“मेरे हार गये सब जाने-माने कलावन्त,
सबकी विद्या हो गई अकारथ, दर्प चूर,
कोई ज्ञानी गुणी आज तक इसे न साध सका।
अब यह असाध्य वीणा ही ख्यात हो गयी।
पर मेरा अब भी है विश्वास
कृच्छ-तप वज्रकीर्ति का व्यर्थ नहीं था।
वीणा बोलेगी अवश्य, पर तभी।
इसे जब सच्चा स्वर-सिद्ध गोद में लेगा
- सच्चा स्वरसिद्ध में कर्तापन का भाव मौजूद नहीं रहता। कलावंत अभियक्तिऔर अनुभूति के अद्वैतत्व को नहीं समझ पाते कि अभिव्यक्ति को साधने केलिए अनुभूति को साधना जरूरी है। अन्य कलावन्तो द्वारा अपने स्वर को आरोपित करने की कोशिश।
- पर मेरा अब भी है विश्वास’- यहाँ भारतीय जीवन परक आस्था का संकेत। राजा का विश्वास वज्रकृति की कठिन साधना , हठयोग साधना व्यर्थ नहीं जायेगी। वज्रकीर्ति की यह साधना कृच्छ तप क्यों -यही वीणा उसके जीवन कीउपलब्धि है जिसे वह अपनी जान की कीमत पर भी हासिल किया है।
- यहाँ राजा का संकेत जीवन सार्थकता की ओर है।
- वीणा सृजन का प्रतीक बन कर आती है। ‘वीणा बोलेगी अवश्य ‘- मनुष्य की सृजन शक्ति में आस्था कोअभिव्यक्ति मिलती है और इसमें राजा की आस्था वास्तव में अज्ञेय की आस्था है।
- यहाँ जो आस्था और विश्वास है , राम की शक्ति पूजा में यहीविश्वास जामवंत को भी है।
- जापानी लोककथा के भारतीय संस्करण की पृष्ठभूमि में सर्जनात्मक रहस्यवाद की अभिव्यक्ति और इस क्रम में यहाँ पर सर्जना की अर्हता का संकेत।
- विजय देव नारायण साही और रमेशचंद्र साह ने अज्ञेय को प्रसाद के सांस्कृतिक भावबोध के करीब माना है औरयहाँ पर अज्ञेय अस्तित्ववादी अनास्था को भारतीय जीवनपरक आस्था के जरिये प्रतिस्थापित करते हुए उनकी इस मान्यता की पूर्ति करते हैं।
- भाषायी अभिजत्यापन , परन्तु तदभव शब्दों के जरिये जीवन्तता प्रदान की है।