह इतने कुशल रूप में दिया गया आदर्श है कि कहानी की संवेदना पर भारी नहीं पडता और न ही संस्कृत की नीति-कथाओं जैसा है। सब कुछ पूर्ण स्वाभाविक, सहज, रूप में घटित होता है।

एक महत्वपूर्ण बात यह है कि हिंदी की पहली ही कहानी में तीव्र सामाजिक संवेदना है। जमींदार के अत्याचार को कहानी समस्या के रूप में उठाती ही नहीं अपितु उसका प्रतिकार भी वृद्धा के माध्यम से कराती है। पहली ही कहानी सामाजिक अन्याय के विरोध में इस प्रकार खडी हो सकी, हिंदी कहानी की यह बहुत महत्वपूर्ण उपलब्धि है। बहुत चुन कर आवश्यक प्रसंगों का ही कहानी में नियोजन किया गया है, यह कहानीकार के कौशल का परिचायक है, कहानी की संक्षिप्ति में एक गहन और व्यापक संवेदना है।

कहानी की भाषा-शैली भी तत्कालीन कथा-लेखकों से कुछ अलग हटकर कहानी विधा की प्रवृत्ति के अनुरूप है। बोलचाल की सामान्य भाषा और ऋजु प्रवाहमयी यथा एक दिन श्रीमान उस झोपडी के आसपास टहल रहे थे और लोगों को काम बतला रहे थे कि इतने में वह विधवा हाथ में टोकरी लेकर वहां पहुंची। कहीं-कहीं अत्यन्त छोटे-छोटे बडे प्रभावी वाक्य हैं, विधवा झोपडी के भीतर गई या बेचारी अनाथ तो थी ही। पास-पडोस में जाकर कहीं रहने लगी। कहना न होगा कि मिजाज में यह भाषा कहानी के कितनी अनुकूल है, एक जीवनधर्मी गंध लिए हुए। कहानी के संवाद भी अत्यन्त चुस्त-दुरुस्त और स्वाभाविक बन पडे हैं।

कहानी शिल्प की दृष्टि से भी पुष्ट है। इस कहानी ने हिंदी कहानी को बहुत दूर तक प्रभावित किया। सुदर्शन की हार की जीत कहानी में भी बाबा भारती के ऐसे ही छोटे से मर्म कथन से डाकू का हृदय-परिवर्तन हो जाता है। इस प्रकार यह कहनी-कहानी-कला की दृष्टि से पर्याप्त निखरी हुई और प्रभावी है। (जागरण से)

रामधारी सिंह ‘दिनकर’ का काव्य:राष्ट्रीय सांस्कृतिक चेतना की अभिव्यक्ति

रामधारी सिंह ‘दिनकर’ के कृतित्व ने विचारकों का ध्यान जिन दिशाओं की ओर आकृष्ट किया है, वे हैं – उनकी ओजस्विता, गतिशीलता, गीतोन्मुखता, विद्रोही स्वर, सांस्कृतिक और राष्ट्रीय चेतना, मंगल कामना और विवेक की संयुक्ति तथा जनतांत्रिक विचार।

दिनकर के काव्य पर विचार करते समय कुछ प्रश्न उपस्थित होते हैं :-

क्या दिनकर स्वच्छन्द धारा के कवि हैं ? 

क्या दिनकर ‘अज्ञेय’ के कथन के अनुरूप रोमांटिक राष्ट्रवादी हैं अथवा डॉ. नगेन्द्र के कथन के अनुरूप सांस्कृतिक राष्ट्रवादी कवि हैं?

एक ही काल और परिस्थिति में जीवित रहकर भी दिनकर का काव्य पंत, प्रसाद, निराला और मैथिलीशरण गुप्त के काव्य से किस प्रकार भिन्न है और क्या उसे किसी वाद के घेरे में बाँधा जा सकता है ?

दिनकर का चिन्तन केवल चिन्तन ही है या कोई समाधान भी प्रस्तुत करता है ?

स्वच्छन्दतावाद को प्राय: यूरोपीय रोमाण्टिसिज्म का समानार्थी माना जाता है। हिन्दी के स्वच्छन्दतावादी कवि जिन्हें ‘छायावादी कवि’ के नाम से अभिहित किया जाता है, भावप्रवणता एवं कल्पना अथवा अन्तर्दृष्टि के बल पर अन्त: सौन्दर्य का उद्धाटन करने में समर्थ रचनाकारों के रूप में अपनी पहचान स्थापित करते हैं। प्रकृति के कण-कण में आध्यात्मिक चेतना और सौन्दर्य का प्रसार देखने के कारण उन्हें सर्वात्मवादी एवं प्रकृत-रहस्यवादी भी कहा गया है। डॉ. हजारी प्रसाद द्विवेदी रोमांटिक साहित्य के मूल में ‘उन्मुक्त आवेगों की प्रधानता तथा कल्पना प्रवण अर्न्तदृष्टि’ स्वीकार करते हैं तो पं. नन्द दुलारे वाजपेयी रोमांटिक धारा के मूल में स्वतन्त्रता की लालसा और बन्धनों के त्याग की व्याप्ति मानते हैं। यहॉ यह भी कहना अभीष्ट है कि हिन्दी स्वच्छन्दतावादी काव्य में रोमानी प्रवृत्तियों की प्रधानता हैकिन्तु इसी काव्य धारा में सांस्कृतिक/राष्ट्रीय तत्व भी समाहित हैं। सांस्कृतिक एवं राष्ट्रीय पक्ष की प्रमुखता को लेकर हिन्दी में जिन कवियों ने रचनाएं की हैं, उनकी एक अलग उपधारा है और इस उपधारा के कवि हैं :- (1) माखन लाल चतुर्वेदी (2) सियाराम शरण गुप्त (3) बालकृष्ण शर्मा ‘नवीन’ (4) दिनकर ।

कामायनी जैसी गरिमामयी कृति की विषय-वस्तु और उसकी शिल्पविधि का प्रभाव ‘दिनकर’ पर है किन्तु उसके आगे वे नतशिर नहीं हुए। स्वच्छन्दतावाद से दिनकर की भिन्नता को संकेत रूप में इस प्रकार अभिव्यक्त किया जा सकता है कि दिनकर ने ‘बनफूल’ को प्रकृति प्रेमी के रूप में नहीं बल्कि जीवन दृष्टा के रूप में ‘साधारण’ का प्रतीक मानकर श्रध्दापूर्वक ग्रहण किया है। वर्ण्य विषय का यह विपर्यय मूलत: स्वच्छन्दतावाद से परिचालित होते हुए भी छायावादी काव्य रूढ़ियों के विपरीत पड़ा है। दिनकर की प्रारम्भिक रचनाओं में यह विपर्यय ‘विद्रोह’ के रूप में अंकित है। आरम्भिक काव्य में श्रृंगार और हुंकार की सम्मिलित भूमि देखी जा सकती है। ‘रेणुका‘ काव्य संकलन के आरम्भ में ‘युगधर्म’ और ‘जागृति-हुंकार‘ अभिव्यक्त है। ‘हिमालय के प्रति’ कविता में राष्ट्रीय-सांस्कृतिक चेतना की खुली अभिव्यक्ति हुई है। पुण्य भूमि पर कराल संकट आ पड़ा है और व्याकुल सुत तड़प रहे हैं। आह्वान है :- 

कह दे शंकर से, आज करें, वे प्रलय नृत्य फिर एक बार, 

सारे भारत में गूँज उठे, ‘हर-हर-बम’ का फिर महोच्चार।

‘रेणुका’ में रोमानी कविताएँ राष्ट्रीय चेतना को साथ लेकर चलीं पर ‘हुंकार’ में कवि अधिक आक्रोशी मुद्रा अपनाता है। ‘रसवंती’ में दिनकर आरम्भ से ही अधिक उदात्त भूमि पर खड़े दिखाई पड़ते हैं। तभी वे ‘उर्वशी’ में ‘कामाध्यात्म’ का प्रक्षेपण कर सके। दिनकर के प्रारम्भिक काव्य चरण में स्वच्छंदतावादी काव्य के दो तत्व-रोमानीवृत्तिा और राष्ट्रीय सांस्कृतिक चेतना मुख्य रूप से दिखाई पड़ते हैं किन्तु प्रारम्भ से ही वे अपने स्वतंत्र व्यक्तित्व के निर्माण के प्रति सचेत रहे और इसी कारण वे अधिक उदात्ता भूमियों पर संचरण करने में सफल हुए। दिनकर की 1955 ई. में प्रकाशित ‘नील-कुसुम’ को हिन्दी के कुछ विद्वानों ने प्रयोगवादी रचना माना है किन्तु मेरी दृष्टि में ‘नील-कुसुम‘ में संगृहीत रचनाएं प्रयोगवादी रचनाएं नहीं हैं- :

1.दिनकर जी यह नहीं मानते कि जिस नई संवेदना के वे वाहक हैं वह हिन्द के सामान्य पाठक को छू तक नहीं गई है।

2. इसमें संकलित कविताओं के विषय ‘अपरिचित, अप्रत्याशित और अनपेक्षित नहीं हैं।

3.प्रयोगवादी कविता मूलत: प्रश्न चिन्हों की कविता है, संदेह और आशंका की कविता है, नील कुसुम वैसी कृति नहीं हैं। उसमें परम्परा की सुरभि का अभाव नहीं है।

नील कुसुम की कविताएँ उनकी काव्य यात्रा की ऐसी आधारशिला है जिस पर वे ‘उर्वशी’ जैसी प्रबन्ध रचना का निर्माण कर सके। कुरुक्षेत्र एवं उर्वशी उनके विशेष चर्चित आख्यानकाव्य हैं तथा इन कृतियों में दिनकर ने अपनी गीतात्मक प्रवृत्तियों को जीवन के कतिपय वृहत्तर संदर्भों की ओर मोड़ा। कुरुक्षेत्र में युद्ध एवं शान्ति का संदर्भ एवं प्रसंग है, पर संघर्ष से बचने का समर्थन नहीं है। युद्ध एक तूफान है जो भीषण विनाश करता है पर जब तक समाज में शोषण, दमन, अन्याय मौजूद है तब तक संघर्ष अनिवार्य है :

युद्ध को तुम निन्द्य कहते हो, मगर, 

जब तलक हैं उठ रही चिनगारियाँ

भिन्न स्वार्थो के कुलिश-संघर्ष की,

युद्ध तब तक विश्व में अनिवार्य है।

x x x x x x x x x x x

व्यक्ति का है धर्म तप, करुणा, क्षमा,

व्यक्ति को शोभा विनय भी, त्याग भी,

किन्तु उठता प्रश्न जब समुदाय का,

भूलना पड़ता हमें तप-त्याग को। 

दिनकर ने वैयक्तिक ‘मुक्ति’ की अपेक्षा सामाजिक प्रवृत्ति की उपादेयता एवं सामाजिक समता को स्वीकार किया है :

शान्ति नहीं तब तक जब तक

सुख भाग न नर का सम हो 

नहीं किसी को बहुत अधिक हो 

नहीं किसी को कम हो

x x x x x x x x x x x

जब तक मनुज-मनुज का यह 

सुखभाग नहीं सम होगा,

शामित न होगा कोलाहल,

संघर्ष नहीं कम होगा।

वे भाग्यवाद में विश्वास नहीं करते। वे वर्तमान जीवन की विपदाओं, कष्टों, अभावों का कारण विगत जीवन के कर्मों को मानकर हाथ पर हाथ रखकर बैठना नहीं चाहते। जंगल में जाकर तप एवं साधना के बल पर आत्म कल्याण करने में वे विश्वास नहीं रखते। वे मनुष्य के पुरुषार्थ को जगाने का उपक्रम करते हैं। वे समाज में रहकर संघर्ष, कर्म-कौशल, परिश्रम एवं उदयम बल से समस्याओं का समाधान में विश्वास करते हैं। 

सब हो सकते तुष्ट, एक-सा /सब सुख पा सकते हैं, 

चाहें तो पल में धरती को /स्वर्ग बना सकते हैं

”छिपा दिये सब तत्व आवरण /के नीचे ईश्वर ने 

संघर्षों से खोज निकाला, /उन्हें उद्यमी नर ने।

‘ब्रह्मा से कुछ लिखा भाग्य में/ मनुज नहीं लाया है;

अपना सुख उसने अपने /भुजबल से ही पाया है।

”प्रकृति नहीं डर कर झुकती है /कभी भाग्य के बल से 

सदा हारती वह मनुष्य के, /उद्यम से, श्रम जल से 

र्वशी में पुरूरवा-उर्वशी की पौराणिक कथा के माध्यम से चिरन्तन पुरुष तथा चिरन्तन नारी के प्रश्नों पर विचार किया गया है। ‘उर्वशी’ हिन्दी के विद्वानों में विवादमूलक कृती रही है। कुछ आलोचकों ने कहा है कि ‘उर्वशी’ में एक दुर्निवार कामुक अहं ने अस्वाभाविक ढंग से आध्यात्मिक मुकुट पहनने की कोशिश की हैं तो कुछ आलोचकों ने उर्वशी को ‘समाधिस्थ चित्त’ की देन बतलाया है। वास्तविकता यह है कि अध्यात्म की ओर मुड़ने वाला पुरूरवा भौतिक सुख से अतृप्त रहकर किसी अभौतिक सुख की ओर उच्छ्वसित भर ही है। उर्वशी सकल कामनाओं की प्रतीक है। अरविन्द की भविष्यत् युग के बारे में धारणा है कि मानव बौध्दिक स्तर से ऊपर उठेगा और संबुध्दि के संकेतों से गतिशील होकर ऊर्ध्व यात्रा करेगा।उर्वशी अपूर्णता से उत्तारोत्तर विकास की ओर की यात्रा है। उर्वशी में भौतिक स्तर पर अभिव्यंजित ”काम” का यदि आध्यात्मीकरण नहीं भी है तो कम से कम काम का उदात्तीकरण अवश्य है। 

अंत में, निष्कर्ष यह है कि रामधारी सिंह ‘दिनकर’ के काव्य में राष्ट्रीय सांस्कृतिक चेतना की सषक्त अभिव्यक्ति हुई है। उन्होंने वैयक्तिक ‘मुक्ति’ की अपेक्षा समााजिक समस्याओं के समाधान पर बल दिया है । उन्होंने व्यकित के पुरुषार्थ को सचेत किया है, प्रेरित किया है, जाग्रत किया है, उद्बुद्ध एवं प्रबुध्द किया है। उनका विश्वास है कि व्यक्ति अपने श्रम, उद्यम एवं कर्म-कौशल से अपना भाग्य बना सकता है, अपनी तकदीर बदल सकता है। इस दृष्टि से रामधारी सिंह ‘दिनकर’ का काव्य आज भी प्रासंगिक है।

सांस्कृतिक राष्ट्रवाद का मतलब

भारतीय संस्कृति विश्व की प्राचीनतम समुन्नत संस्कृतियों में से एक है। इसकी सुदीर्घ परंपरा में अनेक मनीषी विद्वानों, मंत्र द्रष्टा ऋषियों तथा तत्ववेत्ता मुनियों के जीवनानुभवों के शाश्वत निष्कर्षों की संचित निधि जुड़ी है। इसकी वरेण्यता आप्त ऋषियों ने ‘सा संस्कृति विश्ववारा’ कहकर रेखांकित की है। इसी संस्कृति के आचरित चरित्र ने सर्व मानवों को प्रशिक्षित कर संस्कारित किया है। प्रमाण में यह श्लोक उध्दृत कर सकते हैं-

एतद्येश प्रसूतस्य सकाशादग्र जन्मना,
स्वं स्वं चरित्रं शिक्षेरन् पृथिव्यां सर्वमानवा:।

संस्कृति सभ्यता नहीं है। सभ्यता जहाँ आचरण का बाह्य पक्ष है, वहाँ संस्कृति जीवन का आंतरिक सौन्दर्य है। जीवन जीने की दृष्टि है। शाश्वत मूल्यों की मंजूषा है। औदात्य की प्रतिष्ठा है। पवित्रता की लेखनी से लिखा जागतिक कर्मों का पावन संविधान है। उच्चासन पर विराजमान सारस्वत मूर्ति संतों का संभाषण है। अभ्युदय का विज्ञान तथा नि:श्रेयस का ज्ञान है। नैर्ष्कम्य का उपनिषद तथा जीवन मुक्ति का आरण्यक है। माधुर्य की भागवत ही नहीं, कर्म की गीता भी है। जीवन का सत ही नहीं, सृष्टि का ऋण भी है। सुख का श्वास ही नहीं, सिध्दि का विन्यास भी है। नवजागरण का शंखनाद ही नहीं, प्रगति एवं समृध्दि का पांचजन्य भी है। अत: गुणात्मक है। सर्व श्रध्देय है। इसके विपरीत सभ्यता सभाओं में बैठने की शिष्टता का मानदंड भर है। सृष्टि व्यवहार का औचित्य है। संस्कृति जहाँ आध्यात्मिक मूल्य है, वहाँ सभ्यता विज्ञानात्मक संचेतना है। संस्कृति जहाँ शाश्वत सत्यों को सहेजे है, वहाँ सभ्यता यांत्रिक परिणामात्मक उपयोगी सत्यों को सहेजे है। दोनों के वैभिन्य के बीच अंतर्बाह्यता की तथा आध्यात्मिक एवं भौतिकता की अति सूक्ष्म झीनी-सी पारदर्शी पट्टिका है, जिसे सरलता से पृथक करना कठिन है।
जब हम राष्ट्र के आगे सांस्कृतिक शब्द का प्रयोग करते हैं, तब तत्काल हमारा ध्यान, राष्ट्र जनों के उन जीवन-मूल्यों की ओर जाता है जो शाश्वत ही नहीं, राष्ट्र जीवन को अहम् से वयम् की ओर तथा सयम् से ओम तत्सत् की ओर ले जाने वाले हैं। राष्ट्र जीवन को पूर्ण एवं सार्थक बनाने वाले हैं। राष्ट्रजनों की अंतश्चेतना को विकसित एवं सृदृढ़ बनानेवाले हैं। इन्हीं सांस्कृतिक मूल्यों के प्रति आस्था जनित निष्ठा ही राष्ट्रजनों को राष्ट्रीय बनाती है। इस तरह राष्ट्रीयता का मूल स्वरूप राजनीतिक न होकर सांस्कृतिक है। निश्चित भू भाग तथा निश्चित निष्ठावान जन तो भौतिक उपकरण हैं। संस्कृति ही आध्यात्मिक, गुणात्मक तथा शाश्वत जीवन-मूल्य है, जिनका अनुसरण करती प्रजा उसे राष्ट्र का रूप प्रदान करती है। मातृभूमि के प्रति भक्ति तथा जन के प्रति आत्मीयता का भाव सांस्कृतिक मूल्य हैं। यही तीनों मिलकर राष्ट्र को राष्ट्र बनाती हैं। राष्ट्र किन्हीं संप्रदायों तथा जन-समूहों का समुच्चय न होकर, एक जीवमान इकाई है। ऐसे राष्ट्र पुरूष का सजीव व्यक्तित्व है, जिसमें भूमि, जन एवं संस्कृति की जीवंत एकता का सतत निवास वर्तमान रहता है। दशम मंडल में ऋग्वेद के ऋषि से शिष्य पूछता है कि राष्ट्र पुरूष के जो विविध रूप दिए गए हैं वे कितने प्रकार से व्यकल्पित किए जा सकते हैं? मंत्र है-
यत् पुरूषं व्यवर्धु: कति धा व्यकल्पन्

मुखं किमस्य कौ बाहु का ऊरू पादा उच्यते? 10-8-11
तब ऋग्वेद का ऋषि उत्तर देता है-
ब्राह्मणोस्य मुखमासीद् बाहू राजन्य: कृत:
उरू तदस्य यद्वैश्य पद्मयां शूद्रो अजायत्। (10-9-92)

र्थात् राष्ट्र पुरूष का मुख ब्राह्मण, बाहु राजन्य, उरू वैश्य तथा पादशूद्र है। चारों वर्णों के संघात से ही राष्ट्र प्रमुख का निर्माण होता है। इनमें कौन बड़ा है और कौन छोटा, यह कहना अपराध ही होगा। कर्म निष्ठा ही चारों के लिए मुक्ति प्रदाता बनती है। इस मंत्र के आशय को इस प्रकार भी व्याख्यायित कर सकते हैं कि समाज जीवन में चार प्रकार की मनुष्य प्रवृत्तिायां कार्यरत हैं, बुध्दि, सूक्ति, अर्थ तथा श्रम शक्ति। बुध्दि ज्ञान का पथ प्रशस्त करती है। शक्ति सीमाओं की रक्षा करती है आंतरिक अराजकता का शमन करती है। अर्थ औद्यौगिक एवं व्यापारिक विकास का हेतु है तथा श्रम विकास की योजनाओं की सम्पूर्ति का एकमेव साधन है।
स्वीकृत सांस्कृतिक जीवन दृष्टि ही एक राष्ट्र को दूसरे राष्ट्र से पृथक करती है। प्रत्येक राष्ट्र उसकी स्वीकृत जीवन दृष्टि से ही पहिचाना जाता है। पृथकता की यह स्वीकृति तथा इसका सैध्दांतिक पक्ष ही राष्ट्रवाद को जन्म देता है। कोई भी विचार तभी वाद का रूप लेता है जब उसके आचरण कर्ता उस विचार को जीवन का एक अंग बना लेते हैं। राष्ट्र को सामने रखकर जब कोई सिध्दांत या चिंतन निरूपित होता है, तब वह विचार राष्ट्रवाद के नाम से अभिहित किया जाता है। राष्ट्रवादी हर कार्य को राष्ट्र की तात्कालिक परिस्थितियों तथा आवश्यकताओं को ध्यान में रखते हुए निर्धारित एवं व्यवहारित करता है। फिर चाहे वह प्रश्न राष्ट्र की सीमाओं की रक्षा का हो या जन के मौलिक अधिकारों की संरक्षा का या संस्कृति की गरिमापूर्ण मर्यादा को सुरक्षित रखने का। राष्ट्रवादी पहले अपने राष्ट्र का हित देखता है। उसके पश्चात् ही नीति निर्धारित करता है तथा आवश्यक संरक्षात्मक कदम उठाता है।
यहाँ यह प्रश्न उपस्थित हो आना स्वाभाविक है। जब राष्ट्र की परिभाषा में संस्कृति शब्द समाहित है तब राष्ट्रवाद के आगे अतिरिक्त सांस्कृतिक शब्द लगाने की क्यों आवश्यकता पड़ी। सच में यह एक गंभीर प्रश्न है तथा गहराई से विवेचन की अपेक्षा रखता है। संस्कृत शब्द में ‘ठक्’ प्रत्यय लगकर ‘कितिच’ सूत्रानुसार सांस्कृतिक शब्द बनता है। इसे हम संस्कृति का भाववाचीकरण कह सकते हैं। सांस्कृतिक शब्द अपनी परिधि की व्यापकता में संस्कृति के सभी उपादानों एवं उपकरणों को समेटे होता है। हम जानते हैं संस्कृति शब्द ‘कृ’ धातु से ‘सम’ उपसर्ग पूर्वक ‘सुट्’ आगम करके ‘क्तिन’ प्रत्यय के योग से निष्पन्न है। ‘सम’ उपसर्ग जहाँ भी जुड़ता है वह वहाँ संस्कारित अथवा सुन्दरीकृत का अर्थ देता है। ‘सम’ के सभी अर्थ पश्चात्वर्ती शब्द को विशेषित करते हैं। विद्वान उसके दो ही अर्थ मुख्य रूप से ग्रहण करते हैं। एक तो संस्कारित सम्यक कृति और दूसरा संभूय कृति के रूप में। संघश: कृति सम्भूय कृति कहलाती है। इस तरह संस्कृति संस्कार युक्त सम्भूय कृति है। संस्कार, सामाजिक विद्रूपताओं के साथ मनीषियों के बौध्दिक संघर्ष का सुपरिणाम है। मनुष्य उन पर विजय के पश्चात जिन तात्विक एवं सात्विक निष्कर्षों पर पहुंचता है, वे निष्कर्ष ही शनै:-शनै: संस्कृति बनते चलते हैं। मानवीय जीवन मूल्य बन जाते हैं। कह सकते हैं मानव के जीवनानुभवों का नवनीत ही संस्कृति है। समाज से संघर्ष का क्रम निरंतर बना ही रहता है। इस कारण संस्कृति में नैरंतर्य बना रहता है। यहाँ यह स्पष्ट कर देना उचित रहेगा कि संस्कृति की स्वीकृत जीवन-दृष्टि में कहीं कोई बदलाव नहीं आता। ऐसे निष्कर्ष संस्कृति के आचरण पक्ष के उपादानों एवं उपकरणों में अभिवृध्दि ही करते हैं। प्रत्येक राष्ट्र अपनी सांसकृतिक परंपरा के शाश्वत मूल्यों से जब तक जुड़ा चलता है, तब तक वह जीवंत एवं समुन्नत बना रहता है। स्खलन उसकी गरिमा तथा प्रतिष्ठा को हानि पहुंचाता है। मर्यादाओं को नष्ट ही नहीं करता, उपेक्षा तथा तिरस्कार का भाव जगा, परिणामगत दुर्बलताओं को स्वीकारने में भी संकोच नहीं करता। हम जानते हैं सांस्कृतिक स्खलन के कारण ही विश्व के अनेक राष्ट्र मिट गये। इकबाल ने कहा भी है-

यूनान मिश्र रोमां सब मिट गये जहाँ से
अब तक मगर है बाकी नामोनिशा हमारा।
कुछ बात है कि हस्ती मिटती नहीं हमारी
सदियों रहा है दुश्मन दौरे जहाँ हमारा।

यह जो ‘कुछ बात है’ यह हमारी सांस्कृतिक निष्ठा ही है। अपनी सनातन संस्कृति के साथ अटूट जुड़ाव ही है। इसी से अनेकों झंझावातों के बीच भारत-तरणी विपत्तिा समुद्र को पार करने में सक्षम एवं समर्थ सिध्द हुई है। इसकी पृष्ठभूमि में भारतीय राष्ट्रीय जीवन का अपनी मूल्यवान आध्यात्मिक संस्कृति को जड़ से दृढ़ता से पकड़े रहना ही है। इसी सत्य को बार-बार उजागर करने के हेतु से मनीषियों को राष्ट्रवाद के आगे सांस्कृतिक शब्द जोड़ने की आवश्यकता अनुभव हुई है। एक और भी कारण हो सकता है। जब राष्ट्रवाद के आगे सांस्कृतिक शब्द जुड़ जाता है तब वह सोच का एकमेव सांस्कृतिक अधिष्ठान भी निर्धारित कर देता है। तब मनीषि, जीवन के समस्त व्यवहारों में संस्कृति को सामने रखकर ही नीति निर्धारित नही ंकरते, आचरण तक भी सांस्कृतिक परिप्रेक्ष्य में ही तय करते हैं। तब लक्ष्य का ही नहीं, साधनों की पवित्रता का भाव भी सामने रहता है। इसी कारण तो महाभारत में धर्मराज का यह कथन ‘अश्वत्थामा हतौ नरो वा कुंजरौ’ कभी अभिशंसित नहीं हुआ। यह किसी अपवाद को सहन नहीं करता। तीसरा कारण यह भी हो सकता है राष्ट्र के उपादान तत्व भू और जन के साथ संस्कृति अपनी पृथक सत्ताा के साथ अलग विचार की अपेक्षा रखती है। जब सांस्कृतिक शब्द राष्ट्रवाद के आगे जुड़ जाता है तब किसी अवमूल्यन, किसी गिरावट अथवा किसी अपवाद के लिए कोई स्थान शेष नहीं रहता। तब राष्ट्र हित चिंतन की एकमात्र कसौटी सांस्कृतिक बोध ही रह जाती है। राष्ट्रवाद की अवधारणा का एक मात्र निकष सांस्कृतिक अधिष्ठान पर अवस्थित विचार ही रह जाता है। इस तरह यह जोड़ निरर्थक नहीं सार्थक ही कहा जाएगा। इसका परिणामात्मक लाभ भी राष्ट्र को मिला है। इसी बल पर आज भारत विपत्तियों की भारी चट्टानों के बोझ को शीश से उतार फेंकने में, पराधीनता की बेड़ियों को काटने में, धर्मांधता की आंधी को रोकने में तथा मतांतरण के षडयंत्रों को उध्वस्त करने में पूरी तरह सफल हो, विकसित राष्ट्रों की श्रेणी में आने का व्यग्र खड़ा है।
इसी संदर्भ में एक और प्रश्न अंतर्राष्ट्रीयतावादियों ने उठा, राष्ट्रवाद के आगे प्रश्नवाचक लगाने का दुस्साहस किया है। अंतर्राष्ट्रीयतावादी तथा छद्म धर्मनिरपेक्षतावादी राष्ट्रवाद का नाम सुनते ही नाक भौंह सिकोड़ते हुए कानों में अंगुलियां नहीं, शीशा डाल लेते हैं। मानों राष्ट्रवाद का शब्द प्रयोग, कोई एक बड़ा अपराध हो। ऐसा सोचने वाले स्वयं वर्गवादी हैं। ‘दुनिया के मजदूरों एक हो जाओ’ यह कहने वाले स्वयं द्वैतवादी हैं। जो श्रमिक नहीं हैं उन्हें वे शोषक की संज्ञा देते हुए शत्रुवत मान, उनके विनाश तक की भयंकर कामना लिए होते हैं। समाज तक से उनका बहिष्कार तथा तिरस्कार का भाव लिए होते हैं। जबकि राष्ट्रवादी सोच वाला मानव मात्र के हित को अपने राष्ट्र हित से पृथक नहीं मानता। वे भूल जाते हैं, राष्ट्रवादी भारत के मंत्र द्रष्टा ऋषियों ने ही गाया है ‘माता भूमि पुत्रोहम् पृथिव्या:। इन्होंने ही ‘वसुधैव कुटुम्बकम्’ तथा ‘सर्वे भवन्तु सुखिन:’ जैसे विश्वात्मक वैश्विक मंत्र दिए हैं। इन मंत्रों की पृष्ठभूमि में वही भारतीय सांस्कृतिक अवधारणा कार्यरत है जिसका अधिष्ठान अध्यात्म है। सारी सृष्टि एक ही चेतन सत्ताा का विस्तार है। कहीं कोई भेद नहीं है। कोई द्वैत नहीं है। यह अभेदात्मक अद्वैत दृष्टि ही उपर्युक्त वैश्विक सोच की नींव में है। दुनिया के मजदूरों को एक करने का नारा देने वाले रूस और चीन आज भी अलग-अलग राष्ट्र हैं। ये बहुत समय तक सीमा संघर्ष में उलझे भी रहे हैं। इनने अपनी प्रादेशिकता का त्याग कब किया है। संयुक्त राष्ट्र संघ को ही लें। यह राष्ट्रों का संघ है। राष्ट्रों की सापेक्षता स्वीकार कर चला है। अपने को अंतर्राष्ट्रीय कहने वाले भूल जाते हैं कि इस शब्द प्रयोग में ही राष्ट्रों की उपस्थिति अनिवार्य है। सारा विश्व राष्ट्रों में बंटा है। हर राष्ट्र की अपनी संस्कृति है। हर राष्ट्र की अपनी भाषा है। जिन राष्ट्रों ने परकीय भाषा एवं संस्कृति अपना रखी है, वे पूर्व में उस राष्ट्र के प्रमुख में पराधीन रह चुके हैं वे राजनीतिक दृष्टि से स्वतंत्र होकर भी सांस्कृतिक एवं भाषाई दृष्टि से आज भी पराधीन ही हैं। जिन राष्ट्रों की अपनी भाषा संस्कृति नहीं होती निश्चय ही वे राष्ट्र कहलाने के योग्य पात्र नहीं है।

भारतीय साहित्य के अवलोकन से हमें इस सत्य के दर्शन होते हैं कि सांस्कृतिक राष्ट्रवाद ही सदा सर्वदा साहित्य का आदर्श रहा है। क्या संस्कृत साहित्य, प्राकृत साहित्य, पाली साहित्य, अपभ्रंश साहित्य और क्या लोकभाषा साहित्य, सभी ने संस्कृति और राष्ट्रीयता को ही अपना कथ्य बनाया है। प्रगतिवाद जनवाद के नाम से जो अभारतीय चिंतन भारतीय साहित्य में साम्य का नारा लेकर अनुप्रविष्ट हुआ, ऐसे समाज ने कुछ काल के भ्रम के बाद ही नकार दिया। समाज को वह नग्न यथार्थ कहे, या भोगा हुआ यथार्थ कभी स्वीकार नहीं हुआ। सामाजिक सांस्कृतिक जीवन-मूल्यों पर साहित्य के माध्यम से कभी स्वीकार नहीं हुआ। सामाजिक सांस्कृतिक जीवन-मूल्यों पर साहित्य के माध्यम से किया जाता यह सीधा आक्रमण भारतीय समाज को भी गले नहीं उतरा। उस साहित्य के लेखकों को पाठकों की खोज के उपाय अपनी बैठकों में सोचने पड़ रहे हैं। इसी तरह से भारतीय समाज ने अस्तित्ववादी, क्षणवादी आधे-अधूरे पाश्चात्य दर्शन को भी कभी स्वीकार नहीं किया है। भले ही इन्होंने प्रयोगवाद, नई कविता आदि के नाम लेकर कितने ही बड़े नाटक क्यों न हों। इनके समकालीन प्रयास समय की कसौटी पर खरे नहीं उतरे हैं।

इसका कारण भी है। साहित्य और संस्कृति का अन्योन्याश्रित संबंध रहा है। साहित्य संस्कृति का संवाहक है और संस्कृति साहित्य की आशा है। संस्कृति साहित्य में लिपटी रहती है। कभी कथानक के रूप में, तो कभी शिल्प के रूप में। वही साहित्य श्रेष्ठता अर्जित करता है जो संस्कृति को अधिकाधिक आत्मसात् किये होते हैं। संस्कृति विहीन साहित्य की कल्पना शशक श्रृंगवत है। संस्कृति भी वही जीवित रहती है जिसका विपुल परिमाण में साहित्य उपलब्ध होता है। जिस संस्कृति का साहित्य नहीं होता, वह संस्कृति कालांतर में अकाल काल कवलित हो जाती है।
मानवता को उजागर करनेवाला साहित्य ही है। साहित्य मनुष्य और समाज की मनोभावनाओं को शब्द के स्तर पर प्रभासित करता हुआ, मानवीय आदर्श की प्रतिष्ठापना करता है। साहित्य के शब्द-शब्द में भावोद्रेक की अप्रतिम शक्ति होती है। यह व्यक्ति को उसकी वास्तविक स्थिति से परिचित करा, उन उदात्ता विश्वासों से जोड़ता है जो उसे महामानव बनाते हैं। सामाजिक धरातल पर मानव का यह उदात्ता की ओर आरोहण है। व्यक्ति के धरातल पर जीवन प्रवृत्तियों का उन्नयत भी साहित्य ही करता है। साहित्य मानवीय संवेदना जगा, मानव संबंधों में सघनता उपजाता है। यह मनुष्य के भीतर चल रहे आंतरिक संघर्ष को तीव्र कर स्वस्थ एवं सही पथ पर अग्रसर करता है। साहित्य की परिधि में जहां सामाजिक संबंधों का नैकटय आता है वहीं सांस्कृतिक परंपरा की पहचान को नवीनतम रूपों से ग्रहण करने की प्रेरणा भी आती है।
साहित्य सृजन इस तरह एक सांस्कृतिक कर्म है। यह संस्कृति को अक्षुण्ण रखता है। संस्कृति साहित्य को अनुप्राणित करती है। साहित्य की जीवनीशक्ति के मूल में उसकी गौरवशाली सांस्कृतिक परंपरा ही होती है। साहित्य, संस्कृति का संवाहक होकर भी सदैव संस्कृत्योन्मुख रहता है। संस्कृति विमुख साहित्य की स्थिति उस रोगी की तरह होती है जिसे मृत्यु-मुख में जाने से कोई उपचार नहीं रोक पाता। जब भी साहित्य संस्कृति विमुख हुआ है, वह या तो दिग्भ्रम की स्थिति जीने लगता है अथवा मृत्यु का ग्रास बना है।
संस्कृति की प्रभविष्णुता अति सूक्ष्म किंतु अति तीव्र होती है। ऐसे समय में वह साहित्य को ही नहीं समय को भी नियंत्रित करती है। संस्कृति की यह प्रभविष्णुता कभी प्रत्यक्ष दिखती है तो कभी नहीं। प्रत्यक्षता की स्थिति में इसे सांस्कृतिक शक्तियां बलशाली हुई समय-रथ की वल्गा थामें दिखाई देती है। आज समय साहित्य के सम्मुख चुनौती बनकर खड़ा है। ऐसी स्थिति में तो साहित्य को समय से आगे निकलने का सामर्थ्य अर्जित करना ही चाहिए। इस हेतु उसे अपने सांस्कृतिक अधिष्ठान पर अंगद चरण जमा खड़ा होना है। तभी वह प्रतिगामी शक्तियों के चेहरों पर चढ़े मुखौटों को हटाने की शक्ति स्वयं में जगा सकेगा। इन दिनों प्रतिभागी शक्तियों ने विश्व-अराजकता के कर्णणारों के साथ दुरभि संधि कर रखी है। ऐसे प्रयासों को कुंठित कर विश्वमंच पर साहित्य को सत्यं शिवं सुंदरम् से अभिमंडित अपनी श्रेष्ठ सांस्कृतिक छवि उपस्थित करनी है। इस सांस्कृतिक समर में भारत को साहित्य के साथ-साथ सांस्कृतिक राष्ट्रवाद को भी ध्येय के रूप में अंगीकार कर आलोक की नवीनतम दीपशिखा के साथ विश्वमंच पर खड़ा होना है।

सांस्कृतिक राष्ट्रवाद का अपनाव आज राजनीति के लिए जितना आवश्यक है उससे कम साहित्य के लिए नहीं है। साहित्य का इतिहास अथ से आज तक सांस्कृतिक राष्ट्रवाद का ही इतिहास है। सांस्कृतिक राष्ट्रवाद को ध्येय वाक्य के रूप में जब तक अंगीकार नहीं करेंगे, भारत वैभव के उन्नतम शिखरों का स्पर्श कदापि नहीं कर सकेगा। कालजयी साहित्य नहीं लिखा जा सकेगा। वर्तमान के संकटापन्न इस काल में यदि प्रतिगामी शक्जियों को दुर्बल समझ, सांस्कृतिक राष्ट्रवाद को दुर्लक्ष्य किया तो निश्चय ही यह स्थिति भारत को महंगी पड़ सकती है। इसलिए राजनीति और साहित्य दोनों को सांस्कृतिक राष्ट्रवाद की अवधारणा को दृष्टि-पथ में रख, औपनिषदिक मंत्र ‘चरैवेति चरैवेति’ का घोष गुंजाते हुए त्वर गति से आगे बढ़, भारत को विकसित राष्ट्रों की पंक्ति में खड़ा करना है।

———दयाकृष्ण विजयवर्गीय